अण्णा हजारे के ‘नेतृत्व’ मे शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का पहला चरण सफलतापूर्वक समाप्त हो गया है. अनेक लोगों को सरकार को हिला देने का सुख और संतोष इस आंदोलन ने दिया है. हजारे ने खुद यह कहा कि एक बार तो भगत सिंह ने अंग्रेजों को भगाया था, इस बार ‘काले’ अंग्रेजों को भगा दिया गया है. इसे दूसरी आज़ादी की लड़ाई भी कहा जा रहा है. इसके पहले एक और ‘दूसरी आज़ादी’ की लड़ाई लड़ी गई थी लेकिन शायद वह असली नहीं रही होगी तभी तो इसे तीसरी नहीं दूसरी आज़ादी की जंग कहा जा रहा है. यह सोचने का विषय है कि इस देश में हर प्रकार के संघर्ष को अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए क्यों खुद को स्वतंत्रता संग्राम के रूप में प्रचारित करना पड़ता है. कहा जा सकता है कि यह तो भाषा का रूपकात्मक प्रयोग है, इसे आगे खींचने की ज़रूरत नहीं. इस रूपक को गढ़ने को मजबूर दिमाग जिस ग्रंथि से जूझता है , वह शायद यह है कि हममें से अधिकतर को यह रंज और गम है कि हम 1947 के पहले पैदा नहीं हो सके थे और इस देश को आज़ाद कराने में हमारा कोई हिस्सा नहीं.दूसरे, उस आन्दोलन के अंतिम क्षण के शत्रु रक्त से रंजित न होने के कारण नवीन राष्ट्रीय शिशु के जन्म की वास्तविक अनुभूति से हम वंचित रह गए. इसके कारण हम सबको एक स्तर पर अपना राष्ट्रीय अस्तित्व ही अप्रामाणिक प्रतीत होता है. हर पीढ़ी को इस कुंठा से मुक्ति के लिए कभी न कभी एक स्वतंत्रता संग्राम की आवश्यकता पड़ती है. गोरे अंग्रेजों और काले अंग्रेजों को ‘भगाने’ के जिस विकृत सुख लाभ की आकांक्षा इस तरह के वक्तव्यों में झलक पड़ती है, उसके पीछे छिपी हिंसा को पहचानना भी आसान नहीं होता. क्या यह इसलिए करना होता है कि ऐसे आन्दोलन एक ‘राष्ट्रीय’ कल्पना को उत्तेजित करना चाहते हैं और इस लिए राष्ट्रीय संदर्भों के सहारे अपनी वैधता हासिल करते हैं? जंतर मंतर के अनशन मंच की पृष्ठभूमि में भारत के मानचित्र को आवृत्त किए हुए, बल्कि उसकी सीमा से बाहर राष्ट्रीय ध्वज को लहराते हुए गौर वर्णा भारत माता की छवि के विह्वल आह्वान को जो अनसुना करे क्या उसे दुखियारी माता का पुत्र कहलाने का अधिकार रह जाएगा? क्या उसके उद्धार के लिए, महिषासुर का दलन करने के लिए पुन: अपने अस्त्र-शस्त्र को शाणित न किया जाएगा? Continue reading लोकतंत्र की आत्मसमीक्षा का क्षण