वह एक काला दिन था: विवेक आसरी

Guest post by VIVEK ASRI

वह एक काला दिन था
अंधेरे में जो चमकते कण नजर आ रहे थे
वे दरअसल, सूरज की रोशनी की कोशिश का अंजाम थे
जिसे धूल ने अपने आगोश में ले रखा था
यह धूल उड़ी थी
इंसानों को रौंदकर निकले जानवरों के कदमों से
दूर से देख रहे लोग चमकती धूल को देखकर
आह्लादित थे आनंदित थे
उन्हें रौंदे गए लोगों की चीत्कार सुनाई नहीं दे रही थीं
क्योंकि हर ओर उन जानवरों की आवाजें थीं
जो इंसानों को रौंद कर बढ़ रहे थे
हवा में बसी खून की महक उन तक नहीं पहुंच रही थी
क्योंकि उन्हीं के बीच के कुछ लोग जानवरों से समझौता किए बैठे थे
और उड़ा रहे थे हवा में इत्र
पूरी गहमा-गहमी में सिर्फ चमकती धूल का जिक्र था
जबकि अंधेरे को धूल के बैठ जाने का इंतजार था
क्योंकि वह एक काला दिन था
जो एक बहुत काली रात की तरफ बढ़ रहा था।।

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