धूप का कोण बदलने लगा है. और उसमें तीखापन भी बढ़ रहा है. क्वांर जो ठहरा. सूरज को भी अब लौटने की जल्दी रहती है. श्वेत पंखुड़ियों को नारंगी डंठल पर सजाए शिउली की नन्हीं बूंदों से सामने की ज़मीन का टुकड़ा भरने लगा है. हवा में एक रहस्यमय गंध भरने लगी है. जैसे कोई प्रत्याशा तैर रही हो. कवि से शब्द उधार लूँ तो कह सकता हूँ, अनुभव से जानता हूँ कि यह शारदीय गंध है.
बेटी के मायके आने का मौसम. वर्ष भर की प्रतीक्षा के फलीभूत होने का समय. माँ की व्याकुलता के चरम पर पहुँचने का क्षण. बेटी आएगी तो? उमा, गौरा, पार्वती, माँ किन नामों से पुकारती रही होगी? और पिता हिमालय? कौन सा नाम दुलार का रहा होगा, डाक नाम? क्या माँ का अलग होगा और पिता का अलग?
मेना वार्षिक प्रतीक्षा करते हुए गाती है. गाते हुए रोती है और रोते हुए गाती है. बेटी पगली थी जो रीझ गई उस नंगे-बूचे पर. न घर का ठिकाना न खाने का जुगाड़. आते-जाते नज़र पड़ी और हठ पकड़ ली, रहूँगी तो उसी के साथ, नहीं तो यों ही जीवन गुजार दूँगी. खाना-पीना छोड़ दिया. क्या करते? एक ही बेटी ठहरी. ठान लिया सो ठान लिया. पिता को भी दिल कड़ा करके मानना ही पड़ा. दूल्हे के घर-बार, आगे-पीछे का कुछ पता नहीं. क्या करता है, कौन साथी-संघाती हैं! आखिर बेटी है, इतने दुलार से, जतन से पाला पोसा है, किसी भी ऐरे-गैरे के पल्ले ऐसे कैसे बाँध दें! पर नहीं साहब, बेटी ने मजबूर कर दिया.
उड़ते-पुड़ते सुना–दुहाजू है. पहली पत्नी ने बाप के सामने जान दे दी क्योंकि मायके में पति का अपमान हो गया था. अहंकारी बाप ने गरीब दामाद को न्योता जो नहीं भेजा था. बस! बेटी का भी दिमाग फिर गया. गुस्से में तमतमाई बाप के घर जा धमकी और भरी महफ़िल में जान दे दी आग में कूद कर ! फिर यह भी सुना कि पत्नी का शरीर कंधे पर लिए-लिए पगलाया हुआ घूमता रहा, घूमता रहा. एक-एक अंग गिरता रहा और यह पत्नी के विरह में क्रोध और शोक से बेहोश बस चक्कर लगाता रहा. क्या इस बीहड़ पत्नी प्रेम की कथा फैला कर मोह लिया इसने हमारी गौरी को? कुछ भी हो सकता है!
ऐसी खबर छिपती भी तो नहीं! लोगों को पता चला तो आ-आकर पिता के कान में फुसफुसाने लगे – अजी ! वह तो सदा ही मताया रहता है. अजीब-अजीब साथी हैं उसके. और हमेशा देव-विरोधियों का साथ देता है. जिस दानव को देखो, जिस राक्षस की बात करो, इसका भक्त निकल आता है. और यह भी ऐसा है कि किसी को कुछ, किसी को कुछ देने को तैयार रहता है. देवगण तो तंग आ चुके हैं इससे ! भली सोहबत नहीं है इसकी. किसी के भी पुकारने पर चल पड़ता है. उसकी मदद से भले लोगों को इन दुष्टों ने बहुत तंग किया है. बेचारे विष्णु को हमेशा इसका बिगाड़ा सुधारना पड़ता है. एक तो कुछ है नहीं अंटी में, जो है भी कोई माँगने आए, देने को तैयार. आपको अपनी बिरादरी का ख़याल रखना ही होगा. बेटी को समझाइए.
