मुक्तिबोध शृंखला:23
लिखना और पढ़ना मुक्तिबोध के साहित्य संसार में विशालता के स्पर्श का एक जरिया है। ‘आ-आकर कोमल समीर’ कविता के आरम्भ में ही एक टेबल पर झुका सर दिखलाई देता है जिसके उलझे बालों को समीर आ-आकर सहलाता रहता है। यह तूफ़ान नहीं है जो मुक्तिबोध की कविता के प्रचलित स्वभाव के लिहाज़ से स्वाभाविक होता, वह झकझोरता नहीं है। टेबल पर जो बैठा है, वह गंभीर काम में तल्लीन है। इसलिए समीर बहुत दुलार से उसके बालों को सहला रहा है। वह एक गंभीर काम में, जो मेहनत का काम है,लगा जो है। फिर कवि का कैमरा जिस टेबल पर सर झुका है, उसपर अपनी निगाह ले जाता है:
“विद्रूप अक्षरों की बाँकी-
टेढ़ी टाँगों के बल चलती,
स्याही के नीले धब्बों से जो रँगी हुई
पीले कागज़ की दुनिया है,”
यह पीले कागज़ पर लिखे जाते जो टेढ़े-मेढ़े अक्षरों की दुनिया है। किसी-किसी को वह सिर्फ धब्बों से रंगा पीला कागज़ दिखलाई पड़ सकता है। लेकिन है वह ज़िंदगी से धड़कता एक संसार। यह दुनिया बनती कैसे है?
“उसकी खिड़की की चौखट से
झाँका करते नीली प्रशांत मृदु क्षितिज रेख पर बसे हुए
वे हरे-हरे मेघ (सौ तरुओं के)
पीले मैदानों पर फैली उस उस नरम धूप के रम्य लोक में दूर
और अस्पृश्य।”
सैंकड़ों तरु दूर से हरे मेघों की तरह ही भासते हैं। वे दूर हैं, स्पर्श से परे लेकिन उनका अनुभव किया जा सकता है। वे पीले कागज़ की उस नीले धब्बोंवाली दुनिया की खिड़की से झाँक रहे हैं। वह कोमल समीर उन्हें छूकर आई है और अब वह मुझे छू रही है। कोमल, प्रशांत, मृदु, नरम, रम्य जैसे शब्दों पर ध्यान दीजिए। इस रम्य लोक से होकर आते समीर के स्पर्श से क्या होता है?
“मुझको छूकर अंतर में देती खींच एक जलती लकीर अंगारों की।”
प्रशांत, मृदु, रम्य लोक के बाद नगरों की जलती लकीर! जो ह्रदय में खिंच जाती है। इससे फिर क्या होता है?
“यह मेरा मन
निज आत्म-चेतना के दाहक ऊष्मा-संवेदन में बल खा होता
है अधिक सचेतन-सा सब जड़ीभूत आवरण चीर”
यह सब कुछ लिखने की प्रक्रिया का अंग है। वह खुद लेखक के सचेतन प्रक्रिया है, खुद से बाहर जाने, अंतर में प्रवेश की और उसकी जड़ता को तोड़ने की भी।
विशाल के इस स्पर्श से वर्षों का जड़ीभूत अभिशाप दूर हो जाता है और यह स्पष्ट हो उठता है कि
“अब एक स्वर्ग है यही धरित्री
इसकी सीमाएँ मटमैली राहें
औ’ साथी अनुभवी वृक्ष
घन पत्र-भार के।”
वृक्ष मुक्तिबोध की कविता में लौट लौट कर आते हैं। हजारों प्राणों के आश्रय, प्राचीन अनुभवों के वाहक, स्थिरता और गतिमयता के संगम। यह जो पीले कागज़ की दुनिया के मुरझाए मैले कपोल हैं, वे बाहर से तो वैसे ही दीखते हैं लेकिन अंदर कुछ बदल गया है इस स्पर्श से। बाहर से जो कोमल समीर एक लहर की तरह बालों से गुजर जाती है, वह कोई और स्पर्श भी साथ लाई है,
” … नरम पीली दुपहर …
राह पर वह धुआँधार
कोलाहल करता सगर्व उद्धत मजदूरों का जुलूस
प्राणों के बाँध देता बिदार।”
रम्यता, मृदुलता, प्रशांत भाव भंग हो जाता है। पहले जो कोमल था, शीतल था, वह अब ऊष्ण हो उठता है:
“है ऊष्ण स्पर्श
शत-लक्ष प्रात सूर्यों की छवि का वह
भरता उभार।”
प्रकृति में मनुष्य की सामूहिकता का हस्तक्षेप! और उसके कारण
“मैं गूँज उठा
सहसा छंदों की लहरों-सा
अपने हिय की गुंबज में
काँपा अधीर।”
प्रकति की विशालता में मानवता के इस योग से एक आया अनुभव-क्षण पैदा होता है और
“उस अनुभव-क्षण के शैल-शिखर
पर खड़ा हुआ
गा उठा
प्रपूरित प्राणों के गंभीर
