(यह टिप्पणी पहले कैचन्यूज़ हिन्दी पर इस रूप में प्रकाशित हो चुकी है:http://hindi.catchnews.com/india/dg-vanzara-what-we-were-what-we-are-what-we-ll-become-1460646292.html)
पाकिस्तान का विरोध करते करते-करते हम कब उसकी शक्ल में ढल गए,पता ही नहीं चला.सबसे ताज़ा उदाहरण गुजरात के प्रख्यात पुलिस अधिकारी दह्याजी गोबरजी वनजारा के जमानत मिलने के बाद गुजरात वापसी पर उनके ज़बरदस्त स्वागत और खुद उनके तलवार-नृत्य का है. इस खबर से कुछ लोगों को पाकिस्तान में सलमान तासीर के कातिल मुमताज कादिर की फाँसी के बाद उसके जनाजे पर उमड़ी हजारों की भीड़ याद आ गई.
कादिर ने सलमान तासीर को इसलिए मार डाला था कि उनकी नज़र में तासीर ने इस्लाम और मुहम्मद साहब की शान में गुस्ताखी की थी.तासीर का कसूर यह था उन्होंने पाकिस्तान के ईश-निंदा क़ानून की आलोचना की थी और एक ईसाई औरत आसिया बीबी के पक्ष में बात की थी जिस पर ईश निंदा का आरोप था.इसके बाद कादिर ने तासीर को , जिनका वह अंगरक्षक था, गोलियों से भून डाला.
कादिर गिरफ्तार हुआ, उस पर मुकदमा चला जो खासा डरावना और नाटकीय था.कादिर को फाँसी की सजा सुनाने वाले न्यायाधीश ने फैसला सुनाते ही देश छोड़ दिया.उस अदालत पर पहले हमला भी हुआ.कादिर की एक तरह से पूजा होने लगी और जेल में वह एक धर्मोपदेशक बन गया.
कादिर की इस भयंकर लोकप्रियता के बावजूद पाकिस्तान ने उसे न सिर्फ फांसी की सजा सुनाई बल्कि फांसी दे भी दी. इस सजा का हम सैद्धांतिक आधार पर विरोध कर सकते हैं,लेकिन इससे कम से कम यह जाहिर होता है कि पाकिस्तान अपने क़ानून के पालन को लेकर गंभीर है और अपराध को नतीजे तक पहुंचाता है.इसके पहले भी पाकिस्तान में कादिर की तरह के और लोगों को भी सजा दी गयी है.
कादिर के साथ पाकिस्तानी कानूनी तंत्र के व्यवहार और दारा सिंह के साथ भारतीय उच्चतम न्यायालय के बर्ताव की तुलना करें. दारा सिंह ने ओड़िसा में ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को सोते में जला कर मार डाला था.उसने यह स्टेंस को किया था कि उसका यकीन था कि वे लोगों को ईसाई बना रहे थे.जब सी बी आई ने दारा सिंह को इस जघन्य अपराध के लिए मौत की सजा देने की मांग की तो उच्चतम न्यायालय की न्यायमूर्ति पी सथाशिवम और बी एस चौहान की द्विसदस्यीय पीठ ने दारा सिंह के अपराध को इतना जघन्य मानने से इनकार कर दिया कि उसके चलते उसे फाँसी सुनाई जाए.इसकी वजह जो बताई गई, वह अधिक चिंताजनक थी.
पीठ ने कहा कि यह ठीक है कि दारा सिंह ने स्टेंस और उनके बच्चों को ठंडे दिमाग से की गयी पूरी तैयारी के बाद मारा लेकिन यह ह्त्या दरअसल धर्म-परिवर्तन को लेकर उसके क्षोभ का परिणाम थी.आगे इस पीठ ने धर्मांतरण की आलोचना करते हुए उसे अनुचित ठहराया.ऐसा करते हुए एक तरह से उसने यह कहा कि हत्या भले गलत है लेकिन उसका कारण मौजूद था, इसलिए दारा सिंह के प्रति नरमी दिखाई जानी चाहिए.
भारतीय उच्चतम न्यायालय की इस तर्क-पद्धति को अगर मानें तो मुमताज कादरी को भी फाँसी नहीं होनी चाहिए थी. आखिर उसे भी रसूल के अपमान का एक जायज गुस्सा था और तासीर की हत्या सिर्फ इस गुस्से का नतीजा थी, वरना जाती तौर पर उसे तासीर से क्या अदावत थी! वह तो एक व्यापक सामाजिक क्षोभ को इस हत्या के जरिए जाहिर भर कर रहा था!
भारतीय क़ानून व्यवस्था और न्याय तंत्र का झुकाव हिंदू मन को समझने की ओर है, यह सिर्फ दारा सिंह के प्रति उसकी नरमी से जाहिर नहीं होता. एक मामले में फाँसी न देना तो दूसरे मामले में फाँसी देना: व्यापक जनभावना को फाँसी से कम सजा संतुष्ट नहीं कर पाएगी, ऐसा कह कर ही अफजल गुरु को फाँसी की सजा सुनाई गई. क्या इस व्यापक जन भावना में कश्मीरी और मुसलमान शामिल मान लिए गए थे? या वे अप्रासंगिक थे?
