क्या जे.एन. यू.( जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ) दरिद्रता या दरिद्र्तावाद की दलाल स्ट्रीट है? अगर एक प्रभावशाली संपादक और एक लोकप्रिय दलित चिन्तक की मानें तो यही उसका डी.एन.ए. है. वह लोगों के आत्म- निर्भर होने के खयाल के खिलाफ है. आत्मनिर्भरता का अर्थ क्या है? क्यों सारे दलित बराबरी के लिए पूंजीवाद नामक रामबाण को नहीं अपना लेते और क्यों वे बराबरी को जितना आर्थिक, उतना ही राजनीतिक और सांस्कृतिक मसला समझते हैं, इस पर बात कभी और की जा सकती है. इस पर भी कि क्यों ऐसा मानना खराब अर्थों में मार्क्सवादी होना है. भारत के मार्क्सवादी ही नहीं अनेक उदार लोकतांत्रिक विचारों वाले लोगों को पूंजी की शक्ति पर जो भरोसा था, उससे उबारने के लिए उन्हें दया पवार , नामदेव ढसाल, कुमुद पावड़े, शरण कुमार लिम्बाले, ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे लेखकों को अपनी कहानी सुनानी पड़ी. वह कहानी कितनी लंबी है, यह रोज़ ऐसे लेखकों की आमद से पता चलता है जो खुद को लेखक नहीं, दलित लेखक ही कहलाना चाहते हैं. अलग-अलग भाषाओं में कही जा रही यह कहानी पाठकों को ‘एक-सी’ लगती है. इन्हें पढ़ते हुए वे ‘दुहराव’ और ‘ऊब’ की शिकायत भी करते हैं. इन आख्यानों में ‘सर्जनात्मकता और कल्पनाशीलता की कमी’ मालूम पड़ती है. लेखक के अपने विशिष्ट व्यक्तित्व के दर्शन उन्हें नहीं हो पाते.
मार्क्स की शिकायत भी पूंजीवाद से यही थी, कि वह व्यक्ति को उसके अपने ख़ास व्यक्तित्व की सर्जनात्मक सम्भावना से ही वंचित कर देता है, कि वह उसे उसके आर्थिक व्यापारों में ही शेष कर देता है. मनुष्यता का बहुलांश सांस्कृतिकता उपलब्ध ही नहीं कर पाता. मार्क्सवाद मानवता को अपनी इस इस भीषण ट्रेजेडी को समझने और फिर एक सुखांत की कल्पना करने का आह्वान करता है. इस पर बहस आगे. क्यों उस सुखांत के संधान के लिए कम्युनिस्ट पार्टियां ही काफी न थीं, इस पर भी बात होनी चाहिए. अभी तो सिर्फ इतना ही समझने की कोशिश करनी है कि जे. एन. यू. पर ऐसा हमला क्यों! क्या जे.एन. यू. उस चिर-क्षुधित और चिर-असंतुष्ट पूंजीवाद की राह में पड़ा कोई रोड़ा है जो बांधों को ऊँचा-और ऊँचा करते, नदियों को पाटते, पर्वतों को चूर-चूर करते, जंगलों को निगलते, समुन्दर और जमीन को खोदते जाने कहाँ एक अदृष्ट की ओर भागा चला जा रहा है? वह पूंजीवाद वह गुलीवर है जिसे बाँधने की कोशिश करते सारे लोग लिलिपुटियों की तरह हास्यास्पद जान पड़ते हैं? क्या जे.एन.यू. ऐसे ही लिलिपुटियों को तैयार करने का कारखाना है?
जे. एन. यू. दरिद्रता के पैरोकारों की ही जगह नहीं, यह साबित करने के लिए दीपंकर गुप्ता और इला पटनायक के नाम काफी होने चाहिए. ये नाम इसलिए कि मीडिया इन्हें जल्दी पहचान लेगा. 1050 शब्दों और आधे मिनट की बाईट की आदत जिन्हें पड़ चुकी है उन्हें गंगा ढाबा के पत्थरों की किसी समाधान पर पहुंचे बिना अगली रात के लिए मुल्तवी हो जाने वाली शहरजाद की हजार रातों से भी लंबी बहसों को सुनने की न तो फुरसत है, न शौक ही. ये बहसें बेकार का शगल हैं जो कुछ उपयोगी पैदा नहीं करतीं. और मार्क्स भी दरअसल तलबगार है शौक का जो ज़रूरतों के बंधन से इंसान को आज़ाद करने का एक पागल सा सपना देखता है.
