तिअनानमेन चौक, नन्दीग्राम और एक मक़्‍तूल सपना

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कभी फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने ‘सीज़र डेड इज़ मोर पावरफ़ुल दैन सीज़र अलाइव’ की तर्ज़ पर पैट्रीस लुमुम्‍बा के बारे में कहा था कि ‘एक मक़्‍तूल लुमुम्‍बा ज़िंदा लुमुम्‍बा से ज़्‍यादा ताक़तवर होता है’।  और एक मक़्‍तूल सपना? या वह सपना देखने वाली ज़बरन सुला दी गई अनगिनत आँखें? उस ख़्‍वाब के बारे में क्‍या कहिएगा फ़ैज़ साहब, जिसका क़त्‍ल करने के लिए उसे देखने वालों को ही टैंकों तले रौंद दिया गया हो? तिअनानमेन चौक पर आज से बीस बरस पहले जिस ख्‍वाब का क़त्‍ल हुआ था, जिन ख्‍वाबीदा आँखों की रौश्‍नी हमेशा के लिए बुझा दी गई, वह सपना कितना ताक़तवर है यह अभी दुनिया का देखना बाक़ी है। अभी तो दुनिया ने उसकी एक बानगी भर देखी थी: तिअनानमेन का ख़ून अभी सूखा भी न था कि समाजवाद के नाम पर फहरा रहा परचम – क्रॉन्‍श्‍टाड्‍ट के नाविकों से लेकर हंगरी 1956, चेकोस्‍लोवाकिया 1968 और न जाने कितने गुज़िश्‍ता तिअनानमेनों के ख़ून से लथपथ परचम – यकायक नोंच कर नीचे उतार दिया गया। जिनके दिमागों पर ताले लगे हैं वे कितना ही चिल्‍ला चिल्‍ला के कहते रहें, यह किसी साम्रज्‍यावादी की साज़िश का नहीं, ग़ुज़रे दिनों के प्रेतों का कारनामा था जो ख़ुद शासकों के ज़मीर में इस तरह जम कर बैठे थे कि वहाँ भी, अचानक किसी गोर्बाचोव का पैदा होना लाज़मी था जो ऐलानिया तौर पर यह कहने का माद्दा रखता कि बिना जम्हूरियत के समाजवाद हो ही नहीं सकता। और जैसे ही जम्हूरियत की तरफ़ क़दम बढ़ाते हुए उसने ज़रा सा ढक्कन हटाया, वैसा ही ज़माने से धधकता लावा फट कर सामने आ गया। एकबारगी ताश के महल की तरह वह पूरा का पूरा निज़ाम ही ढहा के ले गया।

4 जून 1989 को जब  ‘इन्टरनैश्‍नल’ की धुन और तरन्नुम को टैंकों की गड़गड़ाहट के नीचे दबा दिया गया था तब एक बार फिर यह बात साफ़ हो गई थी कि इस निज़ाम में और इस व्यवस्था में कोई इसलाह, कोई सुधार मुमकिन ही नहीं है। यक़ीन न हो तो मरिचझाँपी से नन्दीग्राम तक एक बार नज़र डालिए – एक ही किस्सा, एक ही कहानी सुनने को मिलेगी – बार बार, लगातार। स्‍टालिन या पॉल पॉट कोई अपवाद नहीं थे।  और न ही वे समाजवाद या साम्‍यवाद का निर्माण कर रहे थे। बीसवीं सदी का यह ऐतिहासिक तजरूबा क्‍या था इस पर अभी काफ़ी शोध और विचार विमर्श होना बाक़ी है। फ़िलहाल बस इतना कहा जा सकता है कि समाजवाद या साम्‍यवाद का सपना अगर कहीं जिंदा रहा तो इस कम्‍युनिस्‍ट नामधारी धारा से बहुत दूर। वह आज भी ज़िंदा है इसके कई सबूत आपको आज भी चीन ही में मिल जाएँगे। लातिन अमरीका में नए वामपंथ के उभारों में भी उसकी एक बानगी देखने को मिल सकती है।

