The following story/reminiscence is a guest post by SANTWANA NIGAM
नोट: फ़ायरफ़ॉक्स या ऑपेरा इस्तेमाल करने वाले पाठक कृपया पढ़ते वक़्त फ़ॉन्ट बढ़ाने के लिए ( Ctrl +) दबाएं।
संस्मरण
एक पुराने कॉमरेड की अंतिम यात्रा
“साला भैंचो गॉरबाचोव, कैपिटलिस्टों का एजेंट … सब तोड़-फोड़ कर चकनाचूर कर दिया। युगों की मेहनत के ऊपर खड़े महल को ताश के घर की तरह ढहा दिया। हरामी ने ग्लासनोस्त हूँ: चूतिया कहीं का” संझले भैया चोट खाए सांप की तरह फुंफकार रहे थे। हालाँकि मेरा मन भी उदासी की गहरी परतों के नीचे दब चुका था, फिर भी मैंने जैसे उन्हें दिलासा देने के लिए कहा “भैया याद है? स्टडी सर्कल में जब हम तुमसे प्रश्न पूछते थे तुम अकसर कहते थे – ‘इतिहास अपने रास्ते पर चलता है लेकिन बेतरतीबी से नहीं – कार्यकारण से जुड़ी होती है सारी घटनाए। सड़ी गली समाज व्यवस्था से ही उपजती है क्रांति वग़ैरह-वग़ैरह।’ शायद उस समाज में भी सड़न आ गई थी, नहीं तो भुरभुराकर ढह कैसे गया?” “अरे रखो तुम्हारी अधकचरी थ्योरीज़, ख़ाक समझती हो, ख़ाक़ जानती हो।” भैया चिड़चिड़ा कर बोले। “मुझे तो लगता है साम्यवाद फिर से वापस आएगा, शायद किसी और शक़्ल में” मैंने कमज़ोर-सी आवाज़ में कहा। “खाक़ आएगा।” यह कैपिटलिस्ट सिस्टम, यह कंज़्यूमरिज़्म का दानव सब कुछ निगल जाएगा। संझले भैया दहाड़े। हरियाणा के एक छोटे-से क़स्बे के मकान के आँगन में यह वार्तालाप चल रहा था। मैं अपने “पुराने कॉमरेड” भाई से मिलने गई थी। महीने में एक बार जाती थी – पिछले तीस सालों से ।
हमारे परिवार में राजनीति का यह आलम कि जैसे तो अलग अस्तित्व साबित करने के लिए अलग राजनीतिक पहचान भी होनी चाहिए। बाबा (पिता) घोर गाँधीवादी। ताजिंदगी कांग्रेस का काम किया, जेल गए। आज़ादी के बाद जब पद और ज़िम्मेदारी दोनों में से एक को चुनने की बात होती तो बाबा हमेशा पद को ठुकरा देते और ज़िम्मेदारी ले लेते। हर जगह नाम के आगे लगा रहता “आनेररी”। ऑनररी प्रेसिडेन्ट ऑफ़ कॉपरेटिव सोसाईटी, ऑनरेरी फलांना, आनेररी ढिमाकाना। बाबा के राजनैतिक जीवन से एकदम उदासीन माँ घोर हिन्दूवादी – जातपात, छुआछात, व्रत, उपवास की हिमायती पर मूर्ति पूजा? कतई नहीं – रामकृष्ण परमहंस की भक्त। बड़े भैया रैडिकल ह्यूमैनिस्ट और हम बहने बाबा की पिछलग्गू। महिला कांग्रेस की सदस्याएँ। सन् 42 में बाबा तीसरी बार जेल गए। संझले भैया ने तभी इंटर पास किया था। बस आगे पढ़ने का इरादा छोड़ नेवी ज्वाइन कर ली। रेटिंग थे – बंबई के किसी जहाज़ में। हर महीने माँ के पास मनीऑर्डर आता था। दो ढाई साल यह सिलसिला चलता रहा। फिर मनीऑर्डर नदारद और कोई ख़बर भी नहीं। बहुत खोजख़बर के बाद यही पता चला कि बंबई मैं ही हैं और ठीक हैं। सन् 46 में बाबा लौट आए और बिखरा परिवार समेटने में लग गए। तभी एक दिन हमारे घर की कुंडी खड़की और खोला तो संझले भैया बाहर खड़े थे।