गर्व का मैं प्रतीक,
मैं दुर्निवार।”
लिखने की मेज पर झुके सर के उलझे बालों में जो समीर लहरें भर रहा है, वह सिर्फ स्थान को पार करता नहीं आ रहा, उसमें काल-बोध भी है। ‘रबिन्द्रनाथ’ शीर्षक कविता का यह अंश:
“जिस समीर ने तुम्हारे हृदय में स्फुलिंग
भर दिया वही समीर
वही मम-हृदय-पीर”
पहली कविता में समीर अंगार रेख खींच देता है, यह वही है जिसने कवि के अग्रज रबिन्द्रनाथ के हृदय में स्फुलिंग बाहर दिया था। लिखना एक निरंतरता है, जैसे एक ही काम जो पीढ़ियों से चला है और अलग-लग काल-बिंदु पर अलग-अलग हाथ उसे बस आगे बढ़ाते जाते हैं। एक ‘रिले-रेस’ है, लेखन की अनवरत यात्रा। रवि ठाकुर व्योम-पुत्र हैं और “मैं” हूँ अवनि-पुत्र जो उन्हीं का काम कर रहा हूँ। मैं हूँ विमुक्त-भाल। मेरी श्वास में तुम्हारा मुक्त हास है लेकिन भाल पर अनेक रेख हैं।
यह एक पूर्ववर्ती लेखक को दी गई उच्छ्वासपूर्ण श्रद्धांजलि तो है ही, लेकिन लेखन उस पीढ़ी या लेखक के द्वारा सौंपा गया दायित्व है, इसका अहसास भी है। मन के गगन में इस अग्रज कवि के पुनीत गीत-हंस की उड़ान दिखलाई पड़ती है।
“आ-आकर कोमल समीर” में जो लेखक है वह निसर्ग, प्रकृति की सृजनशील आत्मा है और
“मानव की
आशा की कोमल धूप-सा फैला हूँ
सरि-तट, मरू-भू, हरितांचल पर
जीवन के उस गहरे सांसारिक दलदल पर।”
नदी का किनारा, मरुस्थल और हरितांचल भी जीवन ही है, जीवन का प्रतीक मात्र नहीं। बाद की पंक्ति में वे मनुष्य जीवन के सांसारिक दलदल की बात करते हैं। वह दलदल है और उसपर आशा की कोमल मधुर धूप फैली हुई है।
लिखना एक काम है और लेखक कामगार या जैसा प्रेमचंद ने कहा था मजदूर। लेकिन मुक्तिबोध की कविता का लेखक पूरावक्ती लेखक नहीं है। वह दिन बाहर परिश्रम करते हुए लिखने का काम भी करता है। वे उस सारहीन, अकारथ श्रम के बीच लिखने का काम! ‘ज़िंदगी का रास्ता’ शीर्षक कविता में यह लेखक रामू है। वह
“रास्ते के शोरोगुल औ’ धूल के
छोटे-छोटे बादलों से घिरकर मलीन हो
(किन्तु निज मस्तक में चलते हुए चक्र-से
भावों में विलीन हो)
अपने काम से घर लौटते हुए,
रामू, घिरी साँझ के सुदूरतम
गेरुए किनारे पर मिल के काला बल खाते बादलों को देखता हुआ बढ़ाता हुआ पैर, तै करता है
धूल भरा रास्ता।”
बाहरी व्यर्थता और तुच्छता में फँसने से बचाते हैं निज मस्तक में चक्र से चलते हुए भाव। और इसीलिए इस नगण्यता के बीच भी मैं अर्थ बोध प्राप्त करा सकता हूँ। लेकिन दिमाग के अंदर चक्कर काटते भावों का स्रोत अंदर नहीं। ‘आ-आकर कोमल समीर’ की इन पंक्तियों को देखिए:
“मैं जो भी एक नगण्य व्यक्ति करता रहता दिन-रात काम
पर सहसा सारे प्राण-स्रोत सम्पूर्ण विश्व के निर्विराम
बह उठते हैं, पार्वतीय जलधारा से आकुल सवेग
मैं अपने से कह उठता हूँ, मैं प्राण एक पर हूँ अनेक।”
नगण्यता को महत्ता देते हैं सारे संसार के प्राण-स्रोत। वे अपनी आकुल धारा के वेग से उसे ऊपर उठा देते हैं। इस महत्त्व बोध से अहंकार नहीं, पूर्वजों से प्राप्त दायित्व की गहनता का बोध है और उसके कारण वह अत्यंत विनम्र है। अनेक प्राणों के संयोग का बोध, अपने विस्तार का बोध हो आता है,वह खुद विशाल हो उठता है:
“मैं एक लक्ष्य पर हुई उदित, विकसित गुलाब-सी, मधुर प्रात
आ उसी लक्ष्य पर हूँ अवसित
गंभीर साँझ वेदना-स्नात।”
यह विरोधी भाव या भाव-युग्म मुक्तिबोध की विशेषता है। गुलाबी मधुर प्रात और वेदना से नहाई हुई गंभीर साँझ, दोनों मैं ही हूँ!