पिछले दिनों क़ाफ़िला में ईश्‍वर दोस्‍त के लेख पर हुई बहस से एक बात फिर सामने आई – जिससे हम लगातार रूबरू होते रहे हैं: नन्‍दीग्राम के बाद भी हमारे मुल्क का पार्टीगत वामपंथी बुद्धीजीवी किसी भी क़ीमत पर कुछ सोचने की ज़हमत तो उठाना गवारा कर ही नहीं सकता, उससे यह भी पता चलता है कि जिनके दिमाग़ों पर पड़े ताले तिअनानमेन के बाद ने खुल सके वह नन्‍दीग्राम के बाद क्‍या खुलेंगे? आज भी पार्टी के गुलाम इन बुद्धिजीवियों के पास ‘फोर्ड फाउंडेशन’ और ‘अमरीकी साम्राज्यवाद’ जैसे थके हुए तर्कों के सिवा अपनी हार की व्याख्या के तौर पर कहने के लिए कुछ नहीं है।  जनता से वे और उनकी पार्टी जितना पिटती है, उतना ही तीखे स्वर में वह ‘साम्रज्यवादी साज़िश’ का रोना रोना शुरू करते हैं।

जिस ज़माने में तिअनानमेन की घटना घट रही थी मैं माकपा में बतौर ‘होलटाइमर’ काम किया करता था। मेरी ज़िम्मेदारी ट्रेड यूनियनों और पूर्वी  दिल्ली के इलाक़ों में काम की थी। छात्र आन्दोलन से निकले होने के कारण आमतौर पर पार्टी के इर्द-गिर्द के बुद्धिजीवियों से अच्छा खासा सम्बन्ध था। इन बुद्धिजीवियों में उन दिनों असाधारण बेचैनी दिखाई देती थी। चीन और तिएनानमेन के बारे में उनके अनगिनत सवाल थे। यह इत्तफाक़ नहीं है कि उन में से अधिकांश बाद में पार्टी छोड़ गए – मगर वामपंथी बने रहे। जो रह गए वे वे कुन्दज़हन लोग थे जिनके हाथ में बाद के वक़्‍त में पार्टी-धर्म बनाए रखने की ज़िम्मेदारी आई। इन लोगों के ज़हन में न तब कोई सवाल थे, न आज हैं। लकीर के फ़कीर।

ख़ैर, बात उन्हीं दिनों की है। मुझे बताया गया कि पार्टी ने एक ज़रूरी ‘जीबी’ मीटिंग रखी है और सबका उसमें शामिल होना अनिवार्य है। चीन के मसले पर ब्रीफ़िंग है। तो हम गए जी बी मीटिंग में। इन दिनों जो सज्जन महासचिव हैं उन दिनों दिल्ली राज्य कमेटी के सचिव हुआ करते थे। मीटिंग में व दहाड़े: ‘हमारे बुद्धिजीवी कॉमरेड एक खतरनाक भटकाव का शिकार हो रहे हैं। चीन के मसले ने उन्हें ऐसे झकझोर दिया है कि वे अपने क्रान्तिकारी नज़रिए से भटक गए हैं। कॉमरेड्स, यह पेटी बुर्जुआ भटकाव है जिसका डट कर मुक़ाबला करना होगा।’ हम हैरान थे। लेकिन महासचिव का भाषण जारी था: ‘हमारे मज़दूर साथियों में भटकाव नहीं है, क्योंकि वे वर्ग-चेतना से लैस हैं।’ अब मुझसे हँसी रोकी न गई। यह शख़्स जिसने ज़न्दगी में कभी कोई हाड़ मास का मज़दूर नहीं देखा वह मज़दूर वर्ग की वर्ग चेतना की दुहाई दे रहा है? इतने साल ट्रेड यूनियन में काम करते हुए मैंने जो वर्ग चेतना नहीं देखी वे इन्होंने अपनी ग़ैबी शक्ति से देख ली! मैं जिन मज़दूरों के साथ रोज़ उठता बैठता था चीन उनकी चेतना और सरोकारों से बहुत दूर था। एक बार – फ़क़त एक बार दो तीन नेता क़िस्म के मज़दूरों ने चीन का सवाल उठाया था। और तब, जिज्ञासा के स्वर में उन्होंने जो पुछा था (मुझे पार्टी का नुमाइंदा मानते हुए), वह हूबहू वही सवाल था जो भटके हुए बुद्धीजिवियों को उदवेलित कर रहा था: ‘कॉमरेड, यह चीन में क्या हो रहा है? यह तो समाजवादी सरकार का काम नहीं है।”

आज जब पूरे हालात के बारे में सोचता हूँ तो एक ही बात समझ आती है: जो तमाम कुँदज़हन, कायर लोग तब न बोल सके, उनकी नियति यही है कि वे, ताउम्र पार्टी नेताओं की ग़ुलामी करें और उनके सामने पापोश की तरह बिछे रहें। अवाम से अब इनका कोई सरोकार नहीं रह गया है। एक बात और: ग़ुलामी किसी अमूर्त ‘पार्टी’ की नहीं होती, होती है तो सिर्फ़ पार्टी नेताओं की ग़ुलामी।

