सार्वजनिक जगहों पर सामूहिक कब्ज़े की संस्कृति : किशोर

Guest post by Kishore

दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में स्थित रोहिणी का इलाका लाखों मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग परिवारों का बसेरा है. कुछ समय पहले यहाँ मेहनतकश मज़दूर वर्ग के नुमाइंदे भी झुग्गी-झोपडियों में रहा करते थे जिन्होने  रोहिणी  नाम के इस उपनगर को बसाया था. पर पिछले कुछ सालों में इन झुग्गियों को उजाड़ कर दिल्ली के बाहरी हिस्सों में पुनर्वासित किया गया है. ठीक गोरख पाण्डेय की कविता “स्वर्ग से  विदाई” की तरह.

रोहिणी एक नियोजित उपनगर है जिसे दिल्ली विकास प्राधिकरण ने बसाया है. एक शहरी बस्ती की जरूरतों के हिसाब से हर एक चीज़ का ध्यान रखा गया है. थोड़ी थोड़ी दूर पर “सार्वजनिक” पार्कों की व्यवस्था की गयी है और हर एक-दो किलोमीटर पर एक बड़े “सार्वजनिक” पार्क की भी व्यवस्था है जिसे डिस्ट्रिक्ट पार्क कहते हैं.

ऐसा ही एक डिस्ट्रिक्ट पार्क मेरे घर के नज़दीक भी है. यहाँ सैकड़ों लोग सुबह-शाम सैर और कसरत करने आते हैं. साथ ही कई अन्य समूह यहाँ सेहत की बेहतरी के लिए अलग अलग तरह की गतिविधियाँ करतें हैं. कुछ लोग योग  करते हैं तो कुछ लोग एकाग्रचित होकर केवल ध्यान लगाने की कोशिश करते हैं तो कुछ लोग भजन में अपना ध्यान लगाते हैं.

यहाँ आने वाले लोगों में एक समानता है कि वे सब अपनी सेहत के प्रति काफी सजग है और अपने वजन को नियंत्रण में रखना चाहते हैं. लोगों की अपनी सेहत को लेकर बड़ी जागरूकता और पतला-दुबला दिखने की चाहत को व्यवसायी वर्ग ने बारीकी से पहचाना है और उसका पूरा फायदा भी उठाया है. बाज़ार इस तरह के “स्वास्थ्यवर्धक उत्पादों“  से  भरा पड़ा है.

इस बाजार के  कुछ नुमाइंदे  सुबह-सुबह अपने उत्पादों को लेकर यहाँ भी आते हैं. कुछ लोग अपने वजन कम करने के नायब तरीकों का प्रचार करते हैं, कुछ लोग मशरूम की तरह फैलते “व्यायाम शालाओं ” का प्रचार करते है, तो कुछ लोग “ health spas “ का . कुछ लोग पानी साफ़ के यन्त्र बेचने मैं लगे रहते है तो कुछ लोग स्वस्थ्य बीमा योजना बेचना चाहते हैं.

सेहत के प्रति बड़ी सजगता से  आयुर्वैदिक, प्राकृतिक और जैविक उत्पादों की मांग में भी इजाफा हुआ है , सो पार्क के गेट पर कुछ दुकानें इन पदार्थों की भी लगी होती हैं .साथ ही ताजे फलों और नारियल पानी के कई ठेले भी अपने दिन की शुरुआत यहीं से करते है. पार्क में घुसते और निकलते हुए किसी साप्ताहिक हाट  में होने वाले शोर शराबे का सा अहसास होता है . सुबह की बची-खुची शांति पार्क के इर्द-गिर्द खड़ी गाड़ियों की आवाजों के बीच खो जाती है जिनमे “सवार” होकर लोग सुबह की “सैर” को आते हैं. शुक्र है कि यह तमाशा गेट के इर्द-गिर्द ही सीमित है और पार्क के अन्दर ऐसे कई कोने हैं जहाँ शांति रहती है. बाज़ार का दखल इन चंद  गतिविधियों तक ही सीमित है. योग प्रशिक्षण  और अलग अलग तरह के समूहों में दी जाने वाली सेवाएँ पूरी तरह निशुल्क है . कई लोग मुफ्त में दातून भी बांटते हैं, कुछ लोग स्वस्थ जीवन जीने के नुस्खे  भी.