सारी ज़रूरतों के ऊपर एक ज़रूरत होती है संग-साथ की. नौजवान मार्क्स जे.एन.यू. के तालिबे-इल्मों के लिए लिखता मालूम पड़ता है, “ जब कम्युनिस्ट कामगार आपस में मिलते हैं, तो उनका फौरी मकसद होता है, प्रशिक्षण, प्रचार, वगैरह. लेकिन उसी पल वे एक नई ज़रुरत की भी ईजाद करते है, समाज की ज़रुरत की, और जो साधन मालूम पड़ता है, वह लक्ष्य में तब्दील हो जाता है. यह व्यावहारिक परिवर्तन सबसे ज़्यादा उजागर है फ्रांसीसी समाजवादी कामगारों के जमावड़ों में. तंबाकू,खाना और पीना,आदि अब लोगों के बीच रिश्ते बनाने का जरिया नहीं रह जाते हैं. संग-साथ, गप-शप, जिनकी मंजिल समाजियत है, उनके लिए अपने आप में काफी हैं. भाईचारा कोई नारा नहीं है, एक सचाई है, और इंसान की उदात्तता की चमक( रौशनी) उनके श्रम-जर्जर शरीरों से फूटती है.”जे.एन. यू. की रूह क्लासरूमों में नहीं बसती. वह जीवनानंद दास की चील की तरह खुले आसमानों में परवाज भरती है और अरावली की चट्टानों पर दम लेने को उतरती है. इंसान के तसव्वुर से जाने कितना पहले से पृथ्वी के पृथ्वी की शक्ल लेने की गवाह ये चट्टानें क्या निर्विकार रह पाती होंगी जब इन इंसानी सूरतों को कुछ फानी मसलों पर यों बहस करते सुनती होंगीं,मानो उन्हीं में सारी कायनात की मुश्किलों का हल छिपा है ? इन पाषाण-खंडों की तरह ही ये बहसें भी चिरंतन जान पड़ती हैं और उतनी ही बेकार.
छात्र संघ का चुनाव है और दो छात्र दल चुनावी तालमेल की बात करते हैं.दोनों ही वामपंथी हैं और मार्क्स को अपना आदि गुरु मानते हैं. तालमेल के लिए कुछ मुद्दों पर सहमति आवश्यक है. जे. एन. यू. की परिपाटी के मुताबिक़ रात को मीटिंग तय पाई जाती है. जब दोनों मिलते हैं तो एक का नेता दूसरे से पूछता है, “ तो पहले इसकी सफाई हो जाए कि आपकी नज़र में भारतीय राज्य का चरित्र क्या है?” बहस रात भर चलती है और पौ फटने तक बेनतीजा रहती है. समझौता नहीं हो पाता और दोनों अलग-अलग चुनाव लड़ने का फैसला करते हैं.
भारतीय राज्य के चरित्र से एक विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनाव का रिश्ता? या इराक पर अमरीकी हमले या चीन के थ्येन आन मन चौक काण्ड के बारे में किसी की राय का छात्र संघ का अध्यक्ष या सचिव बनने या न बनने पर असर क्यों पड़ना चाहिए? यह सवाल जे. एन. यू. के ही शहर के दूसरे बड़े और कहीं पुराने विश्वविद्यालय में अचरज से पूछा जाता है और इस पर फिर हंसा भी जाता है. क्योंकि यहाँ और बाकी विश्विद्यालयों में छात्र संघ चुनाव वैसे लड़े जाते हैं जैसे उन्हें लड़ा जाना चाहिए. यह किसी ने नहीं पूछा, न लिंगदोह समिति ने और न जे.एन. यू. के छात्र संघ का चुनाव सालों तक रोक देने वाले उच्चतम न्यायालय ने, कि उनके पहले ऐसा हो सका था कि छात्र संघ का चुनाव सिर्फ हाथ लिखे पोस्टरों और छात्रों की सभाओं के बल पर साल-दर साल होता रहा, कि छात्रों के चुनाव-अधिकारी होते हुए भी बिना किसी खून-खराबे और पक्षपात के चुनाव होते रहे? चूँकि उन्होंने यह नहीं पूछा , उन्होंने जे.एन.यू. पर भी अपना सार्वभौम मॉडल थोपा,उससे सीखने की बात तो दूर रही!
