बिहार के जनादेश को लालू प्रसाद का पहला तमाचा

दो वर्ष पहले लालू प्रसाद के दल के एक नेता ने पटना से दिल्ली की एक रेल यात्रा के दौरान मुझे बताया था कि लालू प्रसाद के पारिवारिक समीकरण के जाल में कैसे उनका दल फँस गया है.पुत्रों में किसका महत्त्व होगा,पुत्री उपेक्षित तो नहीं होगी,लालू प्रसाद के लिए इन झगड़ों को सुलझाना एक बड़ा सरदर्द है.

उस वक्त उन्होंने बताया था कि लालू प्रसाद के बड़े बेटे के प्रति माँ की ममता के दबाव से लड़ना लालूजी के लिए उतना ही कठिन साबित होगा जितना अपनी पहली पारी में पत्नी के भाइयों की   आपराधिक दबंगई से निबटना था.उन दोनों को ही खुली छूट मिल गई और बिहार एक भयानक अराजकता में फँस गया. उन सालों में न जाने कितनी बार ‘मृच्छकटिक’ के पात्र शकार के उस संवाद का ध्यान हो आया, “तू जानता नहीं, मैं राजो को सालो हूँ.”

लालू प्रसाद की गिरफ्तारी की संभावना की खबर मिलते ही एक वरिष्ठ खुफिया अधिकारी ने बताया था कि लालू इस शर्त पर शांतिपूर्ण गिरफ्तारी को तैयार हुए हैं कि उनकी पत्नी को उनेक बाद मुख्यमंत्री बनने दिया जाएगा.इस खबर के कुछ घंटे बाद ही राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

राष्ट्रीय जनता दल में इसे लेकर एक तरह की लाचारी थी. लालू को छोड़कर कोई और नेता न था जिसके पास एक स्थायी सामाजिक आधार हो,इसलिए सभी उनसे चिपके रहने को मजबूर थे. इस स्थायी सामाजिक आधार की मजबूती के साथ लालू अन्य सामाजिक समूहों से राजनीतिक शक्ति में भागीदारी के लिए मोलतोल कर सकते थे, यानी यह एक तरह का चुम्बक था जो अन्य शक्तियों को अपनी ओर खींच सकता था.बाकी किसी नेता के पास ऐसा कोई चुंबक न था.

ऐसा न था कि लालू की पहली पारी में उन्हें यह मौक़ा न मिला कि वे जन्म के आधार पर मिली अपनी जाति के दायरे से बाहर आकर एक व्यापक सामाजिक आधार बनाएं. वामपंथी ताकतों के कमजोर होने के कारण यह संभावना बन गई थी कि लालू प्रसाद एक नया सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग करें जो जाति आधारित वर्चस्व की भाषा से आगे बढ़ पाए.उन्हें लेकर समाज के हर हल्के में एक प्रकार की उत्सुकता थी लेकिन लालू ने जल्दी ही अपनी जाति की सुरक्षा के खोल को ओढ़ लेना ही श्रेयस्कर समझा.

लालू प्रसाद के पक्ष में तर्क दिया जा सकता है उच्च जातियों की उनके प्रति घृणा उन्हें किसी भी कीमत पर बर्दाश्त करने को तैयार न थी. 1995 के चुनाव में यह नफरत बहुत प्रकट थी.लेकिन एक नए राजनेता के रूप में लालू के सामने यही तो चुनौती थी कि वे इस घृणा का मुकाबला करते हुए एक नई जनतांत्रिक राजनीति की भाषा विकसित करते. यह करने कि जगह लालू प्रसाद ने जाति के सुरक्षित सहारे टिके रहना पसंद किया.

लालू प्रसाद ने जातीय आधार बनाए रखने के लिए अपनी जाति के छुटभैय्ये नेताओं और दबंगों को राजनीतिक शक्ति का हिस्सा देने का आश्वासन दिया.इन सबने मिलकर बिहार में नई राजनीति की संभावना को स्थगित कर दिया.

राबड़ी देवी को अपनी जगह मुख्यमंत्री बनाने के निर्णय ने भी एक नई संभावना को अवरुद्ध कर दिया.उनकी असुरक्षा और अपने दल के अन्य नेताओं पर भरोसे की कमी इस निर्णय का आधार थी.यह भी कहा जाता है कि यदि उन्होंने अपने परिवार से अलग किसी और को कमान दी तो शायद उनका जातिगत आधार खिसक जाएगा. इसका अर्थ यह है कि वे अपनी राजनीतिक शक्ति सिर्फ अपने परिवार को स्थानांतरित कर सकते हैं. यही वजह बताई जाती रही है कि अब्दुल बारी सिद्दीकी या रघुवंश प्रसाद जैसे नेताओं को अपनी अनुपस्थिति में दल का जिम्मा देने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाए. या यह भय भी रहा होगा कि एकबार नियंत्रण छूटा तो दल भी हाथ से निकल जाएगा.