2 thoughts on “तिअनानमेन चौक, नन्दीग्राम और एक मक़्‍तूल सपना”

  1. hame maaph kar dijiye, leiken hamare pass hindi ke keys nahi hai. buhut khuub aapne farmaiya adityaji, bahut khuub.
    mere walid ka intekaal ho gaya tha 1991. merne se pehle unhoone kaha, “ek sunehra sapna toot gaya.” mano jaise unki zindagi main t square ke hadse ke hoone ke baad koi tamanna hi jeene ki nahi reh gayi thi.
    left ki sabse badi kamjori auski shaan rahi hai, jiske khilaf woh koi awaaz nahi sunti. na toh india main usne yeh samajne ki khoshish kari ki yeha ke halaat main anter hai – jaati vad aur dharma, na ki “class” yaha ka mudda hai. aur phir nandigram jaise ghatne ke baat, usne apni ek aur batsurat roop dekhaya…
    mere walidji ka sapna tuta tha, phir bhi main umeed banai rakha. ab toh woh bhi katam ho gayi…

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  2. मुझे लगता है कि गुलामी अमूर्त पार्टी की भी होती है। पार्टी के भीतर सगुण और निर्गुण भक्ति दोनों में कोई विरोध नहीं है। यह सही है कि स्वतंत्र बुद्धि को जो थोड़ी सी अहमियत देते थे और जो जरा से खुद्दार थे, पार्टी से बाहर हो गए (खुद नहीं गए तो निकाल या हकाल दिए गए)। भाकपा में कई साल पहले हम लोगों ने हिसाब लगाया था कि वे ही लोग पार्टी में बचे हैं जिनका पार्टी से कोई आर्थिक या दूसरी तरह का हित सधता है, या जिनकी थाने या फैक्टरी के स्तर पर नेतागिरी चलती है( यहां भी आर्थिक हित हैं) या जो इतने बूढ़े या लाचार हो गए हैं कि अब कहीं ओर जा नहीं सकते या जो तरुणाई के दिनों में समाजवाद के ख्बाब के चारे से बांधकर पार्टी की और लाए गए हैं (और इस पोस्ट को पढ़ते हुए कहा जा सकता है कि जिन्हें अभी इन ख्बाबों की कत्लगाहों के बारे में पता नहीं है—हालांकि ऐसे लोगों में से ज्यादातर देर-सबेर भाग खड़े होते हैं)। बहुत थोड़े लोगों का पार्टी के बगैर टाइमपास नहीं होता (मूंगफली को वे बेहतर विकल्प नहीं मानते!) कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें वाम बकर-बकर की आदत पड़ जाती है। इन बेचारों के प्रति सहानुभूति के साथ सोचे जाने की जरूरत है। इनके स्नायु तंत्र में लाल सलाम- लाल सलाम सुन कर ठंडक पहुंचती है। विचारों को ये व्यर्थ समझते हैं। पार्टी आस्था के लिए देश और धर्म का स्थानापन्न बन जाती है, तो पार्टी नेता पंडे-पुजारियों का। पार्टी इनके जीवन में अर्थ भरती है! वह इस ‘ह्रदयहीन जगत का ह्रदय’, ‘उत्पीड़ितों की आह’ बन जाती है। वह कोई वास्तविक परिवर्तन न हो पाने के दर्द को मिटाने के लिए अफीम बन जाती है।
    मध्यप्रदेश में एक सीपीएम के दोस्त से मैंने एकबार कहा कि मैं अब स्वतंत्र वामपंथी हूं तो उसने मुझसे कहा था कि कामरेड कभी सोचना- पार्टी से स्वतंत्र होकर क्या कम्युनिस्ट हुआ जा सकता है। मैं कभी-कभी सोचता हूं… मुझे अब तक जवाब नहीं मिला है। क्या एक धार्मिक पंथ छोड़कर दूसरे पंथ में जाना जरूरी है। हमारे अंतिम संस्कार के वक्त क्या होगा? (लाल झंडे में बंध कर कूच करने का मोह भी कुछ लोगों को पार्टी छोड़ने नहीं देता)। जो किसी पंथ में नहीं जाते, वे कहीं चिमटा गाड़ कर अपना पंथ बना लेते हैं। या सर्व पंथ सद्भाव में विश्वास कर सब जगह अपनी स्वीकार्यता बनाने की कोशिश करते हैं।
    ( वैसे एक भेद खोलूं- कभी-कभी मेरे मन में भी आता है कि अच्छी सी जगह तलाश कर, लाल भभूत मल कर, कहीं चिमटा गाड़ दूं।)
    अलख निरंजन!!

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