प्रणव मुखर्जी से किसी पत्रकार ने पूछा कि क्या भारत पाकिस्तान में वैसी ही कार्रवाई करेगा जैसी इस्राइल गाज़ा में कर रहा है. शुक्र है कि हमारे विदेश मंत्री ने यह कहना ज़रूरी समझा कि इस्राइल की तरह भारत ने किसी और की ज़मीन पर कब्जा नहीं कर रखा है. इस सादे से तथ्य को कहना आजकल गनीमत है क्योंकि हमारे आदर्श बनते जा रहे अमरीका में फिलीस्तीनीयों को ही इस रूप में पेश किया जा रहा है मानो वे ही शांति से रहने वाले इस्राइलियों को चैन से नहीं रहने दे रहे. तो क्या यह मान लिया जाय कि हमारी याददाश्त भी ‘गजनी’ की तरह सिर्फ पंद्रह मिनट की रह गई है? क्या हम यह भूल गए है कि गाज़ा के उस पतली सी पट्टी में जो पिछले साठ साल से पीसे जा रहे हैं वे एक ज़िओनवादी राज्य इस्राइल की स्थापना के लिए उनकी अपनी ज़मीन से उखाड कर फेंक दिए गए लोग हैं?

अगर हम साठ साल की बात को याद नहीं रखना चाह्ते तो क्या हम यह भी भूल गए हैं कि अभी दो ही साल बीते हैं कि फिलीस्तीन की जनता ने हमास को चुनाव में बहुमत दिया था! क्या हमें यह भी याद दिलाना होगा कि हमास की चुनावी जीत को इस्राइल, अमरीका , युरोप और उनके पिट्ठू फतह ने मान्यता देने से इंकार कर दिया था?

हमास एक आतंकवादी संगठन नहीं है, जैसा अमरीका और इस्राइल चाह्ते हैं कि उसे माना जाए, वह फिलीस्तीनी जनता का वैध प्रतिनिधि है. क्या चुनाव में उसकी जीत को मानने से इनकार वैसा ही नहीं जैसा मुजीबुर्रहमान की जीत को मानने से तब की पकिस्तानी हुकूमत का इंकार ? उसका नतीजा था पाकिस्तान का विभाजन और बांग्लादेश के रूप में एक नए राष्ट्र का जन्म. यहां अंतर सिर्फ यह है कि हमास ने गाज़ा पट्टी पर संघर्ष के बाद नियंत्रण कर लिया. तब से इस्राइल के कहने पर अमरीका समेत पूरे विश्व ने हमास का बहिष्कार कर रखा है. क्या हम इसकी कल्पना कर सकते हैं कि भारत में भारतीय जनता पार्टी के चुनाव में जीतने के बाद उसकी राजनीति से असहमति रखने के कारण उसे मान्यता न दी जाए?