तीस्ता हमारे खून की प्यासी नहीं

तीस्ता के जेल जाने के मायने हैं भारत की आत्मा को कैद करना.यह कोई काव्योक्ति नहीं है.आत्मा कोई भौतिक यथार्थ नहीं है.वह है सत्य को पहचानने और उसके अनुसार काम करने का साहस अर्जित करने की हमारी आकांक्षा का एक दूसरा नाम. वह हमें अपनी सांसारिक क्षुद्रताओं को पहचानने और उनसे सीमित हो जाने पर लज्जित हो पाने की क्षमता है.आत्मा क्या है,यह आपको तब मालूम होगा जब आप सी बी आई के अधिकारियों से अकेले में बात करें और तीस्ता के साथ इस संस्था के व्यवहार पर उनकी प्रतिक्रिया सुनें.वे जो कर रहे हैं,उसकी अनैतिकता का उन्हें पूरा अहसास है.वे जानते हैं कि वे अपनी आत्मा को कुचल कर ही तीस्ता के साथ वह कर सकते हैं,जो अभी वे कर रहे हैं.

कई बार अपनी आत्मा को सुनना भी कठिन होता है.जब वह क्षमता भी हमसे जाती रहे,तब सम्पूर्ण विनाश के अलावा और कुछ भी नहीं.क्या भारतीय समाज की आत्मा या उसका अन्तःकरण पूरी तरह निष्क्रिय हो चुका है? पहले भी कई बार जब ऐसा लगा, कोई न कोई संस्था उठ खड़ी हुई है और उसने भारत की आत्मा के जीवित होने का प्रमाण दिया है.गुजरात के जनसंहार की गंभीरता का अहसास जब संसद तक में न दिखाई दिया, जो भारत की जनता की प्रतिनिधि संस्था है, तब मानवाधिकार आयोग ने इसकी नोटिस ली. लेकिन ध्यान रहे कि मनावाधिकार आयोग खुद ब खुद सक्रिय नहीं हो गया था. अनेक व्यक्तियों के, जिनमें तीस्ता सीतलवाड़ शामिल थीं, 2002 में खूरेंजी के बीच गुजरात जाकर उस भयंकर अपराध की शहादतें और सबूत इकट्ठा करने और उनकी रिपोर्ट बनाने के चलते ही आयोग को आधार मिला कि वह गुजरात खुद जाए और देखे कि आज़ाद भारत में कैसे राज्य का तंत्र ही अपने नागरिकों के एक हिस्से की ह्त्या और विस्थापन में शामिल है.

हत्याएँ हुई थीं, बलात्कार हुए थे, लोग अपने घरों और इलाकों से विस्थापित किए गए थे.यह कोई कुदरती हादसा न था और न हिंदू  क्रोध का स्वतःस्फूर्त विस्फोट. इस अपराध में संगठन शामिल थे, सरकार के लोग शामिल थे,पुलिस और प्रशासन की खुली भागीदारी के बिना यह मुमकिन न था. अगर यह अपराध था तो क्या अपराधियों की शिनाख्त करना, उन्हें भारत के क़ानून के मुताबिक़ उनके किए की सजा देना ज़रूरी न था? क्या इसके बिना जनसंहार के शिकार लोगों को इन्साफ मुमकिन था? यह बहुत स्पष्ट था कि गुजरात की सरकार और वहां के राजकीय तंत्र  की इसमें कोई  रुचि न थी.वह इसे एक भूकंप,सुनामी, तूफ़ान की तरह का हादसा मान कर  गुजर जाने देने और भूल जाने की वकालत कर रहा था.

गुजरात सरकार की बेरुखी का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि उसने मानवाधिकार आयोग की 2002-03 की रिपोर्ट को विधान सभा के पटल पर रखने में दस साल लगाए और वह भी तभी किया जब गुजरात उच्च न्यायालय ने उसे ऐसा न करने के लिए फटकार लगाई. इस रिपोर्ट में आयोग ने खासकर साबरमती संहार, गुलबर्ग सोसाइटी संहार,नरोदा पाटिया, बेस्ट बेकरी और सरदारपुरा के संहारों की जाँच  सी बी आई से कराने की सिफारिश की थी. गुजरात सरकार ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था. यह रिपोर्ट भी विधान सभा सत्र के आख़िरी दिन पेश की गई जिससे इस पर कोई बहस न हो सके. तब की गुजरात सरकार का मुखिया ही आज भारत सरकार का मुखिया है.

तीस्ता का जुर्म यह था कि उन्होंने कई अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर इन तमाम अपराधों का पीछा किया.तीस्ता ने न्यायतंत्र को सोने न दिया और इन्साफ के लिए ज़रूरी सबूत बचाए रखने और गवाहों को टिकाए रखने में अथक श्रम किया. कई मामले उनकी वजह से गुजरात से बाहर की अदालतों में गए. और अनेक मामलों में इन्साफ हुआ.मैं साहस की बात नहीं कर रहा क्योंकि जो गुजरात नहीं गए हैं,वे समझ ही नहीं सकते कि गुजरात में इस जनसंहार की बात करने भर के लिए किस दिलगुर्दे की ज़रूरत थी.

तीस्ता गुजरात जाने वाली अकेली शख्स न थीं.लेकिन वे इस मुस्लिम विरोधी संहार में कानूनी इंसाफ के लिए लड़ने वाले चंद लोगों में शामिल हैं.इन सारे लोगों को, जो भारत के अलग-अलग हिस्सों से गुजरात गए,गुजरात विरोधी घोषित किया गया और इनके खिलाफ घृणा-प्रचार चलाया गया. गुजरात के प्रबुद्ध  समाज के मुट्ठी भर लोग ही गुजराती राष्ट्रवाद से मुक्त होकर इनके साथ आने का साहस जुटा पाए और वे भी गुजरात के गद्दार घोषित किए गए.