2015 में मौक़ा था कि लालू प्रसाद नई शुरुआत कर सकें.लेकिन उन्हें मिले व्यापक जन समर्थन की जो व्याख्या उन्होंने की वह दुखद है. इस लिहाज से बिहार की नई राजनीतिक पारी की शुरुआत निराशाजनक ही नहीं चिंताजनक भी है.लालू प्रसाद का परिवार उनकी राजनीति पर हावी है जो बिहार की राजनीति के लिए  शुभ सन्देश नहीं है.उपमुख्यमंत्री का पद प्रतीकात्मक होता है,कहकर लालू प्रसाद के छोटे बेटे तेजस्वी यादव के इस पद पर आसीन हो जाने की गंभीरता को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता.उसी तरह उनके बड़े बेटे को मंत्रिमंडल में शामिल करना ही गलत है,सड़क और भवन निर्माण मंत्रालय जैसे मंत्रालय के जिम्मे की तो बात ही क्या करें!

लालू प्रसाद के संप्रदायवाद-विरोध की दृढ़ता के चलते इस परिवार-मोह को छूट नहीं दी जा सकती.कहा जा सकता है कि उनके पुत्रों को मात्र उनका पुत्र होने के कारण घाटा नहीं होना चाहिए और जो राजनीति श्रम उन्होंने किया है,उसका फल तो उन्हें मिलना ही चाहिए.यह शर्त भी दोनों पूरी नहीं करते.

राहुल गाँधी ने कॉंग्रेसी नेताओं की चापलूस पुकार को अनसुना करते हुए जब मनमोहन सिंह की सरकार में शामिल होने से इनकार किया था, तो उस निर्णय का आशय बहुत स्पष्ट था:अभी उन्होंने इसके लिए आवश्यक पर्याप्त राजनीतिक अनुभव और अधिकार अर्जित नहीं किया है.सवाल पहली बार विधायक या सांसद बनने का नहीं, राजनीति में पर्याप्त निवेश का है.

लालू प्रसाद के निर्णय से जुड़ा हुआ प्रश्न है राजनीतिक दलों के जनतंत्रीकरण का.जो व्यापक समाज और राजनीति में जनतंत्रीकरण करना चाहते हैं, वे स्वयं एक प्रकार के सामंतवादी घेरे में कैद हैं.लालू प्रसाद ने इस बार जो फैसला किया है उससे पता चलता है कि वे पहले से कमजोर हुए हैं.परिवार पहली पारी की तरह ही उनपर सवार है.वे असुरक्षित भी हैं.उनके पुत्रों ने तो खैर!किसी संयम का परिचय देना ज़रूरी भी नहीं समझा है.संयम वैसे भी आजकल की बीमारी नहीं है.लालू प्रसाद की ओर से चुनाव नतीजे के बाद का पहला संकेत जनादेश की भावना और उम्मीद के खिलाफ है .

(सत्याग्रह  में 22 नवम्बर,2015 को प्रकाशित लेख का संपादित रूप)

 

 

2 thoughts on “बिहार के जनादेश को लालू प्रसाद का पहला तमाचा”

  1. Nitish and Lallu arr dependent on each other’s compulsions…(‘majboori haalaat eidher bhi hai udhar bhi..’). This compulsion created opportunity to come to power. They should make the best of the situation. For, ‘kabhi kisey ko mukammal jahaan nahi miltaa / kahi zameen toe kahi aasmaan nahi miltaa…’
    ( At anytime one cannot get a perfect world / if one finds earth, one cannot get the sky — free translation…)
    NIDA FAZLI

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  2. कुछ चिंतन जो पहले होना चाहिए वो बाद में होता है! यहाँ तो गणित सिर्फ ये रहता है कि कैसे राईट विंग को सत्ता से बाहर रखा जाए चाहे इसके लिए गधे को खाल शेर की खाल पहना के सता के शीर्ष पर बिठा दो..अब जब बिठा ही दिया है तो ये जनतंत्रीकरण जैसे चीजों की चिंता करना बेहूदगी है, सिर्फ लफ्फाजी है. इन दलों का और मक्कार वाम दलों की मंशा तो पूरी हुई. अब इस बात का विधवा विलाप क्यों कि ऐसे गधे ( अच्छी भाषा में अवसरवादी ) सत्ता के शीर्ष पर पहुचकर क्या नौटंकी करते है???? जो हो रहा है उसे जनादेश समझकर माथे से लगा ले!!

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