यह जे. एन. यू. है जहां त्रात्स्कीवादी छात्र को सुनने भी सैकड़ों की तादाद में लोग इकट्ठा हो सकते थे. और इस भीड़ में छात्र ही नहीं अध्यापक भी हो सकते थे. यहाँ छात्र नेताओं को दास कैपिटल के हवाले देते सुना जा सकता था. और अगली सुबह दास कैपिटल से उद्धरण निकाल कर पोस्टरों पर यह भी साबित किया जाता था कि गई रात भाषण में मार्क्स को गलत पेश किया गया था.
जे. एन. यू. ने बनने के साथ ही दाखिले के लिए जो प्रक्रिया अपनाई उसने मुमकिन किया कि समाज के सबसे पिछड़े तबकों , सबसे पिछड़े इलाकों के नौजवान उच्च शिक्षा के ‘अभिजात’ अनुभव में साझेदारी करने आएँ. और इसलिए जब इस प्रक्रिया से छेड़छाड़ की कोशिश हुई तो जे. एन. यू. के छात्र लड़े. यह भी जे. एन. यू. में ही हो सकता था, और शुरू में ही कि लड़के और लडकियों के हॉस्टल मिले हुए हों और वे अजूबों की तरह एक दूसरे से न मिलें. ध्यान रहे कि इन छात्रों में ज़्यादातर वे थे जो ‘पिछड़े’ राज्यों से आए थे, जहां सामाजिक मेल जोल में यौन-संकोच अधिक है. फिर भी जे. एन. यू. में लड़कियों के साथ बदतमीजी की खबर शायद ही सुनी गई. एक छात्र ने ध्यान दिलाया , ये घटनाएं तब होना शुरू हुईं, जब छात्र संघ ठप्प पड़ गया था क्योंकि चुनाव रोक दिए गए थे.
स्वागत, यारबाशी जे. एन. यू. के डी. एन. ए. में हैं. जब बिहार से उदास होकर चंद्रशेखर दिल्ली आया तो जे. एन. यू. के पूर्वांचल और महानदी के कमरों ने उसका स्वागत किया. न सिर्फ उसके किशोर भैया ने, जयंत, नीरज लाभ ने भी. और बाद में न जाने कितने छात्रों ने उसे,जो जे.एन.यू.का छात्र नहीं था,इत्मीनान दिया. यह तो बाद की बात थी कि वह जे. एन. यू. का सबसे लाड़ला छात्र संघ अध्यक्ष बना.
जे. एन. यू. सिर्फ जे. एन. यू. में नहीं है. वह उनकी कोई न थी, जिसके साथ दिल्ली की सडकों पर दिसम्बर की एक रात बलात्कार किया गया, फिर भी जे. एन. यू. के छात्र निकल पड़े और राष्ट्रपति भवन का द्वार उन्होंने झकझोर डाला. दिल्ली इन नौजवानों के क्रोध से जगी और पहचानना मुश्किल हो गया कि इनमें कौन जे. एन. यू. है और कौन शहर. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक ऐसे विश्वविद्यालय की कल्पना की थी जो चहारदीवारी में घिरा न हो. उसका सबसे सुंदर उदाहरण दिसंबर के वे दिन और रातें थीं जब जे. एन. यू. शहर के बीचोंबीच आ गया. तभी यह भी हुआ कि जे. एन. यू . के नौजवानों ने पुकारा और शहर उसके पास गया, मुनीरका की गलियों में युवा कदमों से कदम मिलाने की कोशिश करता हुआ, मुक्तिबोध के शब्दों में पश्चातपद. शहर को इसका इत्मीनान है कि वह जब पुकारेगा, कोई सुने न सुने, जे. एन. यू. उसे सुनेगा. इस भरोसे के आगे किसी विश्वविद्यालय को क्या चाहिए?
“Ponch kar ashq apni aakghoon sey
Muskuraado to koi baat baney
Sar jhukaaney sey kuch nahi hootaa
Sar uthadoo toe koi baat baney … ”
SAHIR
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