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धारा 377 अब स्वेच्छा से यौन संबंध बनाने वाले समलैंगिकों पर लागू नहीं होगी. दिल्ली उच्च न्यायालय के इस निर्णय ने भारतीय समाज की नैतिकता की परिभाषाओं की चूल हिला दी है. फैसला आने के बाद हिन्दू , मुस्लिम और अन्य धार्मिक समूहों के कई नेताओं ने इसे खतरनाक बताया है और इसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय तक जाने की धमकी दी है. कुछ तो जा भी चुके हैं। सरकार को भी कहा जा रहा है कि वह इस फैसले को चुनौती दे. अब तक के सरकार के रुख से ऐसा कुछ नहीं लग रहा कि वह इस दबाव के आगे झुकेगी.
फैसला ऐतिहासिक है. इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह एक विशेष संविधान को स्वीकार करके अपने-आपको एक राष्ट्र-राज्य के रूप में गठित करने वाले जन-समुदाय के रहने-सहने और जीने के तौर-तरीकों को निर्णायक रूप से उसके पहले के सामाजिक आचार-व्यवहार से अलगाता है. यह आकस्मिक नहीं है कि न्यायाधीश ने अपने फैसले के लिए जिन राष्ट्रीय नेताओं के दृष्टिकोण को आधार बनाया , वे हैं जवाहरलाल नेहरू और भीमराव अम्बेडकर. नेहरू औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद एक नए भारत के लिए आवश्यक नैतिक और सांस्कृतिक बुनियादी तर्क खोजने की कोशिश कर रहे थे. इस खोज में सब कुछ साफ–साफ दिखाई दे रहा हो, ऐसा नहीं था और हर चीज़ को वे सटीक रूप से व्याख्यायित कर पा रहे हैं, ऐसा उनका दावा भी नहीं था. नेहरू के जिस वक्तव्य को फैसले में उद्धृत किया गया है, उसमें भी शब्दों की जादुई ताकत के उल्लेख करने के साथ यह भी कहा गया है कि वे पूरी तरह से एक नए समाज की सारी आकांक्षाओं को व्यक्त कर पाने में समर्थ नहीं. वे निश्चितता से भिन्न विचार और मूल्यों के एक आभासी लोक की कल्पना करते हैं. राजनेता का विशेष गुण माना जाता है, फैसलाकुन व्यवहार. नेहरू, इसके बावजूद कि एक तानाशाह बन जाने के लिए उनके पास सारी स्थितियां थीं , हमेशा इससे बचते रहे कि चीज़ों को साफ-साफ और अलग-अलग खाचों में डाल दिया जाए.
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