
(Photo : Courtesy – Outlook Magazine)
इत्तेफाक ऐसा था कि 2 दिसम्बर को ही उन्हें सुनने का मौका मिला था।
जोशी अधिकारी इन्स्टिटयूट द्वारा ‘साम्प्रदायिकता की मुखालिफत और जनतंत्र की हिफाजत’ नामक मसले पर आयोजित एक सेमिनार की वह सदारत कर रहे थे। पहले सत्र में प्रोफेसर इरफान हबीब, सईद नकवी, जस्टिस राजिन्दर सच्चर आदि को बात रखनी थी। जब वह मंचासीन थे और बात कर रहे थे तब कुछ पता नहीं चलता था, मगर जब किसी वजह से उन्हें उठना होता था, तब संकेत पाकर पार्टी का कोई कामरेड दौड़ पड़ता था और उनके साथ चलता था।
पहली बार मैंने महसूस किया था कि जिन्दगी के 91 बसन्त पूरे कर चुके उन पर उम्र की छाया अब दिख रही है।
लंचटाईम हुआ और सभी सहभागी अजय भवन के भोजनकक्ष में पहुंचे। अपनी प्लेट लेकर जगह तलाश रहे मुझे उन्होंने नज़रों से इशारा किया कि वहीं उनके सामने वाली जगह पर मैं बैठ जाउं। मैं संकोच के साथ बैठ गया। उनके साथ बात कर रही युवा महिला कामरेड को उन्होंने बेहद सहज भाव से बताया। ‘मैंने आज एक गुलाबजामुन खाया है।’ उनके चेहरे पर एक बालसुलभ मुस्कान देखी जा सकती थी।
मैंने नोट किया कि लंच के तत्काल बाद वह सेमिनार हॉल में पहुंचे थे और खड़े होकर लोगों को आवाज़ दे रहे थे। इस बात का किसे गुमान हो सकता था कि यह आखरी वक्त़ होगा जब कम्युनिस्ट आन्दोलन की बीती पीढ़ी की इस नायाब शख्सियत को सुनने का मौका मिल रहा था, जिसके नुमाइन्दे तक अब गिनी चुनी संख्या में ही बचे हैं।
कुछ साल पहले अहमदाबाद में जब वह आदिवासियों के सम्मेलन में प्रमुख अतिथि के तौर पर पहुंचे थे, तब निजी बातचीत में उन्होंने बताया था कि उनकी बेटी वहीं अहमदाबाद में ही रहती है। हालांकि उस वक्त़ न उनकी चाल से और न ही उनकी तकरीर से इस बात का अन्दाज़ा लग सकता था कि वह नब्बे के करीब पहंुचने को हैं।
25 सितम्बर 1925 को सिलहट – जो अब बांगलादेश में है – में जनमे अर्धेन्दु भूषण बर्धन ने 15 साल की उम्र में ही कम्युनिजम को स्वीकारा जब वह पढ़ाई के लिए नागपुर पहुंचे। 1940 में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय में आल इंडिया स्टुडेंटस फेडरेशन से अपना नाता जोड़ा और उसी साल प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया के सदस्य बने और उसके अगले ही साल उसके पूरावक्ती कार्यकर्ता बनेे। नागपुर विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के अध्यक्ष के तौर पर चुने गए वर्धन ने बाद में मजदूर आन्दोलन के मोर्चे पर काम किया, कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया की ट्रेड यूनियन शाखा ‘आयटक’ (AITUC) के जनरल सेक्रेटरी बने और बाद में पार्टी के जनरल सेक्रेटरी चुने गए। पार्टी की आखरी कांग्रेस में ही वह इस पद से हटे।
वह कम्युनिस्टों की उस पीढ़ी से ताल्लुक रखते थे, जिन्हें पी सी जोशी जैसे legendary कहे जाने वाले अग्रणियों का मार्गदर्शन मिला था। वह ऐसा दौर था जब पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट तहरीक अपने उरूज पर थी। पिछले दिनों कामरान असदार अली द्वारा लिखित ‘कम्युनिजम इन पाकिस्तान’ शीर्षक विद्धतापूर्ण किताब की ए जी नूरानी द्वारा लिखी समीक्षा फ्रंटलाइन पत्रिका में पढ़ रहा था, जिसमें एक जगह अचानक ए बी बर्धन का जिक्र आया।
