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यशपाल समिति पर बहस और दिमाग़ों के ताले

उच्च शिक्षा को लेकर यशपाल की अध्यक्षता में बनी  समिति की रिपोर्ट को लेकर चल रही  बहस से भारत के पढ़े -लिखे समाज के बारे में कुछ दिलचस्प नतीजे निकाले जा सकते हैं. सबसे पहले तो यह, जो कोई नई खोज नही  है कि   यदि आपको इनके राजनीतिक झुकाव का पता है तो आप इनकी प्रतिक्रिया का सहज ही अनुमान कर सकते हैं.  वे बुद्धिजीवी भी, जो अपने आप को राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से ऊपर बताते और समझते हैं, इस बीमारी से आजाद नहीं हैं. ऐसा लगता है, प्रतिक्रियाएं तैयार रखी  थीं और उनका उस रिपोर्ट की अंतर्वस्तु से कोई लेना – देना नहीं जिसकी वे बात कर रही हैं.
जो प्रौढ़ हो चुके, यानी जिनके कई प्रकार के स्वार्थ उनके राजनीतिक आग्रहों से बंधे हुए हैं, उनकी बात छोड़ भी दें तो नौजवानों में इस राजनीतिक मताग्रह से दूषित विचारक्रम को देख कर चिंता होती है. नौजवान दिल -दिमाग आजाद होने चाहिए . किसी भी घटना या विचार पर प्रतिक्रिया देते समय उन्हें उसे ठीक-ठीक समझने की कोशिश करनी  चाहिए. दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं दीखता. अगर सिर्फ  शिक्षा से उदाहरण लें तो पांच साल पहले स्कूली शिक्षा के लिए बनाई गयी राष्ट्रीय पाठ्यचर्या पर हुई बहस में इस विचारहीन मताग्रह के अच्छे नमूने मिल जायेंगे. चूंकि उस प्रक्रिया का संचालन एक ऐसा व्यक्ति कर रहा था जिसे वामपंथी नहीं माना जाता, वामपंथी समूहों ने   २००५ की पाठ्यचर्या पर संगठित आक्रमण किया. प्रखर इतिहासकारों और अन्य  क्षेत्र के विद्वानों ने जिस तरह इस दस्तावेज पर हमला किया उससे इसका अहसास हुआ कि इसकी आज़ादी तो कतई नहीं कि आप बने-बनाए वैचारिक दायरों से निकल कर कुछ सोचने -समझने का प्रयास करें.
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