पाकिस्तान की अदालत ने व्यापक जन भावना की परवाह नहीं की और वहाँ की सरकार ने भी इस जन भावना का सामना करने का जोखिम और साहस दिखाया. क्या अपने देश के बारे में यही कहा जा सकता है?
ताज्जुब नहीं कि भारत में बाबरी मस्जिद धवंस के लिए कौन जिम्मेदार थे, यह उस अपराध के अब चौथाई सदी बीतने पर भी तय नहीं किया जा सका, उन्हें सजा देने की बात तो दूर! हम सब ने आँखों से देखा, यानी उस अपराध के लिए व्यापक हिंसा को संगठित करने का अभियान, जिसका नेतृत्व लाल कृष्ण आडवाणी ने किया, जिन्हें बाद में नीतीश कुमार ने ‘स्टेट्समैन’ कहा और जिसमें प्रत्यक्ष,अप्रत्यक्ष भागीदारी अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर आज के प्रधान मंत्री तक की थी.
हम जानते हैं कि इस अपराध के मुजरिमों को कभी नामजद भी नहीं किया जा सकेगा.वैसे ही जैसे मुंबई की मुस्लिम विरोधी हिंसा पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट को खोलने का साहस कोई न कर सका: मुसलमानों का ‘तुष्टीकरण’ करतने वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार ने भी नहीं.
दह्याजी गोबरजी वनजारा ने तो ‘राष्ट्र हित’ में कुछ राष्ट्र-विरोधियों की हत्या संगठित भर की थी! क्या इसके लिए उन्हें सजा मिलनी चाहिए? इसके वे सात साल तक जेल में रहे, क्या इसका मुआवजा उन्हें नहीं मिलना चाहिए?
वनजारा पर तुलसी प्रजापति,सोराबजी शेख और इशरत जहाँ की ह्त्या का आरोप है. इसके अलावा मुठभेड़ के नाम पर और भी हत्याओं के आरोप उनपर हैं. अभी इनके मुक़दमे चल रहे हैं. वे सात साल इनकी वजह से जेल में रहे.पिछले साल जब उन्हें जमानत मिली तो भी गुजरात जाने पर रोक बनी रही. वह रोक अभी कुछ वक्त पहले हटा ली गई.
वनजारा ने जेल में रहते हुए कहा था कि उन्होंने तो सिर्फ राजनीतिक नेताओं की योजना और उनके आदेश पर अमल भर किया था. उनकी इस बात को हवा मं उड़ा दिया गया.अब उनके गुजरात पहुँचने पर अहमदाबाद के टाउन हॉल में उनके सार्वजनिक अभिनंदन की खबर से कुछ लोगों को कादिर के उमड़ी पाकिस्तानी जनता की भीड़ की याद आ गई, तो क्या गलत है?
वनजारा के स्वागत से लेकिन हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए.कुछ दिन पहले दिल्ली में छात्र नेता कन्हैया पर हमला करने वाले भारतीय जनता पार्टी के विधायक और दूसरे वकीलों का भारत की राजधानी में सार्वजनिक अभिनन्दन हो चुका है.उसके पहले मुज्ज़फरनगर में हिंसा फैलाने के आरोप में गिरफ्तार नेताओं की रिहाई पर भी सार्वजनिक अभिनंदन देखा जा चुका है. बाद में वे केंद्र में मंत्री भी बना दिए गए.
वनजारा पर जब फर्जी मुठभेड़ के नाम पर हत्याओं का मुकदमा चल रहा था तो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने जन सभा में मारे गए प्रजापति, सोराबुद्दीन और इशरत जहाँ के बारे में गरजकर कहा था कि इनके साथ क्या करना चाहिए. भीड़ ने एकस्वर में कहा: इन्हें मार डालो!
ह्त्या को सार्वजनिक तौर पर जायज ठहराने और उसके लिए जनभावना संगठित करने का पुरस्कार प्रधान मंत्री का पद हो सकता था,क्या उस समय हमें पता था? और क्या इन सब पर सोचते हुए राष्ट्र कवि की पंक्तियाँ याद नहीं आतीं:हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी?
Dear Apoorvanand,
..Though I hate Pakistan’s government’s mixing religion with governance, I do admire the occasional brilliant flickers of judicial independence in Pakistan. Judicial structure in a democracy is supposed to act as a strong pillar unaffected by the gales of populism, to keep the flares of justice and freedom lit..Democracy is supposed to be populist, no question about it..but other institutions , mainly judiciary and permanent executive and to some extent press are supposed to act as counterweight..to act as corrective mechanism….but alas..as you have rightly pointed out the things are not they were supposed to be as per the beautiful constitution…Are we sliding down on this account or there is still some hope…
In the name of opposing religious bigotry of others, we ourselves have are becoming religious bigot..Politically ,they are pushing us to become more like our immediate western neighbours….Our people better become beware of the same… We must remember what happened in some European countries before WWII. Interaction with such forces with the past avatars of present forces did take place then…So …Maithali Sharan Gupta might have been prophetic….
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‘…yeh kya jagah hai doston ..yeh kaun SA dayar hai… ‘
((What is this place, friends… )
SHARYAR
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‘..had -e-nigah hai tak jahan…gubaar hi gubaar hai.. ‘
(…where as far as I can see , there is storm upon storm..)
Sharyar
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