सुपरहीरो की उदासी का सबब – अभय कुमार दुबे

[अभय कुमार दुबे का यह लेख नवभारत टाइम्‍स मे छपा था। यहाँ इसे दीवान लिस्‍ट के सौजन्‍य से पेश किया जा रहा है। उनका यह आलेख अमरीकी पॉपुलर कलचर के कई किरदारो की यकायक गायब होती ‘प्रासंगिकता’ पर नज़र डालता है। इस दिलचस्‍प लेख का एक पहलू वह है जो शीतयुद्धोत्तर अमरीका की बदली हुई राजनीतिक हैसियत के साथ पॉपुलर मानसिकता का एक गहरा रिश्‍ता देखता है। पढ़ते हुए अनायास स्‍लावोज ज़िज़ेक का एक लेख याद आ गया जिसमें वे उस अमरीकी फ़ंतासी (या दुस्‍वप्‍न?) की बात करते हैं जिसमें एक आम अमरीकी हमेशा किन्‍हीं एलियन्‍स या डायनोसॉरों द्वारा आक्रांत होने के रोमांचक ख़ौफ़ में जीता है, और जो 11 सितम्‍बर 2001 को अचानक चरितार्थ होती है। शायद किस्‍सा बैटमैन आदि पर ख़त्‍म नहीं होता।]

फैंटम, जादूगर मैंड्रेक  और फ्लैश गॉर्डन के कारनामों की खुराक पर बचपन गुजारने वाले भारतवासियों की पीढ़ी को मालूम होना चाहिए कि कॉमिक्स के पन्नों से हमारी-आपकी जिंदगी में झांकने वाले सुपर  हीरो किरदारों की दुनिया अचानक बदल गई है। अमानवीय ताकतों से लैस जो चरित्र दुनिया को भीषण किस्म के खलनायकों से बचाने का दम भरते थे, आज अपनी ही उपयोगिता के प्रति संदिग्ध हो गए हैं।

जो लोग फैंटेसी की दुनिया से बाहर नहीं निकलना चाहते उन्हें यह देख कर अफसोस हो सकता है कि  उनका ‘फ्रेंडली नेबर’ स्पाइडरमैन पिछले दिनों रिटायर होते-होते रह गया। अब गौथम सिटी का रक्षक बैटमैन भी बुराई से लड़ने का अपना फर्ज निभाने में खुद को नाकाफी महसूस करने लगा है। इस बात का एहसास पिछले दिनों हमारे देश में सुपरहिट हुई हॉलिवुड की कुछ फिल्मों को देख कर हुआ है।

सुपर हीरो किरदारों की कहानी में आया यह एक ऐसा ट्विस्ट है जिसकी कल्पना उन्हें रचने वाले कलाकारों ने कभी नहीं की होगी। पहले स्पाइडरमैन उदास हुआ,और अब
बैटमैन खिन्न हो गया है। हमें यकीन है कि यही हालत सुपरमैन,फेंटेस्टिक फोर,गार्थ,हैलबॉय,आइरन मैन और कैप्टन अमेरिका की  होने वाली है।

यह चक्कर क्या है? क्या दुनिया पहले से बेहतर हो गई है? या फिर दुनिया शेक्सपियर की भाषा  में ‘खतरे से भी ज्यादा खतरनाक’ किस्म के किसी खतरे का सामना कर रही है जिससे ये पुरानी चाल के सुपर हीरो नहीं लड़ सकते? ऐसा लगता है कि सुपर हीरो चरित्रों की इस दुर्गति का जायजा असली दुनिया की कसौटियों के मुताबिक लेने का मौका अब आ गया है।

हम अच्छी तरह से जानते हैं कि इनमें से हर सुपर हीरो असली ज़िदगी की उन समस्याओं के काल्पनिक  हल लेकर सामने आता रहा है, जिन्हें हमारी दुनिया राजनीति और समाज के दायरे में हल करने में  नाकाम रही है। मसलन, रात के अंधेरों में होने वाले अपराधों
का उन्मूलन चूंकि पुलिस  प्रशासन के बस की बात नहीं होती, इसलिए समाज को बैटमैन जैसे चरित्र की जरूरत पड़ती है।

इसी तरह जब हमारे जंगलों और आदिवासी समाज के सिर पर सभ्य समाज के जंगली मंडराने लगते हैं, तो  वन्य संरक्षण की नीतियों की नाकामी के गर्भ से फैंटम नामक
नकाबपोश की लोकप्रियता का जन्म होता है। इन रोजमर्रा की बचाव कार्रवाइयों के साथ-साथ ये तमाम सुपर हीरो कुछ अजीबो-गरीब  लगने वाले खलनायकों से भी लड़ते
हैं जो दरअसल इनका असली और ज्यादा जरूरी काम है।