सफ़ेद आधी बांह की कमीज़, सफ़ेद हाफ़ पैंट, काला, दुबला लंबा शरीर। सफ़ेद दाँतों की बत्तीसी दिखाते बोले ‘‘जेल से आ रहा हूँ।’’ जेल ? जेल क्यों? तुम भी बाबा की तरह … ? नहीं नहीं अंदर तो चलो बताता हूँ।
सुबह की धूप में आँगन में हम बहनें और माँ बैठे हैं और संझले भैया बता रहे हैं – हमसे डैक पर झाडू लगवाते थे। पाखाना साफ़ करवाते थे, बात-बात पर गाली देते थे। सफ़ेद चमड़ी वाले अफ़सर। तो हम सबने स्ट्राइक कर दी और जो लोग हड़ताल में शरीक हुए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। तीन महीने जेल काटी। जेल में ही मन पक्का कर लिया था कि अब अंग्रेजों की गुलामी नहीं करनी है और बस घर आ गया। आज़ादी के कुछ ही पहले ‘‘नेवल म्यूटनी’’ में शरीक हुए थे संझले भैया, एक अदना से रेटिंग के रूप में।
बाबा के जेल से लौटने के बाद हम तीनों बहनें फिर से स्कूल जाने लगीं। बाबा ने छोड़ी हुई वकालत फिर से शुरू की लेकिन संझले भैया के लिए बाबा का मन अपराध बोध की भावना से भरा रहता। ‘‘क्या करने को मन चाहता है ?’’ बाबा ने पूछा। ‘‘पता नहीं’’। ‘‘खेती करोगे’’ ? ‘‘देखता हूँ’’। पच्चीस बीघा ज़मीन ख़रीदी गई पास के गाँव में। एक छोटा-सा एक कमरे का मकान भी बनाया गया। भैया सुबह साइकिल उठाते और गाँव चले जाते। फिर कुछ दिन बाद वहीं रहने लगे। शनिवार इतवार को घर आते। दोस्तों से कहते ‘‘मन नहीं लग रहा। तभी माँ बहुत बीमार पड़ी और इलाज के लिए पानी के भाव ज़मीन बेच दी गई। कुछ पैसा इलाज में लगा और बाकी के बचाकर बाबा ने भैया से पूछा ‘‘पॉलट्री फॉर्म चलाओगे ?’’ भैया ने कहा ‘‘देखता हूँ।’’ फिर कुछ दिन मुर्गी पालन का शगल चला जो फेल हो गया। भैया फिर घर में। अब की बार बाबा ने पूछा ‘‘आगे पढ़ोगे ?’’ भैया ने कहा ‘‘हाँ, पर साइंस नहीं।’’ भैया पढ़ने लगे। प्राइवेट बी.ए. किया, फिर बी.टी., फिर मास्ट्री करते हुए अंग्रेज़ी में एम. ए. कर लिया।
हमारे घर के सामने बड़ा-सा बरामदा था। उसके दोनों सिरे पर दो छोटी-छोटी कोंठरियाँ थीं। आठ बाई आठ की। एक में स्टोर था, दूसरी कोठरी संझले भैया को दी गई थी। चारपाई की जगह थी नहीं। सो ज़मीन पर ही बिस्तर लगा रहता था। ठंड के दिनों में मोटा गद्दा बिछा दिया जाता था। भैया अपनी कोठरी का दरवाज़ा हमेशा बंद रखते थे। हमारे लिए वहाँ जाना वर्जित था।
उन्हीं दिनों संझले भैया की गतिविधि कुछ अज़ीब-सी हो गई थी। रात के बारह बजे आते। रसोई में ढका हुआ ठंडा खाना खाते। देर से सोते और देर में उठते और अक्सर ही साइकिलों पर उनके दो तीन दोस्त आते। कोठरी में घुस जाते, धुंआधार बहसें होतीं। मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, बुर्जुआ, पैटीबुर्जुआ, कैपिटलिज़्म जैसे शब्द बंद किवाड़ों की दरार से छन कर आते। बाबा की भौंह सिकुड़ी रहती – यह जान कर कि बेटा साम्यवाद की दीक्षा ले रहा है – पर कहते कुछ नहीं।