इसी क्रम में यहाँ एक और गतिविधि शुरू हुई. कुछ लोगों ने मिलकर यहाँ मुफ्त में पेठे का रस पिलाना शुरू किया. जैसा कि मैंने पहले जिक्र किया कि  सेहत के प्रति बड़ी सजगता के साथ साथ प्राकृतिक  उत्पादों से होने वाले फायदे के प्रति भी सजगता बढ़ी है. इन लोगों का मानना  है कि सुबह एक कप पेठे का जूस मधुमय, रक्तचाप, हृदय रोग आदि कई रोगों में फायदेमंद है. इन  दावों में कितना दम है ये खोजने का समय किस के पास है? धीरे पेठे का जूस पीने वालों की कतार लम्बी होने लगी और जल्द  ही सैकडों  लोग इस सेवा का लाभ  उठाने लगे. पेठे के जूस पर सवाल उठाने वाला यह लेखक भी कभी कभी इन सैकडों लोगों की भीड़ शामिल होने लगा खासकर जब लाइन छोटी होती थी  निस्वार्थ भाव से सेवा प्रदान करने वाले अधिकतर “स्वयंसेवी” व्यवसायी वर्ग से ताल्लुक  रखते है और और तन, मन, धन तीनों लगा कर पिछले दो तीन सालों  से ये सेवा उपलब्ध करा रहे हैं और इस सेवा का फायदा उठाने वालों की संख्या दिन-ब-दिन  बढती ही जा रही है. वैसे भी हमारे देश में मुफ्त में मिलने वाली किसी भी चीज़ के प्रति आकर्षण कुछ ज्यादा ही रहता है. किसी ने ठीक ही कहा है “ माले मुफ्त दिल बेरहम “.

पिछले दो तीन सालों में इस निशुल्क सेवा का जिस तरह से विस्तार हुआ है वो काफी दिलचस्प है. शुरुआत एक मेज़  से हुई थी. मेज पर एक ज्यूसर रखा था जिससे जूस निकाल कर एक या दो लोग ये जूस  बांटा करते थे. मेज की साथ में एक या दो लोग ज़मीन पर बैठ कर जूस के लिए पेठा छीलते  और काटते थे. थोड़े दिनों बाद एक और मेज़  लगायी गई जिससे ग्रीन टी बांटी जाने लगी. जाहिर है चाय बनाने के लिए गैस स्टोव, बर्तन आदि की जरूरत पड़ेगी और उन्हें रखने के लिए जगह की. पेठा काटने वालों के साथ ही स्टोव रखा गया और चाय बननी और बंटनी शुरू हो गयी.

सुबह सैर करने वालों में थोड़े थोड़े दिनों बाद अपना वजन नापने की उत्सुकता रहती है कि वजन कम हुआ या बढ़ा. इसी उत्सुकता को ध्यान में रखते हुए वहां एक वजन नापने की मशीन भी रखी जाने लगी. थोड़े दिनों बाद एक सीडी प्लयेर और दो स्पीकर लगाये गए जहाँ रोज सुबह भजन चलने लगे. अभी तक शोर शराबा पार्क के गेट तक सीमित था अब वह पार्क के अंदर भी पहुचने लगा. अगर आप सुबह शांति के साथ सैर करने के मकसद से आए हैं तो ये जगह आपके लिए उपयुक्त नहीं रही.

