विवादास्पद के पक्ष में:आई आई टी मद्रास के निर्णय के बहाने कुछ विचार

आई आई टी मद्रास में आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल(एपीसीएस) की मान्यता रद्द करने के प्रशासन के निर्णय पर बहस हो रही है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इस समूह पर घृणा प्रचार का आरोप लगाती एक बेनामी शिकायत संस्थान को इस अनाम टिप्पणी के साथ भेजी कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आई.आई.टी.का ऐसा इस्तेमाल हो रहा है. प्रशासन ने आव देखा न ताव, एपीसीएस की मान्यता रद्द कर दी, हालाँकि बाद में उसने कहा कि यह एक अस्थायी कार्रवाई है और समूह का पक्ष सुनकर ही अंतिम निर्णय लिया जाएगा.वैसे यह किसी ने न पूछा कि एपीसीएस  की मान्यता रद्द करने का क्या मतलब!वह कोई आईआईटी की बनाई संस्था तो है नहीं, वहाँ के कुछ छात्रों का स्वैच्छिक संगठन है .उसका जीवन आई आई टी प्रशासन के प्रसाद पर निर्भर नहीं.प्रशासन संभवतः उसे कोइ कार्यक्रम करने के लिए संस्थान की कोई सुविधा इस्तेमाल नहीं करने देगा. उसके नाम में ही जो दो नाम लगे हैं, उनसे उसके राजनीतिक ही नहीं समरस समाज में विभेद पैदा करने का इरादा साफ़ है!  यह अलग बात है, जो टेलीग्राफ ने बताई कि केन्द्रीय सतर्कता आयोग का निर्देश है कि किसी भी बेनामी शिकायत का मंत्रालय या विभाग संज्ञान न लें. तो मंत्रालय का यह कदम ही नियमविरुद्ध था. दूसरे, मंत्रालय के पत्र पर बिना किसी स्थानीय जाँच की प्रक्रिया के आई आई टी, मद्रास का यह अति उत्साहपूर्ण अनुशासनात्मक कदम दरअसल रघुवीर सहाय की याद दिलाता है जिन्होंने ऐसा दिमाग खोज लाने को कहा था जो आदतन खुशामद न करता हो.

यह मानने का कारण और प्रमाण नहीं है कि मंत्री ने यह निर्देश दिया होगा. आखिर ए.के.रामानुजन के निबंध को पाठ्य-सूची से हटाने का फैसला दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्वत-परिषद् ने किसी मंत्रालय के निर्देश पर नहीं किया था. और दिल्ली विश्वविविद्यालय  तो काफी पहले से छात्र संगठनों को ही नहीं, दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ को भी  कार्यक्रम करने के लिए कोई  सुविधा इस्तेमाल नहीं करने देता. यह निर्णय किसी ऊपरी इशारे पर नहीं किया जाता. परिसरों को अधिक से अधिक विवादरहित रखने की शैक्षिक प्रशासकों की प्रवृत्ति का ही सबसे ताजा उदाहरण आईआईटी, मद्रास ने पेश किया है.

परिसर शांत रहें, अपने माँ-बाप और राज्य के खुद पर किए गए निवेश के सदुपयोग के लिए छात्र ज्ञानार्जन में ध्यान लगाएँ और राजनीतिक या विचलनकारी गतिविधियों में हिस्सा न लें, यह आम समझ है. इधर उच्च शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ‘एम्पलॉयबिलिटी’ घोषित किए जाने के बाद से यह फिक्र और बढ़ गई है कि छात्र अपना वक्त फालतू के कामों में बर्बाद न करें. इस स्तंभ में कभी सी वी रमण और सर्वपल्ली राधाकृष्णन के दीक्षांत भाषणों की प्रेमचंद द्वारा की गई तुलना का जिक्र किया गया था जिसमें लेखक ने वैज्ञानिक के भाषण को इसलिए निराशाजनक बताया था कि वह छात्रों को अनुशासित दायरे में रखने की वकालत भर था.

