अर्धेंदु भूषण बर्धन,या सिर्फ कामरेड बर्धन को आखिर कैसे याद किया जाए? पिछले साल उन्होंने नब्बे पार किया था.यह एक भरा-पूरा जीवन था और आख़िरी मिनट में शायद उन्हें इसका पछतावा न रहा हो कि ज़िंदगी का कोई रंग उनके देखे से रह गया.क्या उन्हें इसका अफ़सोस रह गया होगा कि वे भारत में साम्यवाद कायम होते न देख पाए! उन जैसा प्रखर व्यावहारिक बुद्धि का मालिक ऐसे किसी भ्रम में अब हो, मानना मुश्किल है. वे सतत क्रांतिकारी स्वप्नवाले कम्युनिस्ट आन्दोलन के दौर से आगे बढ़ते हुए चिर जनतांत्रिकता के पैरोकार बन गए थे.अगर उन्हें एक संसदीय जनतांत्रिक राजनीति का आदर्श राजनेता कहा जाए तो गलत न होगा.
कामरेडों ने बताया कि हाल में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद नितिन गडकरी के मंत्री बनने के बाद वे बर्धन का आशीर्वाद लेने अजय भवन आए. इससे कई कामरेडों को ऐतराज था,लेकिन इससे सिर्फ यह जान पड़ता है कि जैसी स्वीकृति बर्धन को धुर विरोधियों के बीच थी, वह किसी भी राजनेता के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकती थी.इसके नतीजे हमेशा ठीक निकले हों, ऐसा नहीं.मसलन, जब दस साल पहले उन्होंने प्रतिभा पाटील का नाम राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावित किया और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के बीच इस पद के लिए उपयुक्त नाम पर बने गतिरोध को तोड़ने के साथ साथ पहली महिला राष्ट्रपति बनवाने का श्रेय अर्जित किया तो बाद में राष्ट्रपति भवन ने उस गरिमा की कितनी रक्षा की, इसे लेकर कई सवाल हैं.
बर्धन की कई यादें हैं.पहली 1986 की जब हैदराबाद में हम भारतीय जननाट्य मंच के पुनर्गठन के बाद उसके पहले राष्ट्रीय अधिवेशन में शरीक हुए थे. बर्धन वहाँ मौजूद थे. पटना से गए हम नौजवानों ने संगठन के आधिकारिक घोषणापत्र के खिलाफ मोर्चेबंदी की और उसे सम्मेलन से नामंजूर करवा दिया. कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े लोगों को पता कि यह कितनी हिमाकत की बात है.लेकिन बर्धन ने,जो जाहिर है पार्टी की ओर से सम्मलेन की निगरानी कर रहे थे,हम नौजवानों का हौसला बढ़ाया और नए घोषणापत्र की समिति में ए के हंगल के साथ हम दो युवकों को रखवाया. पार्टी के सदस्यों के उनके अनुभव इस उदारता के लेकिन इतने नहीं हैं.
मैं जब पार्टी के एक नेता ने कह रहा था कि श्रीपाद अमृत डांगे का लेखन पार्टी को प्रकाशित करना चाहिए तो उन्होंने एक वाकए का जिक्र किया जो बर्धन से जुड़ा था.अजय भवन की किताब की दूकान पर डांगे की एक छोटी-सी किताब रखी थी बर्धन ने किताबें उलटे-पुलटते उसे देखा,उठाया और बड़ी हिकारत से यह कहते हुए पटक दिया कि ऐसी चीज़ें अभी भी यहाँ पाई जाती हैं.
बिनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद हम सब उनके पक्ष में अभियान चला रहे थे लकिन कहीं कोई सुनवाई न थी. इस मसले को उठाने के लिए दिल्ली में पहली बड़ी सभा तय हुई तो इस पर विचार शुरू हुआ कि आखिर कौन राजनेता बुलाया जाए जो प्रभावी हो सके. बिनायक पर माओवादी होने का जो आरोप था, वह गैरमाओवादी वामपंथियों में उनके प्रति आशंका के लिए पर्याप्त था.इस वजह से हम सी पी एम के पास नहीं जा सकते थे .लेकिन हम बिला झिझक बर्धन के पास गए. उन्होंने जरा तंजिया अंदाज में कहा कि क्या हमें मालूम है कि छत्तीसगढ़ में उनकी पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ता जलों में महीनों से बंद हैं. क्या वे हम जैसे मानवाधिकार के पैरोकारों के लिए ध्यान देने लायक नहीं! लकिन फिर उन्होंने कंधे पर हाथ रखकर आश्वस्त किया कि भले हम ऐसा करने में चूक गए हों, वे ज़रूर आएँगे. बर्धन न सिर्फ वहां आए, बल्किन उस सभा में बिनायक सेन की रिहाई के लिए ज़ोरदार तर्क पेश किए.