थोड़े दिनों बाद जूस वाली मेज़ के पीछे एक और मेज़  लगने लगी. इस मेज़ पर भगवान की तस्वीरें लग गईं. अब रोज सुबह  जूस  निकालने  के बाद पहले भगवान  की पूजा होती है, जूस के पहले कप का भगवान को भोग लगाया जाता है, जय श्री राम और जय शेरा वाली के नारों का उद्घोष होता है और उसके बाद जनता के लिए  निशुल्क सेवा शुरू होती है. नारा लगते समय वहां मौजूद जनता भी पीछे पीछे जय श्री राम के नारे लगाती  है और पूरा माहौल राममय हो जाता है. जूस के हर कप के साथ जूस देने वाला जय श्री राम बोलता है और जूस लेने वाला उसको दोहराता है.

25- 30 वर्ग फीट के साथ शुरू हुई इस सेवा का अब लगभग 100 वर्ग फीट पर कब्ज़ा है. कभी-कभी व्यवस्था बनाये रखने की खातिर इस जगह को रस्सियों से घेरा भी जाता है. पिछले दिनों किसी धार्मिक उत्सव के अवसर पर यहाँ भंडारे का आयोजन भी किया गया था. भंडारा बनाने के लिए पार्क के एक  हिस्से को घेरा गया था और भंडारा वितरण के लिए पार्क के बाहर पटरी के एक बड़े हिस्से को. मतलब के सार्वजनिक जगह पर यह सामूहिक कब्ज़ा ठीक उस तरह बढ़ता गया जैसे कि हनुमान जी कि मूर्ति स्थापना से लेकर मंदिर निर्माण तक होता है.

कोई भी प्रश्न पूछ सकता है कि अगर ये समूह सामाजिक कार्य के लिए सार्वजनिक जगह का उपयोग कर रहा है तो किसी को क्या ऐतराज. इस समूह का कोई भी व्यक्ति अपने निजी उपयोग और हित के लिए इस जगह का उपयोग नहीं कर रहा बल्कि इस  समूह के लोग अपनी जेब से पैसा लगा कर समाज को सेवा प्रदान कर रहे हैं.  इस जगह का उपयोग बस सार्वजनिक हित के लिए हो रहा है तो इस पर प्रश्न क्यों उठाया जा रहा है.

यहाँ मैं सामाजिक कार्य के चरित्र का थोड़ा विश्लेषण करना चाहूँगा. इस सामाजिक कार्य से पहले एक धर्म विशेष के तौर-तरीकों से पूजा होती है, नारे लगाये जाते हैं और जूस का हर कप लेने वाले को “जय श्री राम” या “जय माता दी” बोलना होता है. अगर आप उस नारे को नहीं दोहराते तो जूस देने वाला आपको आश्चर्यपूर्ण नज़रों से ताकता है कि आवाज नहीं आई अर्थात नारा जरा जोर से बोलो. एक जूस देने वाले ने मुझे टोका तो मैंने कहा कि मेरी किसी भी धर्म के प्रति आस्था नहीं है. उसने पलट के कोई जवाब तो नहीं दिया पर उस दिन के बाद मुझे कुछ ख़ास तरीके से देखा जाने लगा. वहां का माहौल  कुछ ऐसा है जिससे लगता है कि मैं वहां बिन बुलाए मेहमान की तरह हूँ. कुछ ऐसी ही नज़रों  से यहाँ रिक्शा या ठेला ढोने वालों को भी देखा जाता है .

यह सामाजिक कार्य जिस “समाज” को समर्पित है मैं उसका हिस्सा नहीं हूँ. मैं तो फिर भी जन्म से हिंदू हूँ. मेरा नाम, मेरे रहन सहन, पहनने ओढने के तरीके से ये कहीं भी जाहिर नहीं होता कि मैं हिंदू नहीं  हूँ. पर फिर भी मैं इस “समाज” का हिस्सा नहीं हूँ.  इस सामाजिक कार्य के माहौल मैं असहज महसूस करता हूँ. कल्पना कीजिये एक इन्सान जिसकी दाढ़ी है और सर पर टोपी हो तो वह इस माहौल में कैसा मह्सूस करेगा. कहने को पार्क एक सार्वजनिक स्थल है जहाँ बिना किसी भेदभाव के कोई भी आ जा सकता है पर सामाजिक कार्य के नाम पर किये जाने वाले इस तरह के आयोजन और सार्वजानिक जगहों पर इस तरह का सामूहिक कब्ज़ा एक समुदाय विशेष के बाहर के लोगों के लिए असहजता पैदा कर सकता है. इस तरह के कब्ज़े से उस समुदाय विशेष के बाहर के लोगों को ये जगह उतनी  सार्वजनिक नहीं लगेगी जहाँ वो सहजता से आ जा सकें. अगर सार्वजनिक जगहों पर भी आने-जाने में हिचक होने लगे तो उनकी सार्वजनिकता पर प्रश्न चिन्ह खड़े होते हैं. साथ ही ये भी जरूरी हो जाता है कि ये सवाल उठाया जाए कि सार्वजनिक स्थल पर इस तरह का सामूहिक कब्ज़ा कितना उचित है.

