बेलगाम हिंसा और मानवाधिकार आंदोलन का ज़मीर

1 सितंबर:31 अगस्त की रात पुरुलिया की अयोध्या पहाडियों में नौदुली गाँव में तीस हथियारबंद लोग घुसे , गांववालों को घर से न निकलने का हुक्म पुकार कर सुनाया, फिर वे लतिका हेम्ब्रम के घर में घुसे  जहां वह अपने पति गोपाल के साथ सोई थी. राइफल के कुन्दों से  लतिका को पीटते हुए उन्होने धमकी दी  कि उसे उन्होंने एक साल पहले ही सी.पी.एम. छोड देने को कहा था पर उसने अब तक यह किया नहीं और अगर वह अभी भई यह नहीं करती तो वे उसे जान से मार डालेंगे.  लतिका स्त्री है, ग्राम पंचायत की प्रमुख है, पर उसकी उसके पति के साथ जम कर पिटाई की गई. हवा में गोलियां दागते हुए वे  दस किलोमीटर दूर एक दूसरे गांव जितिंग्लहर पहुंचे और देबिप्रसाद के घर पहुंचे. देबीप्रसाद के मां-बाप इनके पैरों पर गिर पडे और अपने बेटे के प्राणों की भीख मंगने लगे. पर उसे ठोकर मार कर जगाया गया और छाती में दो गोलियां मारी गईं. देबी प्रसाद की मौत हो गई. देबीप्रसाद सी.पी.एम. का सदस्य था.
28 अगस्त:पश्चिम मिदनापुर के बिनपुर गांव में खेत में काम कर रहे मंगल सोरेन को कुछ मोटर साइकिलसवारों ने पुकारा और उसे  गोली मार दी. जैसे ही वह गिरने लगा, उन्होने कुल्हाडी से उसे काट डाला. मंगल सी.पी.एम.का सदस्य था.
28 अगस्त: रांची से 45 किलोमीटर दूर बुंडु मेंलगभग पचीस माओवादियों ने दिगम्बर  महतो के घर को घेर लिया, और अन्धाधुन्ध गोलियां चलाने लगे. महतो अन्देशा होने पर अपनी पत्नी के साथ पिछ्वाडे से भाग निकला लेकिन उसकी दो बेटियां अंदर सोई रह गईं. महतो ने सोचा कि छोटी बच्चियों पर कोई वार नहीं करेगा. लेकिन महतो के पुलिस के मुखबिर होने के आरोप में उसे सजा देने आए दल ने उसकी बारह साल की बेटी रीता कुमारी, मजदूर बुधनीदेवी, और दो कालेज छात्रों विजय प्रामाणिक और प्रदीप महतो को मार डाला. महतो की छोटी बेटी बच गई और अपनी ज़िंदगी के लिए अस्पताल में संघर्ष कर रही है.
27 अगस्त: लालगढ से तीस किलोमीटर दूर सिरसी गांव में करीब छह सौ गांववालों को एक हथियारबन्द दस्ते ने बन्दूक की नोंक पर जमा किया और उन्हें सी.पी.एम. छोड्ने को कहा. उन सबने नारा लगा कर सहमति दी. फिर उन्हें चार हिस्सों में बांट कर चान्दिलिया, बिनपुर, बेलिया और देउलडांगा गांवों में ले जाया गया जहां उन्होंने सी.पी.एम. के दफ्तरों को ध्वस्त कर दिया.

ये सारी खबरें कोलकाता से प्रकाशित होने वाले दैनिक द टेलिग्राफ से ली गई हैं. इन खबरों की सत्यता पर यह कहकर सवाल उठाया जा सकता है कि अखबार पूंजी के हितों का समर्थक है.लेकिन  इसी अखबार से हमें सिंगुर , नान्दीग्राम, नयाचार, लालगढ की खबरॆं मिलती रही हैं. और वे गलत नहीं थीं.
पिछले दिनों में हुई इन हत्याओं और अत्याचार के खिलाफ कहां अपील की जा सकती है? क्या कोई मानवाधिकार आयोग, कोई अदालत है जहां इनकी जांच के लिए विशेष दल गठित करने की मांग जा सके? इन सबके ऊपर यह सवाल है कि यह यह  मांग करे कौन?

