अतिथि लेखक: महताब आलम
प्रिय बेला,
आपका ख़त (http://hindi.catchnews.com/india/i-will-not-leave-bastar-at-any-cost-1458658368.html)पढ़ा. पढ़कर बहुत ख़ुशी हुई और हिम्मत भी मिली। ख़ुशी इसलिए कि आप सही सलामत हैं और हिम्मत इसलिए क्योंकि जिस डर की हालत में बस्तर से मैं लौटा हूँ, उसमें आपका ख़त आशा की किरण है और यह सीख देता है कि हमें बिना डरे, हिम्मत के साथ अपना संघर्ष जारी रखना चाहिए। संघर्ष हर प्रकार की हिंसा और उत्पीड़न के खिलाफ। संघर्ष शांति, न्याय और लोकतंत्र की स्थापना के लिए।
पिछले सप्ताह जब हम जगदलपुर में लगभग एक साल के बाद मिले थे तो आप कितनी खुश लग रही थीं! मुझे याद है और जैसा कि आपसे मैंने कहा था कि पिछली मुलाकात की बनिस्बत आप ज़्यादा तरोताज़ा और ऊर्जावान लग रही हैं जिसके जवाब में आपका कहना था कि, ” मैं बहुत ख़ुश हूँ क्योंकि वर्षों के संघर्ष बाद मैं वो कर पा रही हूँ जो करना चाहती थी।” आपने बताया था कि किस तरह आप सिर्फ़ अकादमिक कामों से आगे बढ़कर, अपनी नागरिक ज़िम्मेदारी को निभाना चाहती थीं. यही आपने अपने पत्र में भी लिखा है:
“एक समय आया जब मुझे जरूरी लगने लगा कि मैं लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने में मदद करूं. मैं एक शोधकर्ता थी, और साथ में नागरिक भी. मैंने देश के अन्य राज्यों में भी जब-जब काम किया था, वहां भी यह जिम्मेदारी निभाई थी, तो बस्तर में क्यों नहीं? यह सोच कर मैंने आदिवासी लोगों के साथ उनके संवैधानिक हकों के लिए काम करना शुरू किया. मैं मानती हूं कि हमारे जैसे देश में जो लोग शिक्षित हैं उनकी समाज के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है.”
पर शायद बस्तर देश के दूसरे हिस्सों, खासतौर पर तथाकथित मेनलैंड की तरह नहीं है. बस्तर में अधिकार और संविधान जैसे शब्द सिर्फ किताबों तक महदूद हैं. आपके ही शब्दों में कहूँ तो, “बस्तर में सरकार और माओवादियों के बीच युद्ध चल रहा है.” और ऐसी स्थिति में काम करना, ख़ासतौर पर जनता के संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ना,उसके बारे में लिखना और सच को उजागर करना और भी मुश्किल हो जाता है.और इसी मुश्किल काम को आप अंजाम दे रही हैं जो कि सराहनीय होने के साथ-साथ साहसिक भी है.
मैं जानता हूँ कि आपका बस्तर शिफ्ट होना किसी “बलिदान या वाइट-मेन्स बरडन” की अवधारणा के तहत लिया गया निर्णय नहीं है, जैसा कि ज़्यादातर मिडिल-क्लास समझता है और आमलोगों को समझाने की कोशिश की जाती है. आपका यह फ़ैसला, जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, एक ज़िम्मेदार नागरिक का फैसला है जो शांति और न्याय की स्थापना में अपना योगदान देना चाहता है और अपनी सलाहियतें लगा देना चाहता है। काश, मैं भी ऐसा कर पाता और मेरे अन्दर भी इतनी हिम्मत होती!
