त्रिलोकपुरी में शांति है. त्रिलोकपुरी में तनाव है. त्रिलोकपुरी में स्थिति नियंत्रण में है. नियंत्रित तनाव की शांति भी नियंत्रित ही होती है. बीच-बीच में अफवाहें उड़ती हैं और लोग सावधान हो जाते हैं. पुलिस की गश्त बढ़ जाती है.
दीवाली की रात से सक्रिय हिंसा शुरू हुई. लेकिन यह हिंसा भी नियंत्रित थी. सिर्फ ईंटों के टुकड़े बरसाए जा रहे थे.त्रिलोकपुरी की सड़कें इन टुकड़ों और कांच से आज भी इस कदर पटी पड़ी हैं कि उनसे बचकर आप पैदल भी नहीं चल सकते. प्रशासन एकसाथ शांति कायम रखने और सडकों को साफ कराने का काम नहीं कर सकता, भले ही स्वच्छ भारत अभियान की सफलता के लिए पत्रकार अपनी कलम को झाड़ू बना चुके हों. ताज्जुब सोचकर होता है कि इतनी ईंटें अचानक कहाँ से आ गई होंगी.
शांति है. धारा एक सौ चवालीस लगी है. अपनी दीवाली खराब करके सैकड़ों पुलिसकर्मी गश्त लगा रहे हैं. लेकिन इस पहरे का नतीजा प्रायः रोजाना काम करके पेट पालने वालों को भुगतना पड़ रहा है. यह इत्तफाक की बात ही होगी कि शिकायतें मिल रही हैं कि ज़्यादातर मुसलमानों को दूध, सब्जी, जैसी ज़रूरियात की खरीदारी करने या काम पर जाने के लिए बाहर निकलने में दिक्कत हो रही है. एक का कहना है कि दाढ़ी देखते ही सुरक्षाकर्मी सावधान हो जाते हैं और उनमें तनाव आ जाता है. उनकी लाठी में भी उस वक्त ज़्यादा ज़ोर आ जाता है. क्या यह सिर्फ उसका वहम है?
क्या इससे पुलिस के पक्षपातपूर्ण रवैय्ये का नतीजा निकाला जा सकता है? खबर के मुताबिक़ चवालीस लोग, जो हिंसा के दौरान गिरफ्तार हुए, उनमें तेरह हिंदू हैं. यह क्या हिंसा में उनकी भागीदारी के समानुपाती है? हिंदू भी घायल हैं, गोलियों से भी. लेकिन आरोप है कि पुलिस की गोलियों से.
क्या यह ब्योरा एकतरफा होता जा रहा है या यह दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश है? यह सच है कि पत्थरबाजी दोनों ओर से हुई. घायल दोनों ओर से लोग हुए. घर छोड़कर दोनों तरफ के लोग भागे हैं. डर दोनों ओर है.
क्या इससे यह नतीजा निकलता है कि यह एक दंगा था : भारत का चिर-परिचित हिंदू-मुस्लिम दंगा. कारण भी प्रेमचंद के समय से जाना हुआ – मंदिर-मस्जिद, नमाज और भजन.
किरदार तो वही थे लेकिन एक फर्क बड़ा था और उसको नज़रअंदाज करना घातक होगा. त्रिलोकपुरी में बीस नंबर ब्लॉक की मस्जिद के पचास कदम सामने इस बार दुर्गा-पूजा के समय एक अस्थायी माता की चौकी बैठा दी गई. उसकी अवधि बढ़ती रही. जाहिर है मुसलमानों में इस अवधि-विस्तार से बेचैनी बढ़ी क्योंकि इसके पीछे के इरादे को लेकर वे बहुत निश्चिन्त नहीं थे. लेकिन चौकी में कोई बाधा उनकी ओर से नहीं पैदा की गई.
फिर दीवाली की रात क्या हुआ कि हिंसा शुरू हुई? असल में क्या हुआ को लेकर ही कहानियाँ अलग-अलग हैं. एक यह कि मस्जिद के करीब खाली जगह पर हिंदू-मुसलमान नवयुवक मौज-मस्ती करते थे. उस दिन दो के बीच झड़प हो गई और इत्तफाक से दोनों एक ही धर्म के न थे. फिर क्या झड़प पर्याप्त वजह थी इतनी बड़ी हिंसा के लिए?
यहाँ दूसरा किस्सा भी पेश किया जाता है. दीवाली की रात मुस्लिम नौजवान शराब और मांस लेकर माता की चौकी पर बैठ जाते हैं और उसे अपवित्र कर देते हैं. यह कहानी पहली के मुकाबले अधिक भयंकर जान पड़ती है. माता की चौकी को अपवित्र करने का अपराध कोई साधारण नहीं. आखिर इससे किसी भी हिंदू का खून खौल उठेगा! हिंसा के लिए आदर्श औचित्य.