सार्वजनिक जगहों पर सामूहिक कब्ज़े का यह कोई इकलौता उदाहरण नहीं है. रोहिणी इलाके में ही एक और सार्वजनिक पार्क है जिसे जापानी पार्क के नाम से जाना जाता है. पिछले दिनों अख़बारों में यह खबर आई कि यह पार्क सुबह  11 बजे से शाम 5 बजे तक बंद रहेगा और इस बीच अगर किसी को इस पार्क में जाना हो तो उसे वहां की पुलिस चौकी से इजाज़त लेनी होगी. ये निर्णय दिल्ली विकास प्राधिकरण  ने उस इलाके की Resident Welfare Association के आग्रह पर लिया. RWAs की शिकायत थी कि दिन में यहाँ प्रेमी युगल आते हैं और इस सार्वजनिक पार्क का माहौल दूषित करते हैं. यह पार्क  प्रेमी  युगलों के स्वर्ग के लिए भी मशहूर था और वे यहाँ आकर समाज की नज़रों से दूर कुछ आत्मीय पल गुज़ारते थे. पर प्रेमी युगलों की यह आत्मीयता रोहिणी जैसे मध्यम वर्ग इलाके को बर्दाश्त  नहीं हैं, इससे उनकी नैतिकता को चुनौती मिलती है और उन्हें अपने बच्चों के बिगड़ने का डर है, इसीलिए उन्होंने प्रेमी युगलों पर अश्लीलता का आरोप लगा कर ये पार्क दिन में बंद करा दिया. इस कदम में उनका साथ दिया भारत की लोकतान्त्रिक सरकार के एक संस्थान ने जो समाज के हर वर्ग के अधिकारों की रक्षा का दावा करता है. आरडब्लूए में समाज के प्रभावशाली तबके के लोग हैं इसलिए “दिल्ली विकास प्राधिकरण” जैसी  सरकारी संस्था ने उसका साथ दिया.

गौरतलब है की जापानी पार्क जैसी  सार्वजनिक जगह पर जितना हक़ RWA का था उतना ही अधिकार उन प्रेमी युगलों का भी था जो इस पार्क में आते थे. पर इस घटना के बाद ये लगता है कि  इन “सार्वजनिक” पार्कों पर RWA जैसी सामूहिक संस्थाओं का हक़ ज्यादा है. इसलिए वह प्रेमी युगलों को खदेड़ने में कामयाब रहे.

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक राष्ट्र जो सबके अधिकारों को पूरा करने का दावा करता है कैसे  एक समुदाय के प्रभाव में आकर दूसरे वर्ग के अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है. यह सार्वजनिक स्थलों पर प्रभावशाली तबके के सामूहिक कब्ज़े का एक और उदहारण है. डीडीए का कहना है कि उसने ये कदम सार्वजानिक हित के मद्देनज़र उठाया है. अब प्रश्न ये उठता है कि डीडीए की सार्वजनिक शब्द की परिभाषा में कौन लोग आते हैं और कौन नहीं ?