शायद उनसे उम्मीद करना गलत न हो जो सिद्धांतत: मृत्युदंड के खिलाफ़ हैं! शायद उन्हें यह कहना चाहिए कि जैसे राज्य को मृत्युदंड देने का अधिकार नहीं है, वैसे ही गैरराजकीय किसी संस्था को, वह राजनैतिक हो या कुछ और, यह हक़ हासिल नहीं!! प्रश्न न्याय और नीति, दोनों का है. या क्या इसका उत्तर यह देकर छुट्टी पा ली जाएगी कि राज्य के दमन के चलते ही माओवादियों को बाध्य हो कर यह सब कुछ करने पर मजबूर होना पड रहा है? लेकिन माओवादी एकदम मजबूर होकर यह कर रहे हों,  इसका कोई सबूत कहीं से नहीं मिला है.लूटमार और कत्लोगारत का एक लम्बा सिलसिला देखा जा रहा है और कभी हमने माओवादियों की ओर से वैसा बयान भी नहीं देखा जो भगत सिंह के दल ने आतताई अंग्रेज़ अधिकारी की हत्या करते समय देना ज़रूरी समझा था कि वे मानव रक्त को पवित्र मानते हैं और किसी का खून बहाने पर उन्हें सुकून नहीं मिलता. शायद भगत सिंह का नाम लेना यहां असंगत है!

यह कहा जाना ज़रूरी है कि अगर सरकार द्वारा  लालगढ में माओवादी दल विरोधी अभियान के नाम पर स्कूलों को दखल करना गलत है तो हफ्तों तक सरकार विरोधी बन्द के नाम पर भी बच्चों को स्कूल से बाहर रखना उससे कम गलत नहीं है. प्रश्न उनकी पढाई का तो है ही, उनके दोपहर के खाने का भी है, जो स्कूल न जाने पर उन्हें नहीं मिल रहा है.
सी.पी.एम. को उसके अपराधों की सज़ा मिल रही है. हर स्तर पर वह सत्ता से बाहर की जा रही है. यह कोई बन्दूक के ज़ोर पर नहीं हो रहा. यह दशकों से गरीबी और पार्टी का ज़ुल्म सहते मामूली लोगों द्वारा एक साधारण मताधिकार का प्रयोग है. इस मत का अपहरण वे लोग नहीं कर सकते जो हथियार के ज़ोर पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं. झारखंड हो या छत्तीसगढ या ओडीसा , माओवादी उन जनांदोलनों द्वारा बनाई गई जगह का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिन्हें खडा करने में उन्होने पसीना नहीं बहाया है.  हथियार के बल पर वर्चस्व कायम करने की यह पुरानी बोल्शेविक तिकडम है जिसपर बात करना एक बड़ी जमात में धार्मिक दूषण माना जाता है.

माओवादी सैन्य कार्रवाई का विरोध करने के लिए ठीक उसी सांस में राज्य के आतंक का विरोध करना जो आवश्यक मानते हैं, वे संतुलनवाद के शिकार हैं और वे इस मांग का भी फिर विरोध नहीं कर पाएंगे जो हर राजकीय आतंक के विरोध के समय राज्य उनसे करता है कि आप माओवादी या गैर राजकीय हिंसा का विरोध तुरत क्यों नहीं कर रहे! संतुलनवाद और तुलनात्मकता वास्तव में नैतिक भीरुता के लक्षण हैं. जो गुजरात में मुसलमानों के कत्लेआम की निन्दा बिना गोधरा का नाम लिए नहीं कर पाते, उनकी नैतिक दृढ्ता के बारे में सोचा जाना चाहिए.
किसी भी हत्या का कोई औचित्य नहीं है. अगर हम राज्य से यह अपेक्षा करते हैं कि वह संविधान द्वारा तय विधिसम्मत तरीकों से अलग किसी और तरीके से कुछ न करे तो यह हमारे किसी मूल्य निर्णय के चलते होना चाहिए , नकि किसी फौरी रणनीति फैसले के तहत. जैसा पहले कहा गया , हत्या के प्रति हमारा रुख  न्याय  और नीति की हमारी बुनियादी समझ से और मानवाधिकारों की हर स्थिति में अनुल्लंघनीयता पर हमारे यकीन से भी जुडा हुआ है.

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