हकीकत तो यह है कि इन सभी का जन्म उस पॉप कल्पनाशीलता की उपज है जिसकी बुनियाद  प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पड़ी और जो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के शीतयुद्ध में परवान चढ़ी। इन तमाम  चरित्रों का आदि पुरुष कैप्टन अमेरिका था, जो अपनी अभूतपूर्व शक्ति और एथलेटिक क्षमताओं के साथ-साथ एक जबर्दस्त शील्ड (ढाल) लिए रहता था।

तीसरे दशक में गढ़े गए इस सुपर हीरो का नाम यूं ही अमेरिका पर नहीं रखा गया था। यह सीधे-सीधे  अमेरिका की विश्व-रक्षक होने की महत्त्वाकांक्षा का कॉमिक्स के संसार में प्रतिनिधित्व करने वाला  चरित्र था। कैप्टन अमेरिका की लोकप्रियता का नतीजा यह निकला कि पचास के दशक में कई प्रतिभाशाली पॉप कलाकारों ने कल्पना के घोड़े दौड़ा कर नए-नए हीरो गढ़ने शुरू कर दिए। इस इतिहास के कारण ही अधिकतर सुपर हीरो अमेरिकी कल्पनाशक्ति की उपज हैं।

उनके कभी भी हो सकने वाले पराभव को भी हमें इसी कल्पनाशक्ति में आए परिवर्तन की रोशनी में  देखना होगा। अमेरिकी कल्पनाशीलता में एक बहुत बड़ा परिवर्तन अस्सी के दशक के दौरान आया। सोशलिस्ट ब्लॉक तेजी के साथ खात्मे की तरफ बढ़ रहा था, और अगले कुछ सालों में शीतयुद्ध खत्म होते ही बाहरी खतरे के सारे स्त्रोत मिट जाने वाले थे।
अमेरिका के सामने सवाल यह था कि अब वह सांस्कृतिक रूप से खुद को परिभाषित कैसे करेगा।

उसे एक नया दुश्मन चाहिए था। चूंकि ये सारे चरित्र पत्रकारिता, साहित्य, फिल्मों और
ललित कलाओं से अलग एक खास किस्म के पॉप कल्चर की उपज थे, इसलिए उनकी
गढ़ंत में परिवर्तन की लहर का वाहक कोई पॉप कलाकार ही हो सकता था। यह जिम्मेदारी निभाई ग्रैफिक उपन्यास की विधा ने, जिसे फ्रेंक मिलर और उनके कई समकालीनों ने विकसित किया। इन लोगों ने सुपर हीरो का संघर्ष बाहर की बजाय भीतर
की ओर मोड़ दिया। मिलर ने बैटमैन को ‘डार्क नाइट’ में बदल दिया। एक ऐसे योद्धा में जो न केवल अपराधियों से लड़ रहा है, बल्कि अपने मन के राक्षसों से भी संघर्ष कर रहा है। ग्रैफिक उपन्यास ने कॉमिक्स के खलनायकों को भी बदला और उन्हें सुपर हीरो के ही चरित्र का दूसरा पहलू बना कर पेश किया।

इन नई विधा द्वारा की गई यह इंजीनियरिंग उस समय एक भयानक विस्फोट के साथ अमेरिका की धरती पर साक्षात प्रगट हुई जब न्यूयॉर्क में नाइन-इलेवन का हाहाकार मचा।  तब बुराई, दुष्टता और इंसानियत के दुश्मनों का एक नया चेहरा सामने आया जो कॉमिक्स के पृष्ठों पर  वर्णित किसी वैज्ञानिक प्रयोग की विफलता का नतीजा नहीं था।
खलनायकी के इस रूप को पुराने संस्करण के बदमाशों और लुटेरों की तरह पैसे की चाह भी नहीं थी। वह तो दुनिया को धू-धू करके जलता हुआ देखना चाहता था।

इसी आयाम को साकार करने के लिए नए बैटमैन का खलनायक बुराई को तो नए सिरे से संगठित करता ही है, वह अपने काले कारनामों को कुछ इस प्रकार नियोजित करता है कि
अच्छाई के सभी प्रतीकों के भीतर छिपी बुराई निकल कर सामने आ जाती है। खलनायक जोकर द्वारा किए गए इस कमाल में  आतंकवाद का विचारधारात्मक चेहरा देखा जा सकता है। उस पर सुपर हीरो की अतिमानवीय ताकत से  भी काबू नहीं पाया जा सकता।

जाहिर है कि अमेरिका को नई चाल के सुपर हीरो की जरूरत है। भले ही उसमें चमगादड़ या मकड़ी से लाई गई ताकत न हो, पर उसमें नए तरह के खलनायक और बुराई के नए संस्करण से लड़ने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए। शीतयुद्ध बहुत पीछे छूट चुका है। यह अल कायदा का जमाना है। सुपरमैन की आंख लोहे की दीवार के पार तो देख लेती है, पर आत्मघाती बॉम्बर के मन में नहीं झांक सकती। इसीलिए पुरानी चाल के तमाम सुपर हीरो आज अपनी व्यर्थता का सामना कर रहे हैं।

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