वेदना का कारण क्या है?
“नित देख-देख उद्ध्वस्त शिखर जीवन के, जन के
मैं आहत हो गया
प्राण का श्वास रुक गया।
….
आस-पास सब ओर स्तब्धत:
सुन्दर मूर्ति और मीनारों के खँडहर हैं इस जीवन के।”
इस कविता में जीवन के खँडहर हैं और ‘ज़िंदगी का रास्ता’ में रामू जैसे अपने ही दिन की हत्या होते देखता है:
“रामू सोचता है कि व्यर्थ गया सारा दिन,
मेहनती गरीब के असाध्य किसी रोगग्रस्त
क्षीणकाय किन्तु अति भोले प्यारे
बालक की उदास
(किसी आतंरिक प्रेरणा से चमकती हुई)
आँखों-सा कि म्लान मुस्कान-सा अरे यह मेरा दिन जीने की प्रेरणा लिए हुए
भी पूरा न कर पाया अपना काम
अपना जीवन-कर्त्तव्य!”
जीवन कर्तव्य के प्रति यह सजगता में ही नहीं आती है। वह दिन भी व्यर्थ नहीं जाता है। उसी दिन में
“किन्तु वह नित्य उदासीन नहीं रहता था।
सुबह से तो शाम तक
चलते हुए काम की
पीली-भूरी मेहनती ज़िंदगी
में स्वाभाविक मृत्युंजय वीरता-
सहानुभूति-करुणा के, धीर व्यक्तित्व के
गंभीर चरित्र के दर्शन होते रहते थे।”
साधारणता में असाधारण के दर्शन, क्षुद्रता में महानता की संभावना से
“… रामू के नयनों में छा जातीं
पलकों में आँसुओं की पाँतियाँ
किसी गहराई की तल्लीनता में पली हुई
जीवन की चेतना के मानो मणि-कण।”
पहले कविता में गुलाबी सुबह के बाद वेदना-स्नात साँझ तक का सफर है, इस कविता में ‘फूलों के ताजा ओंठों खिली मुस्कान से तारों के इशारे तक’ की यात्रा है। इस रास्ते पर चलते हुए, मेहनत करते हुए सर्जनशील भाव सक्रिय रहते हैं। मुक्तिबोध की कविताओं में श्रम, शारीरिक श्रम और चिंतन का एक गहरा सम्बन्ध है। उनकी एक कविता में पीठ पर बोझा उठाते समय आनेवाले विचारों पर ध्यान जाता है। श्रमिक विचार का विषय नहीं स्वयं विचारशील सत्ता है। वैसे चिंतन या लेखन स्वयं भी श्रम ही तो है? वह क्या कर्म की अभिव्यक्ति है या खुद कर्म है?
उसी मारे जाते जीवन में युद्धरत जीवन के दृश्य भी हैं। और इसीलिए उस्ताद रामू
“अपने मन को यों बतलाता रहता
कि समझाता ही रहता है:
इतने सब कष्टों की
…
काली-नीली जीभों के बावजूद
…..