सार्वजनिक जगहों पर सामूहिक कब्ज़े का तीसरा उदाहरण RWAs द्वारा गली मोहल्लों में अपनी सुरक्षा के नाम पर लगाये हुए विशालकाय गेट हैं. मामला सुरक्षा का है इसलिए एक दूसरी सरकारी संस्था “दिल्ली पुलिस” उनके साथ हैं. “दिल्ली पुलिस आपके लिए, आपके साथ, हमेशा”. इस कदम से उसकी जिम्मेदारी कुछ कम हो जाती है.ये सिलसिला दिल्ली के कुछ पोश इलाका से शुरू हुआ था और अब दिल्ली के हर इलाके की हर कॉलोनी तक पहुँच गया है. पहले सुरक्षा का ये उपाय रात तक सीमित था पर अब कई गलियां और सड़कें दिन भर बंद रहती हैं. कई मुख्य सड़कों पर ये पाबन्दी अभी भी रात तक ही सीमित है पर बंद होने के घंटे दिन-ब-दिन बढते जा रहे हैं. मेरे घर के नजदीक एक सड़क पहले रात को 12 बजे के बाद बंद होती थी. धीरे धीरे उसका समय 11 हुआ और अब वो 10:30 पर बंद हो जाती हैं. ये सार्वजनिक गलियां और सड़कें लोगों के आने जाने के लिए बनी हैं पर अब यहाँ एक समय के बाद लोगों के आने जाने पर पाबन्दी है और कुछ गलियां तो हमेशा के लिए बंद कर दी गयी हैं.

धीरे धीरे इन गलियों के बाहर साईन बोर्ड देखे जाने लगे. इन बोर्डों में लिखा होता है कि इतने बजे से इतने बजे तक ठेले वालों, कबाड़ी वालों, कुरिएर वालों और तमाम अन्य तरह की सेवा प्रदान करने वालों का प्रवेश वर्जित है. सबसे मजेदार बात ये है कि यह बोर्ड लाल और नीले रंगों से रंगे होते है और इन बोर्डों  पर लिखा होता है आदेशानुसार “दिल्ली पुलिस“. हर गली के बाहर चौकीदार बैठा दिए गए हैं और साथ ही एक और बोर्ड लगा है कि चौकीदार की बात मानें, उससे बहस ना करें, RWA के नियमों का पालन करें अन्यथा पुलिस के हवाले कर दिया जायेगा.

कहीं लिखा तो नहीं पर रेग पिकर्स और भिखारियों का प्रवेश यहाँ चौबीस घंटे प्रतिबंधित है. अगर कोई रेग पिकर भूले भटके यहाँ का रूख कर ले तो उसके साथ किसी चोर की तरह व्यवहार होता है. कोई भी ऐरागैरा उनसे पुलिसिया अंदाज़ में पूछताछ करता है और दो चार हाथ आजमा लेता है जैसे कि इस निषिद्ध क्षेत्र में प्रवेश कर के रेग पिकर्स किसी देश की संप्रभुता को ललकारा हो.

मतलब कि बिन ताजोतख्त की इन RWAs ने तुगलकी फरमान जारी कर दिया कि कुछ ख़ास तरह के लोग एक समय सीमा के दायरे में इस सार्वजनिक सड़क पर कदम रख सकते हैं और एक समय सीमा के बाद उनका प्रवेश वर्जित है और कुछ लोगो का प्रवेश तो पूर्णतया वर्जित. ये इत्तेफाक नहीं कि ये कुछ ख़ास किस्म के लोग एक ख़ास वर्ग से ताल्लुक रखते हैं. एक ख़ास समय में भी इनको प्रवेश की इजाजत इसलिए है क्योंकि ये लोग एक ख़ास तरह की सेवा प्रदान करते हैं जो इन घरों में रहने वाले लोगों की दिन-ब-दिन की जरूरतों के लिए जरूरी है. अगर एक दिन इन लोगों ने इन सेवाओं का विकल्प ढूंढ लिया तो इन सार्वजनिक गलियों में इनके प्रवेश पर भी पूर्ण प्रतिबन्ध लग सकता है.