इस बीच एक और चरित्र का प्रवेश होता है. ये हैं भारतीय जनता पार्टी के पूर्व या पराजित विधायक सुनील वैद्य. इनका कहना है कि इस घटना की शिकायत लेकर लोग उनके पास आए और उन्होंने पुलिस को बुलाया कि वह इस शिकायत पर कार्रवाई करे. वे अपनी भूमिका यहीं तक सीमित रखते हैं लेकिन एक आरोप यह है कि वे धमकी देते हैं कि चौकी न सिर्फ जल्दी नहीं हटेगी, यहाँ मंदिर बना दिया जाएगा.
सच क्या है? ‘रोशोमन’ फिल्म यही बताती है कि सच नहीं, सच का बयान भर रह जाता है. तो शायद कभी ठीक-ठीक नहीं मालूम हो कि असल शुरुआत कहाँ से हुई थी? हिंदू-मुस्लिम दोस्तों की झड़प से, चौकी के करीब पेशाब करने से, उसपर बैठकर शराब-गोश्त खाने से ?
उससे ज़्यादा बड़ा सवाल है कि दीवाली की रात पद्रह नंबर ब्लॉक के सामने सैकड़ों की भीड़ कहाँ से इकट्ठा हो गई? वे कौन लोग थे. स्थानीय निवासी कहते हैं कि वे सब बाहरी थे. सौ नंबर को तकरीबन दो सौ झूठे फोन कहाँ से हुए? भारतीय जनता पार्टी के सांसद ने यह बयान क्यों दिया कि मुसलमानों ने मंदिर में कुछ अपवित्र सामग्री डाल दी थी? बजरंग दल ने हिंसा की सुबह यह बयान क्यों दिया कि जिहादी लोग हिंदू धार्मिक स्थलों को निशाना बना रहे हैं? क्या इन सब में कोई तार नहीं जुड़ता या यह सिर्फ इत्तफाक है?
क्या यह हिंसा मात्र त्रिलोकपुरी की स्थानीय घटना है या इसका कोई व्यापक संदर्भ है? क्या इस हिंसा पर बात करते वक्त हम पिछले महीने बवाना में मुसलमानों पर गोकुशी का आरोप लगा कर किए गए हमले को नज़रअंदाज कर सकते हैं? क्या मजनूँ का टीला में पैदा हुआ तनाव भी मात्र वहाँ की स्थानीय घटना है? क्या समयपुर बादली से तनाव की खबरों को भी हमें बिलकुल अलगाव में ही देखना चाहिए?
क्या यह हिंसा पिछले दो वर्ष से दिल्ली के करीब उत्तर प्रदेश में हिंसा से बिलकुल ही स्वतन्त्र है? या यह एक बड़ी सामाजिक इंजीनीयरिंग का हिस्सा है जिसके तहत उन समुदायों में हिन्दूपन भरने का प्रयास हो रहा है जो पिछले दो दशक से खुद को राजनीतिक रूप से हिंदू से अधिक अपनी जातीय पहचानों से जुड़ा महसूस कर रहे थे? बिहार, उत्तर प्रदेश आदि में पिछड़ी जातियों, दलितों को उनकी इन जातीय पहचानों के साथ राजनीतिक हिंदूपन के दायरे में लाने का प्रयास रंग लाया है.
त्रिलोकपुरी ही नहीं, दिल्ली की अन्य बस्तियों में भी, पिछले विधान सभा चुनाव में दलितों और पिछड़ों ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया, ऐसा विश्लेषकों ने बताया. इस बार के लोक सभा चुनाव में भी आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार टक्कर में बने रहे थे. अगर दिल्ली पर कब्जा करना है तो इस जनाधार को खींचे बिना सफलता संभव नहीं. भारतीय राजनीति का पुराना आजमाया हुआ नुस्खा है ध्रुवीकरण का: इसके लिए उपजाऊ ज़मीन है व्यापक हिंदू मन में पैठी हुई शंका जो मुसलामानों को लेकर है. रोज़-रोज़ अपने सामने. अपने अगल-बगल जिंदा रहने की मशक्कत में लगे हुए मुसलमानों को देखते हुए भी यह पूर्वग्रह कि वे दरअसल, स्वभावतः हिंसक होते हैं, कि उनके घर में हथियार होते हैं, कि उनके पास बाहर से पैसे आते हैं, कि उनकी मस्जिदों और मदरसों में जिहाद की ट्रेनिंग दी जाती है, कि वे ढेर सारे बच्चे पैदा करते हैं जो दरअसल जिहादी होंगे या आबादी बढ़ा कर भारत पर कब्जा कर लेंगे. मुसलमानों की गरीबी, बेरोजगारी इस बात का सबूत बन जाती है कि वे दरअसल काम करने में दिलचस्पी नहीं रखते, कि वे नाकारा होते हैं और इस तरह भारत पर बोझ हैं. वे गंदगी भी फैलाते हैं.