बेटी समझाने से समझती है, भला ! वह भी हमारी गौरी ! भाग-पड़ा कर शादी करे, इससे अच्छा तो यही है कि हम इंतजाम कर दें. दिल को संतोष तो रहेगा कि बेटी को खुद विदा किया.
क्या बताऊँ लेकिन, जो सोचा था, उससे भी भयानक निकला. बारात जो आई द्वार पर तो पास-पड़ोसी मुँह दबा कर हँसने लगे. एक ही निराली बारात ! बैल पर दूल्हा देखा है किसी ने? फिर साँप, वगैरह गले में लिपटे ? अजीब सूरत-शकल वाले साथी. कोई भी तो भला आदमी नहीं दीखा ! भूत-पिशाच,सब ! बिरादरी वालों ने व्यंग्य में मुँह बिचकाया. पड़ोसिनें आँखें नचाने लगीं : खून का घूँट पीकर रहना पड़ा. बेटी किन्तु ज़रा भी विचलित नहीं हुई. मानो वर ने कोई मंतर फूँक दिया हो. बाप कुछ बोले नहीं. बस ! मुँह बंद कर सारी रस्में निभाते रहे. हो-हल्ला करते हुए, इसके नशेड़ी-भंगेड़ी दोस्त खा-पीकर जैसे आए थे, वैसे ही रवाना हो गए.
सबने हम पर तरस खाया.काना-फूसी शुरू हो गई : देखना, बेटी कल रोती-गाती न लौट आए तो कहना! माँ-बाप भी कैसे गैर-जिम्मेवार हैं, बेटी पर नज़र नहीं रखते. सर नीचे करके सब सुनना पड़ा. लेकिन एक-एक दिन निकले और बेटी की खबर ही नहीं. इधर माँ का कलेजा काँपता रहा और उधर लोगों को फिर मौका मिला:कुछ तो अता-पता रखना चाहिए!सुना है कैलास पर कोई झोंपड़ी डाल रखी है.भांग-धतूरा खा कर पड़ा रहता है, कोई काम-काज करता नहीं है. बेचारी नखरों की पली पार्वती झाडू लगाती है खुद.घर में कोई अच्छा बर्तन-बासन नहीं है.बस!आस-पास से जलावन लाकर टूटे-फूटे बरतन में खाना बनता है और खाया जाता है. सुना है, परम क्रोधी है उसका दूल्हा.
मेना दम साधे उसकी ओर से खबर का इंतजार करती रही. कोई सुनगुन नहीं, कोई समाचार नहीं. नारद भी नहीं आते इस ओर आजकल कि पूछूँ. उसी बन्दे ने तो तैयार कर लिया था अपनी मोहिनी बातें सुना-सुना कर. वरना तो मैंने कह दिया था, नहीं भेजूँगी उस नशेड़ी-भंगेड़ी के साथ अपनी उमा को.
साल बीतने को आया. कास फूलने लगे हैं, शिउली फूल की भीनी गंध से हवा हल्की हो आई है. मेना का धीरज का बाँध टूटने लगता है. पिता हिमालय तो राजकाज में व्यस्त रहते हैं, फिर ठहरे पुरुष! रात को कैलास की ओर मुँह करके चुपचाप देखते रहते हैं, लंबी सांस भरते हैं, कुछ बोलते नहीं. मेना भर्त्सना करती हैं उनकी, ‘जाओ, बेटी को लिवा लाओ. लोगबाग भी क्या कह रहे हैं, सुना है तुमने? ब्याह करके बस छुट्टी पा ली उससे जैसे बेटी बोझा थी !’ मेना कहती हैं, ‘ले आओ बेटी-जमाई दोनों को, इस बार महादेव को कहूँगी, यहीं रह जाओ ! घरजमाई की तरह रहेगा. बेटी आँख के सामने तो रहेगी कम से कम !’
