पीर पराई जानै कौन?: कुलदीप कुमार

Guest post by KULDEEP KUMAR

अज्ञेय की प्रसिद्द कविता-पंक्तियाँ हैं:

“दुःख सबको मांजता है/
स्वयं चाहे मुक्ति देना वह न जाने/
किन्तु जिनको मांजता है/
उन्हें यह सीख देता है/
कि सबको मुक्त रखें.”
लेकिन दुःख की इस सीख पर क्या कोई अमल भी करता है? पुराना या आज का इतिहास तो इसकी गवाही नहीं देता. बल्कि देखने में तो यह आता है कि दुःख के भी खाने बन जाते हैं. हमें केवल अपना या अपनों का दुःख ही दुःख लगता है. पराई पीर जानने वाले वैष्णव हम नहीं हैं.

जबसे सुना है कि ओसामा बिन लादेन की ह्त्या उसकी दस-बारह साल की बेटी की आँखों के सामने हुई, तभी से विचलित हूँ. मुझे मालूम है कि आज जिस तरह की फिजा बन गयी है, उसमें यह कहना भी जोखिम से खाली नहीं है. मुझे ओसामा बिन लादेन के प्रति सहानुभूति रखने वाला घोषित किया जा सकता है. उसकी बेटी को तो पता भी नहीं होगा कि उसका बाप वाकई में क्या था. क्या उस बच्ची का दुःख इसलिए कम हो जाता है क्योंकि वह ओसामा की बेटी है? हम लोगों ने अपने लिए जिस तरह के तर्क गढ़ लिए हैं, उनके अनुसार तो इस बच्ची के दुःख के बारे में सोचना और बात करना भी आतंकवाद के प्रति सहानुभूति दिखाना होगा.

इसीलिए नरेन्द्र मोदी को साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बों में जलकर तड़प-तड़प कर मरने वाले कारसेवकों का दर्द और दुःख तो विचलित करता है, लेकिन गुलबर्गा सोसायटी में लगाई गयी आग में जलकर मरने वाले अहसान जाफरी और उनके जैसे अन्य लोगों का दर्द और दुःख नहीं. हमारे देश में थोड़े-थोड़े अंतराल पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों में अनेक वच्चे-बच्चियों के सामने उनके मां-बाप मार दिए जाते हैं. उनका दुःख भी उनके समुदाय के लोगों को ही विचलित करता है, दूसरों को नहीं. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नात्सी नेताओं और जनरलों पर न्यूरेमबर्ग में मानवता के खिलाफ अपराध करने के आरोप में मुकदमें चलाये गए, लेकिन किसी ने यह नहीं पूछा कि हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराकर लाखों लोगों को मारने और लाखों अन्य को अगली कई पीढ़ियों तक उसके परिणाम भुगतने के लिए छोड़ने वाले अमेरिका ने मानवता की कौन सी सेवा की? यही नहीं, हिरोशिमा पर यह कहर बरपाने के ठीक तीन दिन बाद उसने नागासाकी पर एक परमाणु बम और गिरा दिया जिसकी किसी भी दृष्टि से कोई ज़रुरत नहीं थी. इन दोनों परमाणु हमलों के कारण मरने और घायल होने वाले लगभग सभी निर्दोष नागरिक थे, युद्ध में भाग लेने वाले सैनिक नहीं. लेकिन इसे मानवता के खिलाफ अपराध नहीं माना गया. ठीक वैसे ही जैसे संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के कारण ईराक में कम-से-कम पांच लाख बच्चे दूध और दवाई के अभाव में मर गए. लेकिन उनकी मौत से कोई विचलित नहीं हुआ. विडंबना यह कि जब सद्दाम हुसैन पर मुकदमा चला, तो वह भी केवल इस आरोप में कि उन्होंने 135 व्यक्तियों की ह्त्या कराई थी. लेकिन पश्चिमी देशों की मदद से बनाई गयी रासायनिक गैसों को कुर्दों पर छोड़ कर उन्होंने हज़ारों कुर्दों की जान ली, इस का ज़िक्र तक नहीं किया गया. ओसामा बिन लादेन को भी केवल मुसलमानों का दुःख-दर्द विचलित करता था. उसके नेतृत्व वाले अल-कायदा और अन्य आतंकवादी संगठनों द्वारा मारे गए निर्दोष लोगों और उनके परिजनों का दुःख-दर्द नहीं. ओसामा की हत्या के बाद पाकिस्तान के क्वेटा और लाहौर शहरों में हुए प्रदर्शनों और नमाज़-ए- जनाज़ा में शामिल होकर फफक-फफक कर रो रहे लंबी-लंबी दाढी वाले अधेड़ और बुज़ुर्ग लोगों को भी आतंकवाद के शिकार इन निर्दोष व्यक्तियों की कोई परवाह नहीं थी. न्यूयॉर्क हो या मुंबई, वहां हुए आतंकवादी हमलों में मारे गए लोगों की जान की क्या कोई कीमत नहीं?

जिन लोगों ने दुःख और सहानुभूति को भी खानों में बाँट रखा है, उनके लिए वाकई नहीं. सोच कर हैरत होती है कि हम अपने और पराये के अंतर को भूल कर सिर्फ इंसान की तरह क्यों नहीं सोच पाते? “आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना”, शायद इसीलिए ग़ालिब ने कहा था. मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ का शेर है– “फ़रिश्ते से बेहतर है इंसान बनना, मगर इसमें लगती है मेहनत ज़ियादा”.