कुछ ख़ास लोगों के प्रवेश निषेध के बोर्डों को देख कर मुझे उपनिवेश काल में विक्टोरिया शासन के उन फरमानों की याद आती हैं जहाँ लिखा होता था की इन ख़ास जगहों पर अश्वेत लोगों का आना मना है. समाज के एक वर्ग के निष्कासन की यह प्रवृत्ति सामंती समाज की उस प्रवृत्ति के भी समान है जहाँ एक जाति के लोगों का कुछ ख़ास जगहों पर प्रवेश वर्जित होता था. उपनिवेश काल को बीते कई दशक हो चुके और कहने को सामंती प्रथा भी अब इतिहास का हिस्सा बन चुकी है. दुनिया भर में अब लोकतंत्र स्थापित हो चुका है और दुनिया भर के संविधानों में धर्म, जाति, लिंग और वर्ग के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबन्ध है. पर समाज का एक वर्ग अपनी सुरक्षा के नाम पर समाज के दूसरे वर्ग को सार्वजनिक जगहों से निष्कासित करने के नये-नये तरीके खोजने में लगा है और उसमे संवैधानिक संस्थान उनकी मदद कर रहे हैं.

इन  RWAs का गठन इसलिए किया गया था की वे अपने मोहल्ले के रख-रखाव की भूमिका निभा सके .पर ये RWAs तो कोई और ही भूमिका निभा रहे हैं. सार्वजनिक जगहों पर सामूहिक कब्ज़े की भूमिका. असलियत में तो यह सामूहिक कब्ज़ा है ही नहीं. ये एक वर्ग विशेष का निजी कब्ज़ा है. सार्वजनिक जगहों पर सामूहिक या निजी कब्ज़े की यह संस्कृति पूर्णतः औपनिवैशिक और सामंती मूल्यों से लबरेज है और आधुनिक  समाज के तथाकथित लोकतान्त्रिक मूल्यों के खिलाफ है. कहने की जरूरत नहीं कि ये पूर्णतः असंवैधानिक है पर विडम्बना ये है कि इस असंवैधानिक काम में संविधान के पालन के लिए बनाई गई कार्यपालिका की महत्वपूर्ण इकाई पूरी तरह से शामिल है और बराबर की हिस्सेदार है.

सार्वजनिक  जगहों पर सामूहिक कब्ज़े की यह संस्कृति कहने भर को सार्वजनिक हित की बात करती है पर वास्तव में यह एक समुदाय विशेष की दूसरे समुदाय और वर्ग को सार्वजनिक स्थलों से बेदखल करने की राजनीति भर है.

8 thoughts on “सार्वजनिक जगहों पर सामूहिक कब्ज़े की संस्कृति : किशोर”

  1. I am a student and I live in delhi,though not a resident but whatever written above is surely true to core, It can only be understood by the middle class which is “middle” in the name only and is actually a “side” class in front of the authorities who encroach upon public spaces and render it useless for the “middle”.

    While they give baseless reasons to occupy certain places in the name of public service,the naive “public” which thinks its very smart(leaving a few) fall into the traps and unwillingly or due to the process of so called “herding”,follow these rules,and when “youth” try to raise voice(though they don’t,but again exceptions) they are told that they are “naive”,now who is naive and who is smart,its best known to “We,the people” and its only us who can really change all this,but then again—>biased media,biased views and this insect of “entertainment” makes us so occupied that we say to ourselves—->rehne de yaar,hum kya kar skte hain.

    This particular thinking,seems small,but will have repercussions in the coming times,from village level to international level it is this “public encroachment” that is silently gripping each and every phase/nation in the name of–>sanctions,development by renowned international institutions

    Very good article indeed

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  2. Very good article. I am a rare visitor to Delhi, but I am startled by the number of temples coming up everywhere, and I am sure they all began like the juice stand Kishore describes. And it seems that if you add the word ‘pracheen’ to the name of the temple, then it makes it even safer to take over the land for ever!