बेटी आती है, प्रसन्नवदन. कोई गहना-आभूषण नहीं. एक मलिन सी साड़ी है, लेकिन खुश नज़र आती है. माँ अकेले में जानना चाहती है. बेटी हँस उठती है. पूरी दुनिया उस बैल के सवार, डमरूवाले के साथ घूमने के किस्से सुनाती है. डरपोक देवताओं के तरह-तरह के मदद, पैरवी के किस्से सुनाती है. लगता है, इसका भी दिमाग फिरने लगा है. शिव का मन लगता है समाज-बाहर लोगों के बीच : भूत-प्रेत, दानव-राक्षस. डमरू बजाते हैं, नाचते-गाते हैं. नृत्य देखोगी माँ तो पागल हो जाओगी ! मेना अचरज से सब सुनती रहती हैं. दामाद में पुरुष जैसा लक्षण तो कोई दीखता ही नहीं!
अभी माँ-बेटी की बात ख़त्म नहीं हुई कि तीन दिन निकल जाते हैं. उधार डमरू की आवाज़ आने लगती है. और नंदी के गले में बंधी घंटी की भी. उमा व्यस्त हो उठती है. पति आ गया लगता है. मेना क्षुब्ध होती हैं, इतनी भी क्या बेसब्री ! लोग क्या कहेंगे ! इतनी व्याकुलता, पत्नी के बिना कुछ दिन भी रह नहीं सकता ! बेटी माँ को समझाती है : तुम्हारा जमाई मेरे बिना रह नहीं सकता. और तुम भी तो किसी की बेटी हो.
शिव आ गए हैं अपनी प्रिया को लिवा जाने. पड़ोसिनें फिर फिस-फिस करती हैं, ’लगता है भांग खत्म हो गई जो यह पीसकर रख आई थी ! गौरी, ज़रा हाथ तो दिखाओ अपने, लोढ़े से सिलबट्टा पर भांग पीसते-पीसते घट्टा तो नहीं पड़ गया है बेचारी के हथेली में !’ और वह आ ही गया ! नाचता है, डमरू बजाता है, कोई लोकलाज नहीं ! सास ससुर के सामने, ससुराल में भी नाच-गान की महफ़िल ! मेना रोते-रोते बेसुध हो जाती हैं, लेकिन बेटी निष्ठुरता से जाने को तैयार हो जाती है.
कवि राम प्रसाद ठिठोली करते हैं, “अरे उमा, यह नचैया-बजवैया त्रिशूल लेकर क्या करता है? सेंध काटता है क्या उससे? और दोनों बेटों को गंजी पहनाए बिना दुनिया घुमाती रहती हो. कहीं तुम्हारी सौत के बेटे तो नहीं?”
उमा भी बदल गई है. भिखमंगा कहकर दुरदुराए जाने पर भी अपने शंकर की असलियत जानती है. श्मशान से भय नहीं लगता उसे. वह तो उस बमभोले के साथ खुश है. भस्म रचाए उस त्रिनेत्र की प्रेम भरी निगाहों की शीतलता और ऊष्मा, दोनों का ही अनुभव किया है उसने. सर्वहारा है तो क्या हुआ ! कलावंत है. डमरू बजाता है तो जैसे काल को ही पुकारता हो. और भीषण दयालु है. किसी को भी तो निराश नहीं करता. लेकिन पार्वती देवताओं की तरफ उसके झुकाव को समझ नहीं पाती. नाकारा देवता, हमेशा रोते गाते आते हैं, इस राक्षस ने यह छीन लिया, उसने मार कर निकाल दिया. शिकायत करते हैं, दुहाई देते हैं, ‘आपने ही मन बढ़ा रखा है उनका, आपके पास जमघट लगाए रहते हैं !’
