उस किशोर का नाम एतज़ाज हस्सन बंगश था, जिसे आज की तारीख में एक नए नायक का दर्जा दिया गया है, जिसने अपनी शहादत से हजारों सहपाठी छात्रों की जान बचायी। तालिबानी ताकतों के प्रभुत्ववाले पाकिस्तान के खैबर पख्तुनवा सूबे के शिया बहुल इलाके के एक इब्राहिमजई स्कूल का विद्यार्थी एतज़ाज उस दिन सुबह अपने चचेरे भाई मुसादिक अली बंगश के साथ स्कूल जा रहा था जब रास्ते में मिले एक शख्स को देख कर उनके मन में सन्देह प्रगट हुआ। उन्हीं के स्कूल यूनिफार्म पहना वह युवक उनके ही स्कूल का रास्ता पूछ रहा था। बाकी बच्चे तो वहां से भाग निकले, मगर कुछ अनहोनी देख कर एतज़ाज ने उसे ललकारा, इस हड़बड़ी में उस आत्मघाती बाम्बर ने बम विस्फोट किया। दोनों की वही ठौर मौत हुई और दो लोग घायल हुए। मालूम हो कि उस दिन सुबह की स्कूल असेम्ब्ली के लिए लगभग दो हजार छात्र एकत्रित थे। इस आतंकी हमले के लिए लश्कर ए झंगवी नामक आतंकी संगठन ने जिम्मेदारी ली है।
अपने बेटे की मृत्यु पर उसके पिताजी मुजाहिद अली का कहना था कि यह सही है कि मेरे बेटे ने उसकी मां को रूला दिया, मगर उसने सैकड़ों उन माताओं को अपनी सन्तानों के लिए रोने से बचाया और उसके लिए उसकी मृत्यु का शोक नहीं बल्कि उसकी जिन्दगी को हमें मनाना (celebrate) चाहिए।
एतज़ाज की इस कुर्बानी ने जहां एक तरफ इसी इलाके की रहनेवाली छात्रा मलाला यूसूफजई का लड़कियों की शिक्षा के लिए चलाए संघर्ष और उसके चलते तालिबानियों द्वारा उस पर किए गए हमले की याद ताजा की है, वहीं दूसरी तरफ उसने पाकिस्तान के इस इलाके में असहमति रखनेवाले लोगों, कलाकारों को झेलनी पड़ती हिंसा को भी नए सिरेसे उजागर किया है।
अभी पिछले साल की बात है पश्तो भाषा की उभरती हुई मलिका ए तरन्नुम गज़ाला जावेद – जो बहुत कम उम्र में ही अपने गायन से शोहरत की बुलन्दियों पर पहुंची थीं, उसकी पेशावर की सड़कों पर हत्या कर दी गयी थी, मरते दम जिनकी उम्र महज 24 साल थी। गज़ाला, अर्थात मृगनयनी, जो प्रेम के गीत गाती थी, अपने समाज एवं संस्कृति के गीत गाती थी। पश्तो के उसकेे गीत न केवल पाकिस्तान में बल्कि अफगाणिस्तान में भी बहुत लोकप्रिय थे। निजी जिन्दगी में भी वह विद्रोहिणी थी, जिसने परम्पराओं के बोझ तले दबे पितृसत्तात्मक समाज में अपने पति से अलग होने का खुद फैसला किया था। पाकिस्तान की स्वात घाटी की रहनेवाली गज़ाला, जहां पर इन दिनों तालिबानियों की तूती बोलती है, जिन्होंने संगीत, नृत्य आदि कोे ‘गैरइस्लामिक’ घोषित किया है जिनकी वजह से गज़ाला को तीन साल पहले वहां से भागना पड़ा था। उनकी जान को जिस तरह का ख़तरा था, जिसकी वजह से उन्हें अपनी रेकार्डिंग भी दुबई में करनी पड़ती थी।
लोग बता सकते हैं कि विभिन्न कलाकारों के दमन का यह सिलसिला पाकिस्तान के खैबर पख्तुनवा के इस इलाके में लगभग दस साल पहले शुरू हुआ था जब यहां ‘मुत्ताहिदा मजलिस ए अमल’ नामसे अतिदक्षिणपंथी इस्लामिक पार्टियांे का गठबन्धन सत्ता में आया था, जिन्होंने संगीत, नृत्य के सार्वजनिक प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी। यह इस्लाम की एक खास किस्म की व्याख्या थी, जिस पर सौदी अरब में पेट्रोडॉलर के सहारे फल फूल रहे वहाबी इस्लाम की साफ छाया नज़र आ रही थी। ऐसा माहौल था कि कुछ कलाकारों ने अपनी कैरियर से ही तौबा की और खामोश हो गए या कुछ ने वही गाना कूबूल किया जिसकी तालिबानियों ने इजाजत’ दी थी।