आपने अपने पत्र में स्थानीय संगठन “सामाजिक एकता मंच” द्वारा आपके नक्सली होने के आरोप ज़िक्र किया है. इसके बारे में पढ़ते हुए मुझे पिछले सप्ताह (17 मार्च) की घटना याद आ गई. उस रात, आप, मैं और हमारी एक और साथी बस से जगदलपुर से रायपुर आ रही थी. बस खुलने ही वाली थी कि “सामाजिक एकता मंच” के दो अधिकारी हमारी बस में घुस आये, और हम तीनों से बातचीत कम पूछताछ ज़्यादा करने लगे. हमारा नाम, पता, फ़ोन नंबर और आने का मक़सद नोट किया और फोटो भी लिया और उसी समय ये सब वाट्सएप के ज़रिये किसी को भेज दिया।
वे हमसे लगातार उसी दिन (17 मार्च) सुकमा जिले के एक गांव में एक बच्ची के माओवादियों के लैंडमाइन ब्लास्ट में मारे जाने के बारे में सवाल कर रहे थे और उसकी भर्त्सना करने को कह रहे थे. हमारे बार-बार ऐसी घटना को निंदनीय बताने के बावजूद ऐसे सवाल कर रहे थे जैसे हमने ही वह वारदात अंजाम दी हो. यह सही है कि उन्होंने हमारे साथ किसी तरह की बदसलूकी नहीं की पर उनका यह तरीका डराने वाला ज़रूर था.
और फिर रास्ते में, देर रात, दो बार हमारे बैगों की तलाशी। नाम, पता और फोटो, आदि लेने की प्रक्रिया। आपका तो डायरी और नोटबुक तक चेक किया गया. दुख तो यह है कि “हमारी वजह” से ये सब दूसरे यात्रियों को भी झेलना पड़ा, एक नहीं, दो-दो बार. इस चक्कर हमारी बस 2 घण्टे से ज़्यादा लेट पहुंची। अब सुनने में आ रहा है कि “सामाजिक एकता मंच” की सहयोगी संगठन, “महिला एकता मंच” ने प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर आपके, जगदलपुर लीगल एड ग्रुप के साथी और हमारी उस साथी के खिलाफ, जो 17 मार्च की यात्रा में शामिल थी नक्सल-समर्थन और छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा क़ानून के तहत मुक़दमा चलाने की अपील की है.
पर यह अंत थोड़े ही था. 19 मार्च की रात जब आप रायपुर से जगदलपुर के लिए वापस लौट रही थीं तो एक बार फिर “सामाजिक एकता मंच” वालों ने आपको फ़ोन किया। लगातार आपसे सवाल करते रहे। उनका तरीका डराने वाला था। सच पूछिए तो मैं डर भी गया था, बुरी तरह।आपको वापस जाने से रोकना चाहता था। पर आपकी प्रतिबद्धता को जानते हुए मुझमें हिम्मत नहीं हुई कि आपको रोक लूँ। मुझे नहीं पता कि मेरा आपको न रोकने का फैसला कहाँ तक सही था और कहाँ तक ग़लत!
बस इतना कहना चाहूंगा कि मन हमेशा उधर ही लगा रहता है।आपकी तरफ, सोनी (सोरी) दीदी की तरफ, लिंगा (कोडोपी) की तरफ और हज़ारों आदिवासियों की तरफ जिन पर अघोषित युद्ध लाद दिया गया है. समझ में नहीं आता कि यह सब कब तक चलता रहेगा। क्या कभी बस्तर में शांति, न्याय और लोकतंत्र की स्थापना हो पायेगी? पता नहीं। बस दुआ है कि आपलोगों का प्रयास रंग लाये।
ख़याल रखिएगा अपना और सोमारी का भी.
आपका
महताब
(लेखक मानवाधिकारकर्मी हैं और दिल्ली में रहते हैं.)
Apoorva, not all of us read Hindi as easily as we read English. Would it be possible for you to post twice each time? :)
I know it must mean double the trouble, but I am sure it would help reach a larger audience as well. Would that be ok to request? (Of course, I speak and read Hindi, but maybe not as swiftly as I read English)…
Thanks
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Bastar mein ‘basney’ ka ‘star’ gir gaya hai …!
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I feel angered and sad that human rights, first right of any civilized society is being trampled upon….fee proud that there are citizens who are courageous and committed in our country to defend these rights , more importantly rights of others. My good wishes to you and your ilk..
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