एक दिन भैया और उनके दोनों कॉमरेड दोस्त शाम को जाने कहाँ से आए और भैया आते ही गुसलखाने में चले गए, उबकाई रोकते हुए। जब मुँह धोकर अपनी कोठरी में घुसे। उन्हें बड़ी झिड़कियाँ पड़ रही थीं। ‘‘कुछ नहीं यार, तुम्हारे इन पैटी बुर्जुआ संस्कारों को मरने में बहुत समय लगेगा। तुम सर्वहाराओं के साथ घुलमिल कर काम करने लायक नहीं हों। ‘‘बाद में भैया ने बताया कि दोनों कॉमरेड जमादारों और क्लास फोर कर्मचारी यूनियन के नेता थे। भैया को एक जमादार के घर खाना खिलाने ले गए थे। तब फ्लश का जमाना नहीं था। जमादार की टूटी-फूटी झोंपड़ी में तीनों चटाई पर बैठ गए थे। मुड़ी-तुड़ी अल्यूमिनियम की थाली में दाल रोटी पर परोसी गई थी। जो उन दोनों पुराने कॉमरेडों ने मज़े से खाई, लेकिन संझले भैया खा न पाए, उबकाई दबाते बैठे रहे। और घर आकर यह था उनका दीक्षारंभ। तो संझले भैया की मिडल क्लास मानसिकता का ख़्याल कर पार्टी न उन्हें टीचर्स यूनियन सभालने का काम सौंप दिया। जिसे संझले भैया अध्यापन के पहले दिन से रिटायरमेंट की आख़िरी तारीख़ तक निभाते रहे।
संझले भैया अंग्रेज़ी पढ़ाते थे। हरियाणा का एक छोटा-सा क़स्बा सोनीपत – वहाँ छोटूराम आर्या कॉलेज़ में। कहते थे – ‘‘चैलेंज़ है यहाँ पढ़ाना।’’ शोक्सपीयर, मिल्टन, वर्डस्वर्थ शेली को हिन्दी में पढ़ाना पड़ता है। अंग्रेज़ी में बोलो तो स्टूडेंट्स पूछते हैं, ‘‘कै कै रैओ मास्साब, समझ नहीं आता, हिन्दी में समझाओ।’’ ‘‘इफ़ विंटर कम्स कैन स्प्रिंग बी फॉर बिहाइंड’’ यहाँ तक हिन्दी में समझाया जा सकता है पर “ट्रंपैट ऑफ़ प्रॉफेसी ओ विंड” (भविष्यवाणी के भोंपू ) को समझाना? पर गाड़ी चल ही रही है। पास हो जाते हैं तो घी का टीन, गुड़ की भेली लेकर आ धमकते हैं। साफ़दिल, नेक जाट विद्यार्थी। भैया पूरी लगन से पढ़ाते और टीचर्स यूनियन और जाने कितने और यूनियनों का काम जोरोशोरों से चलता।
धर्म, अंधविश्वास, रीति-रिवाज़ों को भैया ने जैसे अपने जीवन और परिवार से देश निकाला दे दिया था। पर कभी-कभी समझौते तो करने ही पड़ते हैं – भैया को भी एकबार करना पड़ा था बड़े हास्यकर ढंग से।
बीस वर्ष पहले बाबा गुज़र गए थे। बाबा विश्वासी थे पर कर्मकांडी नहीं। पर माँ क्रिया-कर्म श्राद्ध शांति पर विश्वास करती थीं। वे ज़िद करने लगी कि तेरहवीं पर ब्राह्मण भोजन कराया जाए। संझले भैया भड़क उठे ‘‘ब्राह्मण भोजन।’’ मैं किसी साले ब्राह्मण को नहीं खिलाऊँगा। सालों ने देश और समाज का मटिया मेट करके रख दिया है हूँ: ब्राह्मण भोजन। माँ दुखी थीं – तेरे बाबा की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी, भटकते रहेंगे। ‘‘गांधी जी के भजन गवा देंगे’’ भैया बोले। माँ ने फिर रट लगाई – सिर्फ़ पाँच ब्राह्मणों के खिलाने से ही चलेगा। बहस और गरमा गरमी बढ़ती गई तो मैंने सुझाया ‘‘भैया आपके दो सबसे करीबी दोस्त वशिष्ठ और शर्मा जी तो ब्राह्मण ही है न। ऐसा करो वशिष्ठ जी और उनका बेटा, शर्मा जी और उनका बेटा और हमारा भाँजा (छोटी बहन ब्राह्मणों के घर ब्याही थी) हो गए पाँच। और इन पाँचों को बुलाकर खिलाया गया। वे खाते समय हँसते रहे कि वाह कॉमरेड, तो ब्राह्मण भोजन हो ही गया। कोई बात नहीं, माताजी के दिल को शांति मिली और वैसे भी हम कम्युनिस्टों के लिए तो ‘‘एंड्स जस्टिफाइ द मीन्स’’। ‘‘हरि ओम’’ कहकर एक बड़ी-सी डकार ली। और डकार की भरपूर आवाज़ को डुबाते हुए भैया दहाड़े – अबे ब्राह्मण की औलादों को नहीं अपने कॉमरेड दोस्तों को खिला रहा हूँ और माँ का मन रख रहा हूँ।
उन दिनों मैं महाश्वेता देवी का उपन्यास ‘‘अग्निगर्भ’’ पढ़ रही थी। पूरी ज़िंदगी पार्टी के लिए काम करने के बाद किसी एक तथा कथित पार्टी विरोधी काम के कारण, पार्टी से निकाले हुए ‘‘काली सांतरा’’ का जीवन। मैंने भैया से पूछा ‘‘तुमने पढ़ा है यह उपन्यास ?’’ हूँ, पढ़ूँगा क्यों नहीं। मेरी ही ज़िंदगी पर तो लिखी हुई है। मैं ही हूँ काली सांतरा। मैंने हैरान होते हुए पूछा – मगर उसको तो पार्टी से निकाल दिया गया था ? तो मैं भी तो एक्सपेल्ड हूँ। ‘‘कब से’’ ? ‘‘सालों हो गए।’’ लेकिन तुम तो अब भी स्टडी सर्कल चलाते हो। कॉलेज़ के नए कॉमरेड के गुरू हो ‘‘तो क्या हुआ ?’’ “मार्क़्सवाद से मेरी क्या दुश्मनी है?” फिर उन्होंने मुझसे पूछा ‘‘तुझे मेलाराम की याद है?’’ हाँ हाँ, पहले सरदार थे लेकिन फिर दाढ़ी – बाल कटवा लिए गए। और पार्टी ऑफ़िस में ही रहते थे। चाय बगान के यूनियनों के नेता। भैया बोले, ‘‘हाँ, पैंतालीस साल बाद उसे पार्टी से निकाल दिया गया था। पार्टी विरोधी काम के लिए। पिछले साल आया था यहाँ मुझसे मिलने । मैंने पूछा था ‘‘क्या करोगे अब ?’’ वह रोने लगा फूट-फूट कर। कहा – कॉमरेड, जैसे बहुत बड़े मेले में कोई बच्चा खो जाए, मेरी हालत वैसी ही है। मुझे अपना गाँव, अपना परिवार, अपने रिश्तेदार कोई भी याद नहीं। मैंने तो सबको भुला दिया था और सब मुझे भूल गए हैं। मैंने पूछा ‘‘जाओगे कहाँ, सोचा है कुछ ?’’ आँखें पौंछकर बोला ‘‘फिर से प्राइमरी मेंबरशिप ले लूँगा। अब पहले की तरह सख़्ती नहीं होती न। मेरी दुनिया तो वही है – पार्टी ऑफ़िस के कोने में पड़ी चारपाई और पार्टी का काम, चाहे वह कुछ भी हो।” गहरी उदासी से हमने बातचीत का रूख मोड़ दिया था।
