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श्रद्वांजलि: ओमप्रकाश वाल्मीकि (1950-2013)

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1997 में आयी वह आत्मकथा ‘‘जूठन’’ आते ही चर्चित हुई थी। उस वक्त एक सीमित दायरे में ही उसके लेखक ओमप्रकाश वाल्मिकी का नाम जाना जाता था। मगर हिन्दी जगत में किताब का जो रिस्पान्स था, जिस तरह अन्य भाषाओं में उसके अनुवाद होने लगे, उससे यह नाम दूर तक पहुंचने में अधिक वक्त नहीं लगा। यह अकारण नहीं था कि इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के मध्य में वह किताब अंग्रेजी में अनूदित होकर कनाडा तथा अन्य देशों के विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल की गयी थी।

उपरोक्त आत्मकथा ‘‘जूठन’ का वह प्रसंग शायद ही कोई भूला होगा, जब सुखदेव त्यागी के घर हो रही अपनी बेटी की शादी के वक्त अपमानित की गयी उस नन्हे बालक (स्वयं ओमप्रकाशजी) एवं उसकी छोटी बहन माया की मां ‘उस रात गोया दुर्गा’ बनी थी और उसने त्यागी को ललकारा था और एक ‘शेरनी’ की तरह वहां से अपनी सन्तानों के साथ निकल गयी थी। कल्पना ही की जा सकती है कि जिला मुजफ्फरनगर के एक गांव में – जो 21 वीं सदी की दूसरी दहाई में भी वर्चस्वशाली जातियों की दबंगई और खाप पंचायतों की मनमानी के लिए कुख्यात है – आज से लगभग साठ साल पहले इस बग़ावत क्या निहितार्थ रहे होंगे। उनकी मां कभी त्यागी के दरवाजे नहीं गयी।

इस नन्हे बालक के मन पर अपनी अनपढ़ मां की यह बग़ावत – जो वर्णसमाज के मानवद्रोही निज़ाम के तहत सफाई के पेशे में मुब्तिला थी और उस पेशे की वजह से ही लांछन का जीवन जीने के लिए अभिशप्त थी – गोया अंकित हो गयी, जिसने उसे एक तरह से तमाम बाधाओं को दूर करने का हौसला दिया।

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