ये फालतू के काम क्या हैं? मसलन,आज़ादी के आन्दोलन के दौरान छात्रों से कक्षाओं से निकल आने की अपील खुद गाँधी ने की थी. पिछली सदी के साठ-सत्तर के दशक में एक मुक्तिकारी स्वप्न के आकर्षण में अपनी कक्षाओं के सबसे प्रतिभाशाली छात्र परिसरों के इत्मीनान से निकलकर हथियारबंद संघर्ष में कूद पड़े थे. इसी वक्त प्रायः सारी दुनिया में परिसर छात्र-प्रतिरोध के केंद्र बन गए थे. वियतनाम का मुक्ति-संग्राम सिर्फ उसका नहीं है, सम्पूर्ण मनुष्यता का है, यह परिसरों में गूँजते नारों ने ही बताया था. और आपातकाल में या उसके पहले के छात्र आन्दोलन की बात करने की ज़रूरत ही क्या !

कुछ वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलानुशासक के दफ्तर से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों के एक आन्दोलन में शामिल शिक्षकों की भूमिका के बारे में पूछते हुए उनके पास फोन आया. तब कई शिक्षकों ने एक अपील की थी कि परिसर में निर्माण कार्य में लगे हुए श्रमिकों के हक के लिए आन्दोलनरत छात्रों के खिलाफ की गयी अनुशासनात्मक कारवाई को जेएनयू प्रशासन वापस ले ले. परिसर में विवाद करनेवाले छात्रों को अपने शिक्षकों का समर्थन मिलते देख विश्वविद्यालय विचलित हो उठे.

परिसरों में भवन बनाते मजदूरों को देखते सब हैं, या उसकी सुरक्षा में लगे कर्मियों के बगल से गुजरते हैं लेकिन कुछ ही ऐसे छात्र होते हैं जो यह जानकर कि इन्हें पूरी दिहाड़ी नहीं मिल रही या इनके साथ बेईमानी हो रही है, विश्वविद्यालय को परिसर में न्यूनतम मजदूरी के संवैधानिक अधिकार के पालन की उसकी जिम्मेदारी की याद दिलाने की मुहिम छेड़ देते हैं. अंकउगाहू छात्र इन सरफिरों को विस्मय से देखते हैं और कुंजियों में सर गाड़ लेते हैं.

अब प्रयास यह हो रहा है कि छात्र ऐसी गैरशैक्षणिक भटकावों के शिकार न हों. वे ‘एक्स्ट्रा-कर्रिकुलर’ गतिविधियों में तो भाग लें जो ‘पर्सनैलिटी-डेवलपमेंट’ में मददगार हैं, जिनमें वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ सबसे ऊपर हैं, जिनका मकसद छात्रों को वाक्पटु बनाना है, लेकिन विवादास्पद मुद्दों में समय व्यर्थ न करें !

वाक्पटु छात्र जो किसी भी मत के पक्ष या विपक्ष में ज़ोरदार तर्क कर सके, लेकिन यह वह तय न करे उसका पक्ष कौन होगा. पक्ष उसे दिया जाएगा और उसका काम उसके लिए तर्क जुटाने का, या अपनी वाग्मिता के सहारे उनका सिक्का जमाने भर का है, क्योंकि तर्क भी उसे दे दिए जाएँगे. फिर भी सारी कोशिशों के बावजूद ऐसे छात्र निकल आते हैं जो अपना पक्ष तय करने का हक माँगते हैं. और वर्चस्वशाली सत्ता से विवाद के तर्क भी खुद जुटाते हैं.

