बाईस अप्रैल,2015 का दिन भारतीय संसदीय जनतांत्रिक राजनीति की पराजय के एक दिन के रूप में याद रखा जाएगा. और इसकी वजह यह है कि एक किसान उस वक्त ‘खुदकुशी’ कर लेता है जब उसी के सवाल पर एक जनतांत्रिक प्रतिरोध सभा हो रही होती है.वह उस सभा से ताकत नहीं महसूस करता, वहां इकट्ठा समुदाय को अपनी बिरादरी नहीं मान पाता, खुद को इस भीड़ के बीच इतना अकेला पाता है कि मंच से किसानों के हक में दिए जा रहे भाषणों और नारों से उसे यह आश्वासन नहीं मिलता कि उनमें उसकी आवाज़ शामिल है.अपनी आवाज़ उसे अकेले ही उठानी है. और अदाकारी पर टिके इस जनतंत्र में वह तभी सुनी जा सकती है जब खुद नाटक बन जाए.
गजेन्द्र सिंह ने यही किया.भारतीय किसान के अकेलेपन को और कैसे जाहिर किया जा सकता था? इसे लेकर हम निश्चित नहीं कि यह खुदकुशी ही थी. कतई मुमकिन है कि यह दुर्घटना हो.कि गजेन्द्र सिंह का पाँव फिसल गया और उसके गले पर फन्दा कस गया. कि उसने जंतर मंतर पर एक पीपली लाइव का प्रभाव लाने की कोशिश की जिसका त्रासद अंत हुआ.
इसके लिए न तो आम आदमी पार्टी और न दूसरे दल सीधे जिम्मेदार हैं. फिर भी पहले उठाए गए सवाल बने रहते हैं.जन्तर मन्तर पर हो रही रैली और उसके नेताओं को तो इस सवाल पर सोचना ही चाहिए, दूसरे दलों को भी इस पर विचार करना चाहिए. किसानों की आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े क्या किसी राजनीतिक दल को इसके लिए मजबूर कर रहे हैं कि वह विदर्भ में, पंजाब में, राजस्थान में किसानों के बीच जाए, उनसे बात करे, उन्हें यकीन दिलाए कि संघर्ष ही रास्ता है? कि आत्म ह्त्या से संघर्ष को बल नहीं मिलता?
और ऐसा क्यों हुआ कि मंच के नेताओं को यह नाटक उनके महत्त्वपूर्ण विरोध स ध्यान भटकाने की साजिश का हिस्सा लगा?उसके साथ ही नाराज़ अध्यापकों का एक जत्था वहां दिल्ली सरकार के पार्टी अपना विरोध जाहिर कर रहा था.इससे भी आम आदमी पार्टी के लोग नाराज़ थे. आखिर विरोध की असली और प्रामाणिक पार्टी के विरुद्ध विरोध का धिकार किसी मो कैसे दिया जा सकता है?उसी तरह तमाशे आयोजित करने में माहिर पार्टी में किसी व्यक्ति के तमाशे को गंभीरता से कैसे लिया जा सकता है?
आत्मह्त्या सामूहिक निर्णय का मामला नहीं.लेकिन संघर्ष है.फिर संघर्ष क्या सामूहिकता का निर्माण नहीं कर रहा?अगर किसानों के नाम पर किया जाने वाला संघर्ष उनकी लाचारी को अपनी ताकत बना कर कामयाब होना चाहेगा तो यह जनतंत्र का सबसे नाकामयाब क्षण होगा.
जनतंत्र सिर्फ चुनाव से नहीं चलता. संसद के मुकाबले वह सड़क पर आकार लेता है. जनता की गोलबंदी, लोगों के एक दूसरे के करीब आने, अपने खून के रिश्तेदारों की जगह नई बिरादरियां बनने की संभावना से एक अकेले इंसान को ताकत मिलती है.यह रंगमंच के ट्रस्ट गेम की तरह है. गिरते अभिनेता को पता होता है कि उसे गिरने नहीं दिया जाएगा.अगर वह गिरा तो यह उसकी नहीं समूह की असफलता है.
आम तौर पर मृत्यु आदमी के भीतर की इंसानियत को जगा देती है.सामने मृत को देखकर हम खामोश हो जाते हैं.मौत हमें हमारे रोजमर्रा के छोटेपन से मुक्त होने में मदद करती है. हम अपने घोर दुश्मन की मौत पर भी मौन हो जाते हैं. लेकिन जो मृत्यु की उपस्थिति में भी चीखता रहे, अपनी पुरानी भूमिका में ही कैद रहे,उससे मुक्त न हो पाए, उसमें कुछ बुनियादी खोट है. जो शोक की घड़ी में भी मौन न हो पाए,उससे सावधान रहना चाहिए.यही खोट उनमें है जो गोधरा में ट्रेन में मारे गए लोगों का जुलूस बनाकर ले गए और उससे भी ज़्यादा लोगों की ह्त्या को क्रूरता के साथ देखते रहे.अगर आज वे देश के शीर्ष पर हैं तो यह जनतंत्र की सफलता नहीं है.उसी तरह दिल्ली की सरकार के मुखिया समेत सारे मंत्रियों को अगर गजेन्द्र की मौत से, जो कि सामान्य मौत न थी, सदमा नहीं पहुँचा तो उनसे भी जनता को सावधान हो जाने की आवश्यकता है. वे जनता सी उसकी इंसानियत का फर्न कर ही लेंगे.
आम आदमी पार्टी की नैतिक लापरवाही उनके प्रवक्ताओं के बयान से और भी प्रकट हो गई. क्या वह फ्रायडीय फिसलन भर थी? या वह उनका मूल स्वभाव है? या वह क्रूरता और कठोरता है जो भारत की संसदीय राजनीति में साधारण जन के प्रति है जो दरअसल उससे कोई लगाव नहीं महसूस करती? जिसके लिए वह आंकड़ा है या विचारधारात्मक अवधारणा, एक अमूर्त विचार? यह भी साफ़ है कि उसमें बुनियादी दर्दमंदी नहीं है. और इस दर्दमंदी के बिना जनतांत्रिक राजनीति कैसे हो सकती है?
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