पाकिस्तान, जिसे एक ‘असफल राष्ट्र’ कह कर बहस से भी बाहर कर देने की रवायत हमारे यहां मौजूद हैं, वहां किसी एतज़ाज़ की शहादत या किसी गज़ाला के अपनी जान जोखिम में डाल कर गाने को क्या नाम दिया जा सकता है ? दीवानगी ! जूनून !! या कुछ अन्य !!! इसमें कोई दोराय नहीं कि पाकिस्तान के मौजूदा सियासी समाजी हालात ऐसे हैं कि एक वक्त़ के उसके अमेरिकी आंकाओं से लेकर तमाम अन्य निःष्पक्ष विश्लेषक भी सैनिक जनरलों द्वारा वहां अंजाम दिए गए तख्तापलट, इस्लामिक ताकतों के वहां बढ़ते बोलबाले और सहिष्णुता की आवाज़ों के लगातार मद्धिम होते जाने जैसी घटनाओं से एक खास किस्म का निष्कर्ष निकालते हैं।
मगर पाकिस्तान में एक के बाद एक नज़र आ रही ऐसी मौतों का क्या किसी अलग ढंग से विश्लेषण किया जा सकता है ? अपने आलेख ‘पाकिस्तान्स एनलाइटनमेन्ट मार्टायर्स’ अर्थात पाकिस्तान के प्रबोधन शहीद में कुछ समय पहले वहां की नामी पत्रकार बीना सरवर ने पाकिस्तान के उन तमाम प्रगतिशील बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं को श्रद्वांजलि अर्पित की थी जो सुरक्षा बलों या तालिबानियों के हाथों मारे गए थे। आई एस आई के हाथों मारे गए खोजी पत्रकार सलीम शहजाद की असामयिक मौत और उसके चन्द दिनों बाद क्वेट्टा में प्रोफेसर सबा दश्तियारी की हत्या के बाद लिखे उपरोक्त आलेख में उन्होंने पाकिस्तानी समाज में ‘प्रबोधन’ के मूल्यों के लिए संघर्षरत रहे कइयों का जिक्र किया था। पंजाब के गवर्नर रहे सलमान तासीर की मौत के दो माह बाद मारे गए शाहबाज बट्टी या बलुचिस्तान में हयूमन राइटस कमीशन आफ पाकिस्तान के समन्वयक नईम साबिर, बलुचिस्तान विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नाजिमा तालिब, भूमाफिया के खिलाफ संघर्षरत निसार बलोच, हाजी गनी और अबु बकर जैसे मछुआरे जिन्होंने किनारे बने मैंग्रूव के पेड़ों को की तबाही की सरकारी कोशिशों को पुरजोर विरोध किया था। उन्होंने उन तमाम पत्रकारों भी का जिक्र किया था जो उस साल मारे गए थे।
निश्चित ही ये तमाम बेशकीमती लोग, जिन्हें इस बात का जरूर अन्दाज़ा रहता होगा कि अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का मतलब क्या होगा, अगर ‘असफल’ कहे जा रहे पड़ोसी मुल्क में आजभी सामने आ रहे हैं, इसका मतलब यही कि कहीं न कहीं अवाम के बीच वह धारा -अलबत्ता मद्धिम ही सही – मौजूद है, जो कटटरपंथ के खिलाफ सहिष्णुता, बहिष्करण के खिलाफ समावेश, बीते ‘स्वर्णिम युग’ की ओर लौटने के बजाय प्रगतिउन्मुखता की हिमायती हैं।