और फिर एक दिन संझले भैया रिटायर हो गए। एक मकान उन्होंने भाभी के कहने पर बना लिया था लेकिन न कूलर, न टी.वी. और न कोई कनज़्यूमर कल्चर का सामान। ज़िंदगी भर साइकिल चलाते रहे। रिटायरमेंट के कुछ दिन पहले एक सैंकेड हैन्ड फ्रिज़ ख़रीद लिया था। एक अख़बार लेते थे, वह भी बंद कर दिया। इसी समय उनकी शादीशुदा बेटियों ने मौक़ा देख टी.वी. कूलर आदि सामान लाना शुरू कर दिया कि माँ के लिए है। तुम्हारी कॉमरेडी के चलते तो बेचारी इन चीज़ों से वंचित ही रही। अब तो थोड़ा आराम से रहने दो। झखमार कर भैया भी टी.वी. देखते और धुंआधार गालियाँ बकते कि किस तरह यह सड़ा गला उपभोक्तावाद नई पीढ़ी को खोखला कर देगा, कि टी.वी. में कभी कोई ग़रीब दीखता ही नहीं। न्यूज़ को छोड़कर। जैसे तो इस देश में ग़रीब हैं ही नहीं। “और सीरियल ? उनमें कंपनी, शेयर ख़रीदना, बड़ी नौकरियाँ, आलीशान घर और एक्स्ट्रा मेरिटल संबंध” संझले भैया गुस्से से फनफनाते।
कोई सालभर पहले संझले भैया को दिल का दौरा पड़ा। मिलने गई। अपने सोने के कमरे में खिड़की के पास पड़ी कुर्सी पर लुंगी बनियान पहने बीड़ी पीते हुए बैठे थे भैया। पास की मेज़ पर हृदय रोग की हिन्दी, अंग्रेज़ी, बांग्ला में ढेरों किताबें पड़ी थीं। मैंने कहा, ‘‘अब तो बीड़ी पीनी छोड़ दो भैया। ’’ भैया हंसे, कमज़ोर सी हंसी। बोले ‘‘हाँ डॉक्टर भी कह रहा था’’ “मास्साब, दिल और फेफड़े का बुरा हाल है। बीड़ी तो छोड़नी पड़ेगी और ड्रिंक भी एक दो पेग से ज़्यादा नहीं। मैंने डॉक्टर से कहा “भाई, यह बीड़ी तो मेरा चालीस साल का साथी है, इसे कैसे छोड़ दूँ। और उन्होंने आधी पी बीड़ी को एशट्रे में ठूंस दिया।
निन्यानवे के चुनाव हो रहे थे। भैया का फ़ोन आया। बड़ी उदास आवाज़ में बोले ‘‘वोट देकर आ रहा हूँ।’’ पहली बार हम लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया। कोई चारा नहीं था। हाथ या कमल। मैंने कहा ‘‘मैंने भी पहली बार आँख बंद कर ‘हाथ’ पर ठप्पा लगाया। पर मुझे ज़्यादा बुरा नहीं लग रहा भैया, ‘‘यू हैव टू चूज़ द लेसर ईविल।’’
दिसम्बर के एक उजले इतवार को आख़िरी बार संझले भैया से मिलने गई थी। उस छोटे से गंदे कस्बे में। इतनी गंद पचास सालों में। सड़कें ऊबड़-खाबड़, कूड़े के ढेर पर सूअर घूमते – लेकिन बड़ी-बड़ी कोठियाँ, सड़क के दोनों और कम्प्यूटर का साइबर कैफ़े, एस.टी.डी., आई.एस.डी. बूथों की दुकानों की भरमार। रिक्शा से उतरी तो भैया अपने घर के पास वाले पार्क में बिखरी पॉलीथीन की थैलियाँ उठा रहे थे। मैंने पूछा ‘‘यह क्या कर रहे हो ?’’ गंद साफ़ कर रहा हूँ। अमीर देशों का हम ग़रीब तीसरी दुनिया को वरदान के रूप में दिया हुआ अभिशाप’’
घर आकर उन्होंने मकान के पिछवाड़े लगी सब्जी की क्यारियाँ दिखाई। ‘‘आजकल यही करता हूँ’’ थोड़ी देर चुप रह कर बागवानी के सब नुस्खे बताने लगे। न पहले जैसा गुस्सा, न गालियाँ की बौछार। जैसे भैया ने हथियार डाल दिए थे। मैंने कहा ‘‘कुछ दिन बेटियों के घर रह आओ, चेन्ज हो जाएगा।’’ भैया ने तल्ख़ी से कहा, ‘‘कोई फ़ायदा नहीं, आइ ऐम डेस्टिंड टु डाई इन दिस डस्टी एण्ड डर्टी प्लेस’’। हैरानी हो रही थी मेरे कॉमरेड भैया ‘‘डेस्टिनि’’ की बात कर रहे हैं ? तब क्या …..?