जाहिर है, वही पक्ष विवादास्पद होगा जो प्रभुत्वशाली सत्ता के खिलाफ है. अमरीका में यह फिलस्तीनियों के हक का पक्ष है या ‘मुक्त’बाज़ार का विरोधी पक्ष, इरान में वह इस्लामी कट्टरताविरोधी मत है, वह भारत में विवादास्पद या तो दलित पक्ष होता है या अल्पसंख्यक या स्त्री पक्ष. कुछ वर्ष पहले आई.आई.टी और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के खिलाफ जब सवर्ण छात्रों ने आन्दोलन किया तो उसे घृणा फैलाने वाला नहीं माना गया, बल्कि प्रशासन ने उस आंदोलन को प्रश्रय और संरक्षण दिया. जबकि उस आन्दोलन में खुलेआम दलितों और पिछड़ों के खिलाफ बातें कही गईं, उनपर फब्तियाँ कसी गईं और भद्दे मजाक प्रचारित किए गए. इस ओर ध्यान दिलाने पर कहा गया कि यह अपने साथ अन्याय के अहसास के चलते प्रतिभाशाली छात्रों में पैदा हुए सहज क्षोभ की अभिव्यक्ति है और इसे घृणा-प्रचार नहीं माना जाना चाहिए.

इस साल की शुरुआत में कैलिफ़ोर्निया के पित्ज़र कॉलेज में ‘पित्ज़र स्टूडेंट्स फॉर जस्टिस इन पेलेस्टाइन’ ने परिसर में इस्राइल की ‘अपार्थाइड वाल’ की अनुकृति लगाने की अनुमति माँगी. इसके माध्यम से वे इस्राइल की फिलस्तीन विरोधी नीतियों के प्रति परिसर को शिक्षित करना चाहते थे. कॉलेज प्रशासन ने दो आधारों पर अनुमति नहीं दी. इसे कॉलेज की ‘एस्थेटिक्स कमिटी’ ने परिसर के सौन्दर्यपूर्ण सामंजस्य में बाधा बताया और प्रशासन ने आशंका जताई कि यह प्रदर्शन यहूदी-विरोधी कृत्य हो सकता है. इस तरह इसे यहूदी विरोधी घृणा प्रचार मानकर इसकी अनुमति नहीं दी गई.

‘पेलेस्टाइन सॉलिडैरिटी लीगल सपोर्ट’(पीएसएलएस) ने पित्ज़र कॉलेज के इस निर्णय को चुनौती दी और उसे याद दिलाया कि प्रदर्शन की अनुमति न देनेवाले ख़त में उसने लिखा है कि कॉलेज मुक्त वैचारिक अन्वेषण और ज्ञान के सामूहिक संधान के लिए संकल्पबद्ध और बन्धनहीन उन्मुक्त अभिव्यक्ति की हिफाजत के लिए प्रतिबद्ध है. फिर वह इस प्रदर्शन को मना कैसे कर सकता है? पीएसएलएस ने लिखा कि नागरिकों की अभिव्यक्ति के अधिकार की हिफाजत करनेवाला अमरीका का ‘फर्स्ट अमेंडमेंट’ कॉलेज परिसर में स्थगित नहीं हो जाता.

परिसरों को विवाद का अभ्यास करना चाहिए और याद रखना चाहिए कि विवाद सर्वप्रिय नहीं होते हैं. वे सभी पक्षों को प्रसन्न और संतुष्ट नहीं कर सकते, बल्कि उनका मकसद ही अशांति पैदा करना है. क्या छात्र वैसी गतिविधि में भाग न लें जो सुन्दर नहीं है या जो समरस सामुदायिक गर्व को अभिव्यक्त नहीं करतीं या सौन्दर्यपूर्ण भावना का सृजन नहीं करतीं?