नंदीग्राम में ग्रामीणों पर जुल्म के बाद मैं और ‘मेनस्ट्रीम’ के संपादक सुमित चक्रवर्ती बर्धन से मिलने गए. वाम मोर्चे के नेता सी पी एम की ज्यादतियों के खिलाफ हम चाहते थे कि वे बोलें.बर्धन तकरीबन दो घंटे हमसे बात करते रहे.कहा कि तुम जो कह रहे हो, उससे मैं दो सौ प्रतिशत सहमत हूँ, लकिन वाम मोर्चे को नुकसां पहुंचानेवाला कोई सार्वजनिक वक्तव्य नहीं दे पाऊँगा.हमने कहा कि आप ऐसा न करके उसका अधिक नुकसान करेंगे.वे मुस्कराए और सर हिला दिया.फिर अपनापे से सुमित चक्रवर्ती के कंधे पर हाथ रख कर कहा कि आप अभी भी हमारे दोस्त तो हैं! क्षुब्ध सुमित ने कहा, “नहीं! नंदीग्राम के बाद नहीं!” बर्धन हँसते रहे और हमें छोड़ने नीचे तक आए.
2004 में भारतीय जनता पार्टी नीत गठबंधन की पराजय से उत्साहित हम जैसे पूर्व पार्टी सदस्य और समर्थक इस अनुरोध के साथ कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी सरकार में शामिल हो, सी पी एम के दफ्तर के बाहर जमा हुए. पार्टी की केन्द्रीय समिति की बैठक होने को थी.सारे मार्क्सवादी नेता नाक की सीध में देखते हुए, हमें नाकुछबन्दा मानकर गेट के भीतर जाते रहे. यह याद रह गया है कि उनमें से सिर्फ ज्योति बसु हमें देखकर रुके और हमारे अनुरोध पर अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ, जो उनके सख्त चेहरे से ज़रा असंगत थी,कहा कि आपको तो मालूम ही है, हमारी पार्टी में जनतांत्रिक ढंग से फैसला होता है!
इससे ठीक उलट बर्ताव दस संसद सदस्योंवाली सी पी आई के नेता बर्धन ने हमारे साथ किया.जब हमने किंचित विनोद करते हुए कहा कि भले ही कम ताकतवर हों, बड़े भाई तो आप ही हैं, बर्धन ने कहा कि उन्हें खुद को लेकर कोई खुशफहमी नहीं. क्या उस सरकार की हमें याद नहीं जिसमें सी पी आई के इन्द्रजीत गुप्ता गृह मंत्री थे! सरकार तो दाढ़ीवाला ही चला रहा था-इशारा हरकिशन सिंह सुरजीत की और था. इस विनम्र स्वीकृति के पीछे सी पी एम के प्रभुत्व को किसी भी तरह चुनौती न देने का संकल्प भी था.
बर्धन को वाम एकता का बड़ा पैरोकार माना जा रहा है.लेकिन पार्टी के भीतर उन्हें पार्टी को विलोप की ढलान पर लुढकाने के लिए जिम्मेवार माना जाता रहा है.वे उस दौर में पार्टी के नेता हुए जब दुनिया में साम्यवाद की आलमी बुनियाद खिसक चुकी थी.भारत में सामाजिक न्याय की अस्मिता आधारित राजनीति प्रभावकारी हो चुकी थी.जो सामाजिक मुद्दे कम्युनिस्ट पार्टियों के थे, उन्हें लेकर नए किस्म के सामाजिक आंदोलन अधिक सक्रिय हो चुके थे.बर्धन ने कम्युनिस्ट आन्दोलन के उत्साहपूर्ण दौर में उसमें प्रवेश किया लेकिन उसके शीर्ष पर जब पहुँचे तो वह लगभग दिशाहारा हो चुका था. बर्धन प्रभावशाली वक्ता तो थे लेकिन मौलिक विचारक या सिद्धांतकार न थे.उनमें जनतांत्रिक खुलापन तो था पर जोखिम उठाने तक वे नहीं जा सकते थे. नए अवसर वे पैदा तो नहीं कर सकते थे, नए मौके पहचानने में भी उन्हें देर होती रही. बाद में वे उपलब्ध संसदीय विकल्पों के साथ तालमेल बैठकर पार्टी की प्रासंगिकता की तलाश में भटकते रहे.इस चक्कर में कभी लालू यादव , कभी नवीन पटनायक , कभी करुणानिधि और कभी जयललिता और कभी अखिलेश यादव में वे भारतीय जनतन्त्र का भविष्य देखते रहे. क्या यह सिर्फ उनकी सीमा थी? जो हो, वे इससे पार जा न पाए.
बर्धन की मृत्यु के साथ ही साम्यवादी आन्दोलन की यादों का एक बड़ा स्रोत भी चला गया. उनसे मेरी एक ही शिकायत रह गई कि उन्होंने आत्मकथा नहीं लिखी.
पहली बार कैच हिंदी में रविवार 3 जनवरी को प्रकाशित.
Comrade A. B. Bardhan! You will be relevant forever. …
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