पद ग्रहण करने के बाद लगभग हर पखवाड़े हमारे राष्ट्रपति किसी न किसी शिक्षा संस्थान में दीक्षांत समारोह में भाग ले रहे हैं। इससे शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा के प्रति उनके लगाव और चिंता का प्रमाण मिलता है। हर जगह उन्होंने इस पर व्यथा जताई है कि हमारे विश्वविद्यालय के दो सौ श्रेष्ठतम शिक्षा संस्थानों में कहीं नहीं हैं। चिंता कोई नई नहीं है। हमारे विश्वविद्यालयों में प्रथम श्रेणी का शोध नहीं होता, हम मौलिक खोज नहीं कर पाते , ज्ञान भंडार में हमारे योगदान के प्रमाण की तलाश हमें लज्जित करती है! शिकायतों की फेहरिस्त और लम्बी हो सकती है। इस पर ताज्जुब ज़रूर किया जा सकता है कि पलक झपकते ही समितियां और क़ानून बनाने की अभ्यस्त व्यवस्था ने इस प्रश्न पर विचार करने के लिए अब तक कोई समिति क्यों नहीं बनाई !
एक प्रवृत्ति इस सवाल से कतराने की रही है। इस राष्ट्रवादी रवैये के मुताबिक़ हमारी अपनी परिस्थितयां है और हमें श्रेष्ठता के अपने पैमाने बनाए चाहिए, पराए पर्यावरण में पहने फूलने वाले शिक्षा संस्थानों से तुलना व्यर्थ है, उनके मानदंड हमारे मानदंड नहीं हो सकते! लेकिन हम सब जानते हैं कि यह तर्क समस्या से कतराने का खूबसूरत आवरण है, कि हम अंतरराष्ट्रीय वातावरण में काम कर रहे हैं और ‘हमारा’ सीमित अर्थ में ही हमारा है। Continue reading विश्वविद्यालय और उत्कृष्टता के प्रश्न