माओवादी हिंसा जायज़ है या नाजायज़? यह तसल्ली की बात है कि इस सवाल पर अब बहस शुरू हो गई है. इस प्रश्न पर बात करने का अर्थ यह नहीं है कि राज्य हिंसा का विरोध छोड दिया जाए. छत्तीसगढ़ में ”ऑपरेशन ग्रीन हंट” की व्यर्थता के बारे में और कोई नहीं , पंजाब के ” हीरो” के.पी.एस.गिल बोल रहे हैं. वे कोई झोला वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता नहीं, जिनकी चीखो-पुकार को दीवानों की बड़ मान कर आज तक राज्य और पूंजी के पैरोकार नज़रअंदाज करते आए हैं. दांतेवाडा में दो दशकों से अधिक समय से काम कर रहे हिमान्शु ठीक ही पूछते हैं कि हर बार छत्तीसगढ़ के गाँवों में राज्य की ओर से पुलिस या अर्धसैनिक बल ही क्यों भेजे जाते रहे हैं, डाक्टर, आंगनवाडी कार्यकर्ता या शिक्षक क्यों नहीं! इस देश के आदिवासियों के लिए राज्य का अर्थ क्या रह गया है?हमारे मित्र सत्या शिवरामन ने भी यह सवाल किया कि राज्य को आदिवासियों की सुध बीसवीं सदी के आखिरी दशकों में क्यों आयी? क्या इसका कारण यह था कि उसे यह अपराध बोध सालने लगा था कि उसकी विकास योजनाओं के लाभ से राष्ट्र का यह तबका छूटता चला गया है? या क्या इसकी ज़्यादा सही वजह यह थी कि देश और विदेश की पूंजी को अब अपने लिए जो संसाधन चाहिए, वे जंगलों की हरियाली में छिपे हुए हैं और उस ज़मीन के नीचे दबे पड़े हैं, जिन पर आदिवासी ‘हमारे’ इतिहास के शुरू होने के पहले से रहते चले आ रहे है! क्या राज्य को यह अहसास हुआ कि वह इस संपदा से अब तक वंचित रहा है और इसकी वजह आदिवासियों का पिछडे तरीके से रहना ही है? पूंजी की नए संसाधनों की खोज और आदिवासियों के विकास में राज्य की दिलचस्पी का बढ़ना, क्या ये दो घटनाएं एक ही साथ नहीं होती दिखाई देती ?
राज्य के लिए आदिवासियों के विकास का अर्थ उन्हें उस जंगल और ज़मीन से अलग करना है जो इस विकास की भाषा में ”प्राकृतिक संसाधन” कहे जाते हैं. आदिवासियों के लिए वे उनके जीवन से अभिन्न रहे हैं. जिसे वह पिछडेपन से आदिवासियों की मुक्ति बताना चाहता है, अधिक सही शायद यह कहना हो कि वह वस्तुतः इस जंगल, ज़मीन और खनिज संपदा को आदिवासियों से मुक्त करने का खूबसूरत नाम है.
आदिवासियों की मुक्ति जैसे राज्य का मिशन है, वैसे ही माओवादियों का भी. यह सवाल भी सत्या ने कई बार उठाया है कि आखिरकार माओवादियों को जंगल ही क्यों रास आते हैं? क्या आदिवासियों से हमदर्दी की वजह से? क्या इस कारण कि मार्क्स ने जिसे सर्वहारा कहा था, वह अब कल-कारखानों में नहीं पाया जाता? किसानों को लेकर तो पहले से ही मार्क्सवादी परियोजना में एक संभ्रम का भाव रहा है. वे क्रान्ति के अगुवा दस्ते में शामिल नहीं किए जा सकते, हाँ, ”टैक्टिक्स” के कारण उन्हें क्रान्ति के काम लाया जा सकता है! फिर आदिवासी, जो उत्पादन की पद्धति हो या उत्पादन सम्बन्ध हो, अत्यंत पिछडी अवस्था के प्रतिनिधि हैं , मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित क्रान्ति के अभियान में अगुवा दस्ते में कैसे शामिल हो सकते है? जो लोग इस बात के लिए माओवादियों का शुक्रिया अदा करना चाहते हैं कि उन्होंने पहले पहल आदिवासियों की दारुण अवस्था की और ध्यान दिलाया, वे इस सैद्धांतिक और वैचारिक समस्या से गुजरे नहीं, जिसे सुलझाना किसी भी मार्क्सवादी के लिए ज़रूरी होगा, इस रहस्य से पर्दा उठाने के लिए कि माओवादियों को जंगल और आदिवासी क्यों प्रिय हो उठे हैं? क्या मार्क्सवादी शब्दावली में ” बुनियादी अंतर्विरोधों” का चरित्र बदल गया है? क्या क्रान्ति की संभावना खिसक कर अब आदिवासी समुदाय में आ गयी है?