दिसम्बर का आख़िरी दिन। गहरी धुंध से पूरा क़स्बा ढ़का हुआ। अंतिम यात्रा की तैयारियाँ हो रही है। उपस्थित लोगों में हर चीज़ में मतभेद हो रहा है। मोहल्ले के बंगाली अपने, रीति-रिवाज़ों की हिमायत कर रहे हैं और सारी ज़िंदगी जिनके साथ बिताई वे हरियाणा के पड़ोसी दोस्त अपने। ऐसा करो, ऐसा न करो। यह रीत है – हमारे में ऐसा नहीं करते। अरे सूरज डूब गया तो … जल्दी करो। अरे अग्नि देकर चले आना …. नहीं चिता बुझाकर उसी दिन फूल लाना होता है बंगालियों में … घी का डब्बा कहाँ है ? और चंदन की लकड़ी ? मैंने मन ही मन कहा ‘‘यह भी कोई बात हुई भैया ? बोलते क्यों नहीं कुछ ? गालियों की बौछार कहाँ गई अब? हम सब बैठे हैं सुनने और तुम हो कि सीने पर दोनों हाथ बाँध आँखें बंद किए चुपचाप लेटे हो ?’’ सोच रही थी जिस आदमी ने ज़िंदगी भर कुछ नहीं माना उसके लिए क्या करना चाहिए? क्या सही है? जो मर गया उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ सब हो या जो रह गए उनकी उनके मन की खुशी के मुताबिक़ सब किया जाए – चेहरा ढ़क दो ‘‘हरियाणवी पड़ोसियों ने कहा।’’ नहीं नहीं चेहरा खुला ही होना चाहिए, बंगाली पड़ोसी बोले। बहसें होती गई। फिर कुछ देर बात हरियाणवियों ने मैंदान छोड़ दिया और अपने प्रियजनों के कंधों पर सवार संझले भैया चल दिए।
‘‘बोलो हरि, हरि बोल – बोलो हरि हरि बोल’’शावयात्रा काफ़ी आगे बढ़ गई थी। बोलो हरि … मुझे लगा अभी संझले भैया सर उठाकर दहाड़ उठेगें – यह क्या हो रहा है? बंद करो यह बक़वास – भाड़ में गया हरि और हरि बोल – अरे कमबख़्तों, मर गया हूँ तो क्या … हूँ तो अब भी कॉमरेड ही …
शवयात्रा गहरे धुंधभरी सड़क के मोड़ पर ओझल हो गई थी।
लेखिका – सांत्वना निगम
सी-5 प्रेस एन्कलेव
नई दिल्ली 110017
It was nice to read. My memories were refreshed all over again………. kolpi
LikeLike
Can not say thoroughly enjoyed it! But yes, marmik is the word in Hindi, and there is so much to think about here, really.
Kitna mushkil hai yadon ka safar
socha tha chupchap guzar jaunga
But Shukriya Santwana ji for this difficult and different post.
ravikant
LikeLike
सान्त्वना जी के लिए शानदार संस्मरण और जिंदादिल इंसान के चित्रण के लिए बधाई।
LikeLike