आधुनिक जीवन यह महान् है
जन-जन के उरों में आज
संघर्ष का, साहस का सुनहला गान है
जन-जन के हृदय में। …
चमकते हैं गभीर युगांतरकारी
शक्तियों के अंगारी सितारे
मानवीय संघर्ष के (काव्य के) सहारे।”
जीवन के संपर्क में रहने के कारण मन में उपेक्षा की बर्फ गलती रहती है:
“खुली आँखों, खुले अन्तर घूमने पर
मनुष्यों की प्राणमयी
चलती-फिरती दुनिया के क़दमों को चूमने पर
ज़िंदगी में हिम्मत का, ताकत का झरना झरता रहता है,
आत्मा गीली रहती है,
(मस्तक में घूमनेवाली) कथाओं से मानवी,
व दिल ऊँचा रहता है विचारों की पताका-सा
व स्वच्छ रहता मस्तिष्क
प्रतिच्छाया लिए हुए मानव के रूप की।”
इस काव्यांश में ध्यान जाता है जीवन के आगे आधुनिक विशेषण पर। वे सिर्फ यह नहीं लिखते कि जीवन महान् है। जीवन जो आधुनिक है, वह महान् है। रामू वह आधुनिक व्यक्ति है। पूरी कविता आधुनिकता की मानो परिभाषा करती चलती है। वह आधुनिकता संलग्नता के बोध का ही दूसरा नाम है:
“रहे चाहे जहाँ भी नगण्य रामू यह –
निज को वह पाता है
स्थान पर कर्तव्यों के, … जन-संगर-प्रवेगों के कार्य-शिरोधार्य में
अपने को एकोन्मुख मग्न – सदा पाता है,
रास्ते पर चलते हुए, करते हुए मेहनत
पृथ्वी पर चलते हुए घोर
जान-संघर्षों में
रामू निज को तदाकार संलग्न पाता है।”
अपनी नगण्यता के बोध के साथ यह तदाकारिता और संलग्नता के कारण ही
“रामू खोज लेता है अपना स्थान।
अपना ही पुनःशोध
रामू को होता है, होता है पुनर्बोध यह।”
गहन सहचरता का यह बोध आँखों में आँसू ला देता है और उसी के कारण फिर से व्यक्ति अपना शोध करता है। इस प्रक्रिया में ही उसे फिर से अपना बोध होता है। व्यक्ति के इस चिर नवीकरण का बोध आधुनिक जीवन की विशेषता है।
नैतिक जीवन कैसे निर्मित हो? कैसे जिया जाए? यह प्रश्न कोई आज का नहीं। आज उसका रूप मौलिक रूप से बदल ज़रूर गया है। आत्म-संगठन कैसे किया जाए? तपस्या से मुक्ति मिलती है, इससे इंकार नहीं। लेकिन वह तपस्या क्या है और वह मुक्ति भी क्या है? अकेले की मुक्ति नहीं, अकेले में मुक्ति नहीं:
“रास्ते पर चलते हुए,
करते हुए मेहनत,
ज्ञानशील वेदनामयी अनुभूति
तीव्र की कराह बाहर रामू का तन-मन
चाहता है कूदना
कालान्तरकारी उन ऊँची-ऊँची लहरों में जिनके नभोभेदी
क्रुद्ध हुंकारों से नवयुग का समारम्भ है
खंडित मनस्तत्त्व
जुड़ते हैं नवीनतम
सशक्त व्यक्तित्व के सुनैतिक रूप में.”
संसार में अपना स्थान खोजना और एक सशक्त, सुनैतिक जीवन के रूप का निर्माण!
“आ-आकर कोमल समीर” में बाह्य का यह भीषण बोध कोमल समीर के माध्यम से होता है और वह
“खींचता एक अंगार-रेख मेरे अन्तर
लिखता स्वर्णिम अक्षर अनेक
नूतन कविता के।
मेरे उर
में बही जा रही नूतन रामायण की स्वर्णिम अरुण
पंक्तियाँ विद्युत् गति से।”
रामू जो दिन भर की निरर्थकता के बोझ के बीच जीने की प्रेरणा को जीवित रखता है, निश्चय करता है,
“अरे! यह मेरा दिन जीने की प्रेरणा लिए हुए
भी पूरा न कर पाया अपना जीवन कर्तव्य!
रात में भिड़ूँगा अब, जूझूँगा, आधी रात
प्रभात के कपोलों को हृदय के दाह-चुंबन से
लाल कर दूँगा मैं।
“
उधर एक हृदय पर खिंची अंगार रेख अग्नि से नूतन रामायण लिख रही है, इधर प्रभात के कपोल लाल हो उठे हैं हृदय के दाह-चुंबन से!
लिखना और क्या है? और अगर यह नहीं है तो क्या वह लिखना है भी?
श्रमिक विचार का विषय नहीं स्वयं विचारशील सत्ता है। 100% सत्य …💐
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