मसलन कितने लोग इस बात से वाकीफ हैं कि पाकिस्तान में ‘पाकिस्तान अथेइस्ट एण्ड अगनॉस्टिक्स’ (पीएए) अर्थात पाकिस्तान के नास्तिक एवम अज्ञेयवादी नामक एक समूह की स्थापना हुई है, जिनकी तादाद धीरे धीरे बढ़ रही है। पिछले साल 14 अगस्त को ही उन्होंने अपनी वेबसाइट डब्लूडब्लूडब्लू डाट ई पीएएडाट आर्ग शुरू की, जो तुरन्त लोकप्रिय हुई। वेबसाइट के लांच होने के 48 घण्टे के अन्दर ही 95 देशों के 17,000 से अधिक लोगों ने उसे हिट किया, जिनमें सउदी अरब भी शामिल था। वे इस बात को जानते हैं कि वे ऐसे मुल्क में सक्रिय हैं जहां ईशनिन्दा का मतलब जान का जोखिम – भले ही सरकारी अदालतें आप को बख्श दें, मगर अतिवादी समूह आप को जरूर मार सकते हैं, इसके बावजूद उन्होंने समविचारी लोगों तक पहुंचने और सबसे महत्वपूर्ण, जनता को बताने का रास्ता चुना है। उनका अनुभव है कि पाकिस्तान में कुछ लोग धर्म के नाम पर जारी इस हिंसा से क्षुब्ध होकर धर्म पर सवाल उठाने को तैयार हो रहे हैं।
प्रोफेसर सबा दश्तियारी के बारे में बीना सरवर ने लिखा था कि वह महज मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ आवाज़ बुलन्द नहीं कर रहे थे, मगर इससे भी ‘खतरनाक बातों’ को अंजाम दे रहे थे। वह युवा मनों को प्रगतिशील विचारों से परिचित करा रहे थे। लियारी की झुग्गियों में अपनी बुनियादी तालीम हासिल करनेवाले प्रोफेसर सबा एक तरह से बेहद नियंत्रित विश्वविद्यालय की चहारदीवारी में एक किस्म के खुले विश्वविद्यालय का संचालन कर रहे थे।
(‘नवभारत टाईम्स’ में प्रकाशित लेख का अविकल रूप)
ईश्वर ‘तू’ रास्ता भटक गया
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ईश्वर ‘तू’ रास्ता भटक गया
बचा सके तो बचा ले
ख़ुद को
‘इन’इंसानों से
‘तू’ तो अब ‘तू’ न रहा
बदल चुका
धर्मस्थलों में अंदर बाहर
हर कहीं
विचारों में / आत्मा में
ग्रंथो की व्याख्या
न मेल खाती तुझसे / तेरी भावना से
तेरे नाम पर स्वाँग ढोंग
दांव पर साख
कहाँ अब राम कृष्ण ईसा
सपने में भी आते तेरे फ़िल्मी किरदार
पोस्टर / पुतले
नानक अब विचार नहीं
न क्रांति / न सुधार
केवल कर्मकांड
फोटू
‘सो किओ मंदा आखिए जितु जंमहि राजान’*
‘मानस की जात सभे एकै पहिचानबो’*
बस पढ़ने की बाणी
तेरे से स्पर्धा तेरी ‘तू’ ही रहा हार
कोई सौ साल पहले था भक्त सांई बाबा
फक्कड़ फ़क़ीर
उसे बना दिया अरबपति अमीर
लादा सोने से
हो गया भगवान
मूर्ति में जड़ कर विचार से मुक्त किया
अवैध दीवार जो गिरती है गांव में
सारे मुल्क में हंगामा
‘तूने’ तो हर जगह अतिक्रमण किया
सड़क / पार्क पर धर्म का ढाबा
‘तू’ तो वैध है
आराधना स्थल अवैध क्यों
क्या मर्ज़ी से हुआ
तुझे तोड़ मरोड़ दिया
बाबाओं ने कहाँ से कहाँ जोड़ दिया
खुदा बन अपने बुत तराश लिये
पंच सितारा धर्म दुकानें / आश्रम
पलायन परोसते पुरोगामी धर्म चेनल
तेरा नाम अपना प्रचार गुणगान
‘तू’शोर हुआ
मौन संवाद साधना से हटा
लाउडस्पीकर बन धर्मों पर टंगा
अंर्तमन के सूफ़ी रिश्ते आतंकी जुलूस हुए
‘निराकार’ विकृत होकर निर्लज्ज विकार हुआ
ईश्वर जो’तू’अब न सँभला मिट जायेगा
‘बिग धर्म बाज़ार’ की दुकानें
शोकेस में ‘तू’ होगा चाँदी काटते मेनेजर
*(महिलाओं को बुरा क्यों कहते हो-उन्होंने ही राजाओं को जन्म दिया है-गुरूनानक.
मानवकी प्रजाति ही उसकी जाति और पहचान है और सब एक हैं-गुरू गोविंद सिंह)
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