त्रिलोकपुरी की हिंसा की घटना की जाँच होनी ही चाहिए. लेकिन उससे कोई साफ-सुथरा निष्कर्ष निकलने की उम्मीद बेमानी है. पत्थर चलाने में हिन्दुओं के साथ मुसलमान भी मिलेंगे और इस वजह से फिर घटना का संतुलनवादी विश्लेषण का लोभ होगा. इसमें कोई शक नहीं कि हिंसा में मुसलमान भी शामिल होंगे, लेकिन यह पता करना उतना कठिन नहीं. ज़्यादा बड़ा सवाल है कि पिछले तीस साल में पहली बार मस्जिद के ठीक सामने माता की चौकी बैठाने का ख्याल और फैसला क्या नितांत स्थानीय था या उसके पीछे कोई संगठित योजना थी? क्या उस चौकी की अवधि को बढ़ाते जाने से मुसलमानों के बीच देश के घटनाक्रम को देखते हुए बेचैनी बढ़ने का अंदाज राजनीति दलों को न था? फिर स्थानीय विधायक और पूर्व विधायक, स्थानीय सांसद ने क्या भूमिका निभाई? और कोई भूमिका क्यों नहीं निभाई? या कोई भूमिका अवश्य थी, लेकिन वह तनाव और तापमान को धीरे-धीरे बढ़ाने की थी उसे शांत करने की नहीं? एक साल पहले तक जनता में अपनी अपील को लेकर आश्वस्त आम आदमी पार्टी क्यों खामोश हो गई? क्या वह डर गई कि उसके बोलते ही उसके हिंदू मतदाता उससे बिदक जाएँगे? क्या ऐसी खबरें बिल्कुल गलत हैं कि हिंदू बस्तियों में एक विशेष प्रकार का संपर्क-अभियान चल रहा है और उसमें हस्तक्षेप करने में आम आदमी पार्टी को दिक्कत पेश आ रही है?
इन सबसे अलग विचारणीय यह है अब त्रिलोकपुरी में हिन्दुओं और मुसलमानों से बात करने के लिए क्या एक साझा भाषा बची हुई है जिससे दोनों को एक बात का एक ही अर्थ समझ में आए? अब हम क्यों दो तरह के वार्ताकार खोज रहे हैं: एक, जो हिन्दुओं से बात कर सके और एक जो मुसलमानों से?
इस साझा जुबान के खो जाने का फायदा किसे है? यह सबसे अहम सवाल है जो हमें पूछना चाहिए. यह सवाल भी कि राजनीति से यह साहस कहाँ चला गया जो सच और खरा बोलने की बेबाकी देता है? सामाजिक जीवन से वह संवेदनशीलता कहाँ चली गई जो हमें पड़ोसियों के प्रति सहानुभूतिशील बनाती है? बीसियों बरसों से बसे हुए पड़ोस क्यों एक झटके में टूट जाते हैं?
भारत अगर नए पड़ोस बनाने का तरीका यह खोज रहा है कि पुराने तोड़ डाले जाएँ तो उसे अपने बारे में गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है. पिछले कुछ बरसों में हमने महानगरों में जातियों, धर्मों, क्षेत्रों के आधार पर पड़ोस बनते देखे हैं जो एक-दूसरे के बगल में बसे होते हैं. बंगलौर हो या मुंबई, दिल्ली हो या हैदराबाद, आशंकाओं के द्वीप बन रहे हैं.
त्रिलोकपुरी में अब तक जान नहीं गई है. गोलियों से ज़ख़्मी दो बच्चे ज़िंदगी के लिए लड़ रहे हैं. पिछले तीन रोज़ से हर दो घंटे पर उनमें से किसी की मौत की अफवाह फैलने लगती है. एक मित्र ने परसों घबरा कर फोन किया कि उन्हें खुद एक पुलिसवाले ने कहा है कि एक की मौत हो गई है. कल एक पत्रकार ने विश्वासपूर्वक कहा कि एक की मौत हो गई है और खामोशी से उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया है. सौभाग्य से हर अफवाह अफवाह ही साबित हुई. कौन इस तरह की खबर फैला रहा है? वे दोनों बच्चे ज़िंदा हैं.यह लेख उनके लिए प्रार्थना है, उनके बचे रहने के लिए, बचकर इन्सान के तौर पर बड़े होने के लिए. लेकिन उनके लिए प्रार्थना इसलिए भी कि खुदा न करे, उन्हें कुछ हुआ तो आगे क्या होगा, इसकी कल्पना करके रूह काँप जाती है.
त्रिलोकपुरी की घटना के स्थानीय कारण हैं, लेकिन उसका संदर्भ व्यापक है. दोनों में से किसी को कम करके आँका नहीं जा सकता. लेकिन हम इन सबके ऊपर रहीम का यह दोहा न भूलें जो साधारण लगता है पर है नहीं: रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय / टूटे पै फिर ना जुड़े जुड़े गाँठ पड़ जाए.
संबंध मुश्किल से बनते हैं, दरार आने पर पुरानी स्थिति शायद कभी बहाल नहीं हो पाती. हम और कितनी गाँठों वाले धागे से भारत की माला बनाना चाहते हैं?
Reblogged this on oshriradhekrishnabole and commented:
kafila chal padhahai ek nai raah par
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