हर वर्ष शरत की पदचाप सुनते हुए इस किस्से को दुहराता हूँ. लेकिन इस बार जी कर रहा है, उमा को कहूँ, ‘उधर ही रह जाओ, माँ ! यह पर्व अब बेटी का रहा नहीं. एक तो तुम्हें इतने अस्त्र-शस्त्रों से लैस कौन कर रहा है? क्या ये छली, कायर देवता शिव के साथ तुम्हारा भी इस्तेमाल कर रहे हैं माँ? तुम तो मेना-पुत्री हो न? फिर यह अंहकार इनका कि कहें कि इनके तेजों के मिश्रण से तुम जनमी हो !
आखिर महिषासुर ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो तुम उससे युद्ध करो और उसकी ह्त्या करो ! ज़मीन-संपत्ति का झगड़ा है न उनके बीच ! फिर उस युद्ध में तुम्हारा क्या प्रयोजन, माँ? वह तो उन्हीं में से है जो तुम्हारे पति के साथ नाचते गाते हैं, भाँग बूटी छानते हैं. तुम्हारे सौम्य प्रेमिल मुख से इन हथियारों का क्या मेल !’
कहना चाहता हूँ, ‘माँ ! इधर मत आओ अभी. हर वर्ष ही तुम्हारे आगमन के पहले हवा में रक्त और आँसुओं का नमक घुलने लगा है आजकल. तुम्हारे नाम पर सेना बन गई है और तुम्हारे उस बमभोले ने जो मज़े में सजावट के तौर पर त्रिशूल ले रखा था, उसे मालूम नहीं, उसके चलते उसे डरौने के तौर पर इस्तेमाल करने लगे हैं लोग. पूरा मौसम घृणा का हो चला है. तुम्हारी माँ की व्यथा अलग थी, उमा. वह एक माँ की आशंका थी. लेकिन वह तो अब अपने नातियों गणेश-कार्तिकेय के साथ तुम्हारा स्वागत ही करती रही है न? पिता हिमालय अपनी प्रतिष्ठा के अंहकार में नाचने-गानेवाले डमरूधारी को ससुराल आने से सती के पिता दक्ष की तरह रोकते तो नहीं ! फिर ये कौन हैं उमा, जो तुम्हारे नाम पर लोगों को डरा-धमका रहे हैं? तुम इनका स्वागत कैसे स्वीकार कर सकती हो माँ?’
मैं अपनी बड़ी होती बेटी को देखता हूँ, माँ. मैं उसे बताना चाहता हूँ कि यह बेटी का पर्व है, बेटी और माँ-बाप का. माँ-बाप की बात न माननेवाली हठी बेटियों का,प्रेम की असुविधा का वरण करनेवाली बेटियों का. बेटियों और जातबाहर जमाइयों के आदर का त्यौहार . यह उनके स्वागत का पर्व है. लेकिन मैं उसे तुम्हारे पास कैसे भेजूँ, तुम्हें इतने हिंसक रूप में कैसे दिखाऊँ उसको ! वे कौन हैं जो तुम्हारी अभ्यर्थना के नाम पर युद्ध घोष कर रहे हैं? इस बार इसी लिए तुम्हें बुला न सका.तुम्हें कैसे बुलाता माँ?मैं उस घड़ी-घंटाल के शोर में तुम्हारी आगमनी कैसे गाता ?
( 3अक्टूबर,2014 की ‘जनसत्ता’ में पहले प्रकाशित)
Good story.
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Bahut shaandaar. Mantramugdha Karne waali Katha thi. Can this be expanded into a novel length book, with other puranic stories too ? Would be great :-)
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bahut umda…shiv ko jaat bahar ke damaad ke roop mein,ek sarvhara kalawant ke roop mein nahi dekha tha pehle kabhi..na hi parvati ki sadharantaya mein unki kushagrata ko..antim panktiyaan bahut sundar.
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बहुत उमदा कहानी है ।
मनसुखलाल गांधी
Los Angeles, CA
U.S.A.
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बहुत उमदा कहानी है ।
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