इक्कीसवीं सदी के परिसर बीती सदी के इत्मीनान से बहुत अलग किस्म की बेचैनियों से भर गए हैं. वे दावा नहीं कर सकते कि वे छात्रों को जिन अनुशासनों में दीक्षित कर रहे हैं वे उनके जीवन यापन में सदा उपयोगी रहेंगे. राष्ट्र के साथ-साथ पूँजी का दबाव उनपर बढ़ता जा रहा है कि वे उन्हें अनुशासित, लचीले और निरंतर उत्पादक कार्यबल की आपूर्ति करें. ऐसी स्थिति में छात्रों या अध्यापकों का राजनीतिक होना एक ही सन्दर्भ में स्वीकार्य है कि वे राष्ट्रवादी या विकासवादी राजनीति करें. कोई भी दूसरी राजनीति स्वभावतया विभाजनकारी, विवादास्पद और इसलिए घृणा-प्रचार के दायरे में आ जाएगी. इन परिसरों के प्रमुख उस दौर के नहीं हैं जो स्वतंत्रता का अभ्यासी था. वे अपना करियर ज्ञानार्जन में नहीं प्रशासन में देखते हैं, इसलिए विचारमुक्त अनुशासन में विश्वास भी करते हैं. वे स्वयं सत्ता के द्वारा अनुशासित हैं, वरना यह कैसे मुमकिन था कि देश का सबसे बड़े विश्वविद्यालय का प्रमुख, जो अपने सहकर्मियों और छात्रों की गुहार, अपील, प्रतिरोध के बावजूद अडिग रहा, मंत्रालय के हुक्म पर अपने फैसले को बदलने को ही तैयार न हुआ, आगे उसके हर हुक्म की तामील करने में पेश-पेश रहने लगा, चाहे दो अक्टूबर को झाडू उठाना हो या पटेल जयन्ती पर दौड़ लगानी हो या बड़े दिन को सुशासन दिवस मनाना हो. रघुवीर सहाय आदतन खुशामद न करने वाला दिमाग तलाश रहे थे .वह खोज परिसरों के प्रशासन के सन्दर्भ में व्यर्थ है, यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है.

4 thoughts on “विवादास्पद के पक्ष में:आई आई टी मद्रास के निर्णय के बहाने कुछ विचार”

  1. अपूर्वानंद जी, भावावेग में बहकर आपने लेख तो अच्छा लिखा पर आलोचना अपने महज आलोचना के उद्देश्यपूर्ति के लिए ही की है। छात्रों को सड़कों पर लाकर, ‘आंदोलनों’ में भागीदार बनाकर कौन लोग अपनी रोटी सेंकते हैं ये सभी को ही पता है। रही बात, गांधीजी के आह्वान की तो सर राष्ट्रीय आंदोलन का वह दौर कब का बीत चुका है और बीत चुका नकसलबाड़ी और क्रांतियों का दौर। इन थोथे आदर्शों के बूते बाजार में पाव भर प्याज़ भी हासिल नहीं होगी। आप चाहें तो इन बातों की खिल्ली उड़ा सकते हैं पर यह भी सच है कि पर्चेबाजी से और दो-तीन वैचारिक लेख प्रतिदिन लिख भर देने से घर का खर्चा नहीं चलने वाला। तो, किस्सा-कोताह ये कि प्रेमचंद के संघर्ष भरे जीवन से हमें सबक लेने दीजिये। जिनके बारे में बाबा नागार्जुन ने लिखा था कि ‘वे ऐसे दिये की तरह थे जिसमें जिंदगी भर बाती ही जलती रही, उसमें कभी तेल डाला ही नहीं गया’। और इन विचलनों से बचकर छात्रों को अपना भविष्य सुरक्षित करने दीजिये।

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  2. लेख से पूरी तरह सहमत हूँ। सोशल मीडिया पर राष्ट्रवाद और विकास के रक्षकों और कुछ “प्रगतिशील” मित्रों का भी कहना था कि “ये लोग वहाँ इंजीनियरिंग पढ़ने गए हैं या राजनीति पढ़ने?”। जाहिर है विश्वविद्यालय क्या होता है और क्या होना चाहिए, छात्र जीवन क्या होता है और क्या होना चाहिए इस पर समाज की सोच बेहद संकीर्ण है। पढ़ो-लिखो,पंगे मत लो,डिग्री हासिल करो,नौकरी पाओ और भूल जाओ। “विकास” ऐसे न होगा तो कैसा होगा? फिर ये तो वैसे भी “शून्य अंकों पर” प्रवेश पाने वाले छात्र हैं, इन्हें तो यही सब करना है।

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