क़ानून का शासन अपने आप नहीं स्थापित होता. यह जिम्मेदारी सिर्फ राजकीय निकायों की नहीं है.राज्य के मूल दमनकारी चरित्र से परिचित लोग जानते हैं कि  राज्य प्रायः वर्चस्वशाली समूहों का हितसाधन करता है. पूँजी के खिलाफ श्रम, ‘उच्च’ जातियों और ‘निम्न’ जातियों, बहुसंख्यक धार्मिक समूह और अल्पसंख्यक समूह के प्रसंग में उसके आचरण से यह साफ़ हो जाता है.इसलिए ऐसे लोगों की, समूहों की जनतन्त्र में भी ज़रूरत बनी रहती है जो राज्य को न्याय के लिए मजबूर करें. उन्नीस सौ चौरासी के शिकारों को क्यों न्याय नहीं मिला? क्यों रामशिला पूजन अभियान और रामजन्म भूमि अभियान के दौरान और उनके चलते हुए हुए खूनख़राबे के अपराधी न सिर्फ बच निकले बल्कि देश की सत्ता पर काबिज भी हुए? क्योंकि हमारे पास पर्याप्त संख्या में तीस्ता सीतलवाड़ नहीं.

गुजरात में कोई चार सौ मामलों में जुर्म तय हुआ और मुजरिमों को सजा हुई. दिलचस्प है कि इस संख्या को तमगे की तरह गुजरात राज्य दिखाता फिरता है, साबित करने को कि वह कितना न्यायप्रिय है. इस संख्या के पीछे तीस्ता सीतलवाड़. मुकुल सिन्हा और जाने कितने लोगों की दिनरात की मेहनत है और यह गुजरात राज्य के चलते नहीं, उसके बावजूद हुआ है

सी बी आई(?)कहती है कि तीस्ता राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है. इससे बड़ा मजाक नहीं सुना गया होगा. अगर संघ परिवार, भारतीय जनता पार्टी की विभाजनकारी राजनीति और अन्य दलों की भीरुता की बावजूद भारत में अल्पसंख्यकों का यकीन बना हुआ है और वह सुरक्षित रहा है तो तीस्ता जैसों की जमात की वजह से. अगर भारत के हिंदू खुद को मानवीय कह पा रहे हैं, तो तीस्ता जैसों के कारण.

तीस्ता अभिजात वर्ग की ही सदस्य हैं. वे अंग्रेज़ी फर्राटे से बोल-लिख सकती हैं, अभिजन-व्यवहार से परिचित हैं.शौक से पहनती-ओढ़ती हैं और उन्होंने कभी दीनता या गरीबी का अभिनय नहीं किया.क्या इस वजह से अभिजात वर्ग और मध्य वर्ग मन ही मन तीस्ता से घृणा करता है? क्या तीस्ता सीतलवाड़, शबनम हाशमी,कविता श्रीवास्तव,सी के जानु,माधुरी, दयामनी बारला, वृंदा ग्रोवर, इंदिरा जयसिंह शिक्षित समुदाय को लगातार याद दिलाती हैं कि शिक्षा जो उन्होंने अर्जित की है,वह आत्मोत्थान के लिए,उदर-शिश्न-सीमित जीवन के लिए नहीं थी.वह सिर्फ उनका अर्जन नहीं. उसपर इस देश के गरीबों का, जो उनके तरह सुसंस्कृत नहीं कहे जाते, हक है.यह शिक्षा दरअसल इंसाफ के लिए है.

क्या तीस्ता को हम सब अपनी नज़र से दूर कर देना चाहते हैं क्योंकि वे विजय देव नारायण साही की तरह ही हमें सोने नहीं देती: “मुझे दिख रहा है/दिमाग धीरे-धीरे पथराता जा रहा है/अब तो नसों की ऐंठन भी महसूस नहीं हो रही है/और तुम्हें सिर्फ एक ऐसी/मुलायम सहलाने वाली रागिनी चाहिए/जो तुम्हें इस भारीपन में आराम सके/और तुम्हें हल्की ज़हरीली नींद आ जाए.

लेकिन मेरे भाई मैं तुम्हें सोने नहीं दूँगा/क्योंकि अगर तुम सो गए /तो सांप का यह ज़हर/ तुम्हारे सारे शरीर में फैल जाएगा/फिर कुछ लहरें आएंगी और किस्सा खत्म हो जाएगा.”

आगे भी सुनें, “ नशा चढ़ रहा है/…..लकिन जहां-जहां मैंने तुम्हारी नसें चीर दी हैं/वहां से कितना काला/खून उमड़ रहा है/ इससे यह नहीं साबित होता/कि मैं तुम्हारे खून का प्यासा हूँ…”

तीस्ता हमारी दुश्मन नहीं.वह हमारी आत्मा की पहरेदार है. हम उसे ही  कैद में न डाल दें, यह सोचकर  कि उसकी पुकार हमारी नींद में खलल है. ऐसी नींद में चैन का भ्रम है,लेकिन है वह निश्चय ही हमारी अंतिम मृत्यु.

2 thoughts on “तीस्ता हमारे खून की प्यासी नहीं”

  1. दिल को चीर गहरी बेचैनी पैदा करने वाला लेख! यह मामला केवल तीस्ता सीतलवाड़ का नहीं बल्कि हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं के खोखलेपन का है| अभी तक न्यायालय इस मामले में बचाए हुए है लेकिन कब तक?

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