उपरोक्त किताब में 1947 से लेकर 1972 के दरमियान पाकिस्तान में कम्युनिस्ट आन्दोलन एवं वर्गीय राजनीति किस तरह आगे बढ़ी, किस तरह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने वहां कम्युनिस्ट आन्दोलन की नींव डालने में योगदान दिया इसपर उसमें विधिवत रौशनी डाली गयी है। उन दिनों कम्युनिस्ट आन्दोलन में अपने आप को कुर्बान किए लोगों का जिक्र करते हुए किताब एक जगह बताती है:
‘…. उनकी निजी और राजनीतिक नाकामियां जो भी रही हों, वे ऐसे लोग थे जिन्होंने एक ऐसी दुनिया बनाने के लिए – जो सभी के लिए बेहतर हो – अपने आप को पूरी तरह निछावर कर दिया था।’ /पेज 18/
इस हिस्से को उदधृत करने के बाद नूरानी बताते हैं
‘ए बी बर्धन, पार्टी के जनरल सेक्रेटरी, पार्टी मुख्यालय में बेंच पर ही सोते थे। इन दिनों ऐसे लोग नहीं मिलते हैं।’
इधर बीच वोल्गा, गंगा, यांगत्से, नाईल और दुनिया की तमाम नदियों, जलप्रवाहों से बहुत सारा पानी बह चुका है।
आज 21 वीं सदी की दूसरी दहाई में जब हम खड़े हैं तो उस बदली हक़ीकत से सभी रूबरू हैं,जब इक्केदुक्के अपवादों को छोड़ कर सभी मुल्कों में पूंजीवाद लौट आया है। जैसी हवायें चली हैं उसमें पश्चिमी देशों की कई मुल्कों की कम्युनिस्ट पार्टियों ने बाकायदा अपने आप को समाप्त कर अधिक ‘स्वीकार्य’ नाम से लोगों के बीच पहुंचना कबूल किया है। भारत इस मायने में एक अपवाद दिखता है कि मार्क्सवाद को अपना दिशानिर्देशक सिद्धान्त माननेवाली पार्टियों/तंजीमों में कोई कमी नहीं आयी है। अपने को इन्कलाबी कहलानेवाली इस आन्दोलन की धारा में बिखराव का आलम ऐसा है कि ऐसी पार्टियों/समूहांे की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है।
अगर अपने मुल्क के सियासी एवं समाजी मंज़र पर गौर करें तो यही दिखता है कि समय का पहिया गोया उलटा घुम गया है। और मानवद्रोही फलसफे पर यकीन रखनेवाली ताकतों एवं तंजीमों को नयी वैधता मिली है।
एक ऐसे समय में जब वाम आन्दोलन का पूरा स्पेक्ट्रम ही नहीं तमाम जनतांत्रिक, सेक्युलर ताकतें एवं संगठन अपने आप को गतिरोध की स्थितियों में पा रही हैं और इस गतिरोध को तोड़ने की कोशिशें कहीं चुपचाप तो कहीं मुखर तरीके से जारी हैं, ऐसे दौर में वाम परिवार के इस बुजुर्ग का यूं चला जाना मन के सूनेपन को और गहरा कर देता है।
अलविदा कामरेड बर्धन !
Its a loss for those who understand.
I had an opportunity to hear in twice and meet him personally at Ajay Bhawan.
Those were the days, Geeta di, Bani di, Bardhan da, Vimla Dang, Sheela Didi all gave us so much hope and encouragement to carry on in one of the bleakest times personal and political.
Laal Salam comrade
Peace,
Desi Girl
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‘Waqt ney kiya
Kya haseey sitam
Tum rahey na tum
Hum rahey na hum…’
(Time has done
What an irony, friend!
Neither you were you
Nor myself were I……. free translation)
KAIFI AZMI
Bardhanvwas fond of hindi film songs. This is a small tribute to him. He lives in the struggles of workers everywhere.
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