सैद्धांतिक तौर पर इस समस्या का विवेचन माओवादी सिद्धांतकार करने में दिलचस्पी रखते हों, ऐसा कोई प्रमाण अब तक मिला नहीं है. तो फिर जो नतीजा हम निकाल सकते हैं वह यह कि जैसे आदिवासियों में राज्य की करुणा रणनीतिक है, वैसे ही आदिवासी माओवादियों के लिए वक्ती तौर पर चुने गए रणनीतिक ”कवर” हैं. माओवादियों का मकसद राज्यसत्ता पर कब्जे का है. रास्ता संसदीय लोकतन्त्र का नहीं, सशस्त्र क्रांति का है. वह भी ”छापामार युद्ध” का.
माओवादियों की इस योजना के लिए जंगल उपयुक्त हैं. सिर्फ छापामार दस्तों के छिपने के लिए नहीं, बल्कि शुद्ध आर्थिक कारणों से भी. माओवादियों की यह ”रक्त वीथिका” आर्थिक दृष्टि से उपयोगी है. राज्य के अधिकारियों के लिए जैसे आदिवासी बहुल ये इलाके लूट के स्रोत हैं, जैसा छत्तीसगढ़, झारखंड या दूसरे आदिवासी क्षत्रों में अब तक का उनका आचरण बताता है, वैसे ही माओवादियों के लिए भी ये क्षेत्र साधन या स्रोत हैं. कम से कम इस मामले में गृह मंत्री सही बोल रहे हैं कि माओवादियों को कहीं बाहर से आर्थिक मदद नहीं मिल रही है. आदिवासी क्षेत्रों में राज्य संपोषित विकास योजनाओं का पैसा ही माओवादी क्रान्ति के काम आ रहा है. भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों और ठेकेदारों का जो गठजोड़ आदिवासियों के नामं पर दी गए साधन को हड़प करता रहा है, वह माओवादियों को इस लूट का हिस्सा देकर निधड़क अपनी लूट जारी रखे हुए है. माओवादियों का मकसद इस लूट को रोकना नहीं, अपने कब्जे के इलाके में विस्तार करना है. इसलिए पलामू में भयानक सूखे से मौत से जूझ रहे आदिवासियों के लिए राहत का संघर्ष माओवादियों के एजेंडे पर नहीं, वह क्षुद्र संसदीय दलों का काम है कि वे धरना, प्रदर्शन , हड़ताल जैसे गए-गुजरे तरीको से राज्य पर दबाव डाल कर इस क्षेत्र के लिए पैसे का इंतजाम करें. माओवादी इस पैसे के आने का इंतजार करेंगे, और इसमें से अपने हिस्से की वसूली करके सतत क्रान्ति की राह हमवार करने का उदात्त कार्य करेंगे.
आदिवासियों का विकास जैसे इस राज्य के लिए दरअसल पूंजी के लिए उनके और प्राकृतिक ‘ संपदा’ के बीच के अनिवार्य सम्बन्ध को हमेशा के लिए तोड़ कर उस संपदा पूंजी के सतत विकास के लिए हासिल करने का तरीका है, उसी तरह माओवादियों के लिए आदिवासी क्रान्ति की सतत परियोजना के लिए उपयोगी साधन हैं. इसी वजह से अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में आदिवासियों की ह्त्या में जैसे राज्य को कोई हिचक नहीं, वैसे ही माओवादियों को भी, जब वे इस इतिहास प्रदत्त दायित्व के रास्ते में रुकावट बनते दिखाई दें, तो उनके सफाए से उन्हें कोई परहेज नहीं .