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  3. It is quite ironical that the more barriers we put up in our colonies in the name of safety, the greater the increase in petty crimes like chain snatching and car thefts. I totally believe that the Government–be it the police or the munipality–will do nothing to stop community organisations from gaining a false sense of security by encroaching on public spaces. It is a balm that they are offering the dominant community (which has the loudest voice) for its inefficiencies. Maybe, it is only the courts that could help. But then, the big question is who has the time, resource and guts to approach the courts, and that too against the RWAs that pretend that they have the average resident’s welfare in mind. It is a sad scene indeed.

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  4. सर्वप्रथम, यह लेख पढ़कर बेहद खुशी हुई और आप बधाई के पात्र हैं जिसने रोहिणी इलाके के भीतर सामाजिक गतिविधियों के द्वारा सार्वजनिक जीवन की जाटिलताओं को उभारा है। आपने स्वास्थ्य और आनंद के सरोकारों से जुड़ी गतिविधियों की प्रभावी तस्वीर पेश की। इन गतिविधियों का संकीर्ण धर्मिक हितों में परिवर्तन सचमुच चिंता का विषय है। यह लेख निश्चित तौर पर सामाजिक गतिविधियों के स्वरूप और सार्वजनिक जीवन के पक्षों पर चर्चा को आधार प्रदान करे ऐसी मेरी अपेक्षा है।
    पहला प्रश्न यही उठता है कि क्यों और किस तरह स्वास्थ्य, मनोरंजन और आनंद के दायरों पर धर्मिक प्रतीक हावी हो जाते हैं? क्यों हम इन दायरों को संकीर्ण धर्मिक हितों के हाथों में जाने देते हैं?
    मेरे ख़्याल से इसका बड़ा कारण हम धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील कहलाने वाले समूहों की कमज़ोरी है कि हम इन स्वास्थ्य, मंनोरंजन और आनंद के दायरों से जुड़ने का प्रयास नहीं करते। हमारी ऐसे दायरों से अनुपस्थिति ही अन्य ताकतों को सहजता से शिरकत करने में मदद पहुंचाती है। रोहिणी के इलाके में जब लोग टहलने और स्वास्थ्य जैसे सरोकारों से जुड़ रहे थे तब क्यों नहीं वहाँ एक नाटक मंडली बन पाती या क्यों नहीं संगीत मंडली उभरती जो तरक्की पसंद गीतों और नाटकों को करे। धर्मिक संकीर्णता की राजनिति तभी पनपती है जब हम उसके लिए दायरे खुले छोड़ देते हैं।

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  5. very true and well articulated article. i want to read from your pen concerning some other social and political problems.

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  6. Narendra Dabholkar died yesterday. This article highlights what he was fighting against. The true homage to his sacrifice will be that we fight against all these things.
    Kistwar incident is fresh in mind. Village Defence Committee (VDC), Salwa Judum and RWAs have same mentalities. In fact there is haves and have-nots friction and as always haves live like kings in their dens.

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  7. मैं किशोर से पूरी तरह से सहमत हूँ । ‘दिलवालों की दिल्ली’ सिमट सिकुड़ कर ‘संकीर्ण मानसिकता की दिल्ली’ रह गयी है। हम लोग अपने आपको सुरक्षा के नाम पर अपनी ही बनाई हुई क़ैद में बंद करते जा रहे हैं। परंतु विडम्बना यह है कि इतना करने के बावजूद भी असुरक्षा की भावना कम होने की बजाए बड़ती ही जा रही है और लोगों को एक दूसरे से दूर करती जा रही है।

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  8. IIT Kanpur is also a similar place where u can find same stories. there are parks but not for playing. if u go inside they will ask ur all details. there is a village next to IIT and for security guards, kids of that village are like suspicious thieves. some years ago, one day we were playing cricket in a ground of IIT known as ‘Ramlila ground’ and security persons told us to leave that place because playing there was not allowed. we all protested and went to meet security official with our parents because it was our childhood ground. finally they agreed. but its not about one day or one incident its about biased behavior of security for a certain class which is clearly visible in such institutions and places.

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