क्या कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने यह कहकर कोई गुनाह कर डाला कि चाहे कोई कितना भी बड़ा अपराधी क्यों न हो, उसका अंतिम संस्कार उसके धार्मिक विश्वासों के अनुसार किया जाना चाहिए? क्या यह साम्प्रदायिक दृष्टिकोण है? कुछ लोग इसे साम्प्रदायिक बयान बताकर इसकी निंदा कर रहे हैं क्योंकि उन्हें ओसामा बिन लादेन के बहाने अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकनी हैं. उनसे पूछा जाना चाहिए कि कारगिल युद्ध के दौरान भारत पर हमला करने वाले जो पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे, क्या हमारी सेना ने उन्हें इस्लामी रस्मो-रिवाज़ के मुताबिक़ नहीं दफनाया था? क्या हमें अपने दुश्मन की आस्था का भी सम्मान नहीं करना चाहिए? क्या किसी आतंकवादी नेता की सही ढंग से अन्तिमक्रिया की जाए, इसकी वकालत करना आतंकवाद का समर्थन या साम्प्रदायिक दृष्टि की अभिव्यक्ति है?

वाल्मीकि-कृत रामायण (दुर्भाग्य से कलियुग के अधिकाँश रामभक्त इसे पढ़ने का कष्ट नहीं करते) के युद्धकाण्ड में राम और विभीषण के बीच एक अत्यंत रोचक और शिक्षाप्रद संवाद है. रावण का वध करने के बाद राम विभीषण से कहते हैं कि वह अपने भाई का यथायोग्य अंतिम संस्कार करे. विभीषण रावण के दोष गिनाकर ऐसा करने से इन्कार करते हैं और कहते हैं कि बड़ा भाई होने के बावजूद रावण उनका आदर पाने योग्य नहीं है. इस पर राम विभीषण को समझाते हैं कि वैर मरने तक ही रहता है. मरने के बाद उसका अंत हो जाता है. इस समय जैसे वह तुम्हारा भाई था, वैसे ही मेरा भी है. इसलिए तुम उसका विधिपूर्वक दाहसंस्कार करो. यही नहीं, राम विभीषण से यह भी कहते हैं कि विधिपूर्वक रावण का दाहसंस्कार करके वह यश के भागी बनेंगे.

आज जो लोग दिग्विजय सिंह की इसलिए आलोचना कर रहे हैं कि उन्होंने ओसामा को ”ओसमाजी” कहकर आदर दिया, उन्हें वाल्मीकि-कृत रामायण का यह प्रसंग पढना चाहिए जिसमें राम कहते हैं कि मरने के बाद रावण उनका उसी तरह भाई हो गया है जैसे वह विभीषण का था. क्या हमने अपनी संस्कृति में रची-बसी उदारता, मानवीय दृष्टि और विरोधी का भी सम्मान करने की प्रवृत्ति को बिलकुल भुला दिया है? मेरा उद्देश्य यहाँ दिग्विजय सिंह की वकालत करना नहीं है. मेरा उनसे व्यक्तिगत परिचय तक नहीं है. हो सकता है कि उनके बयानों के पीछे कोई राजनीतिक मंतव्य हो. लेकिन जब तक किसी के पास कोई प्रमाण न हो, तब तक किसी के भी बयान पर कोई राजनीतिक मंतव्य थोपना उचित नहीं कहा जा सकता.

अपने विरोधी या दुश्मन का भी सम्मान करना कायरता या साम्प्रदायिकता नहीं, भारतीय परम्परा का बुनियादी मूल्य है. हालांकि वाल्मीकि-कृत रामायण या तुलसीदास-कृत रामचरितमानस में यह प्रसंग कहीं नहीं है, लेकिन एक लोकप्रचलित मान्यता है कि रावण को प्राणघाती बाण मारकर धराशायी करने के बाद राम ने लक्ष्मण को उसके पास यह कहकर भेजा था कि सब कुछ के बावजूद रावण एक महापंडित, वेदज्ञ और गुणवान व्यक्ति है. उसका ज्ञान उसी के साथ न चला जाए, इसलिए उसकी मृत्यु होने से पहले तुम उससे ज्ञान के कुछ सूत्र सीख आओ. इस लोकमान्यता से पता चलता है कि भारतीय समाज में ये मानवीय मूल्य किस गहराई तक पैठ किये हुए हैं. यही कारण है कि हमारे समाज में रचे-बसे मुस्लिम समुदाय में कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी और उनके जैसे एक-दो कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवियों के ओसामा बिन लादेन को महिमामंडित करने वाले बयानों को किसी भी तरह का समर्थन हासिल नहीं हुआ है. हमें न तो उनकी ज़रुरत है जो ओसामा की मृत्यु के बाद उसका अपमान करना चाहते हैं, और न ही उनकी जो उसकी शान में कसीदे पढ़ रहे हैं.

(यह लेख 8 मई 2011 को  जनसत्ता के ‘निनाद‘ स्तम्भ के अंतर्गत छपा था।)


3 thoughts on “पीर पराई जानै कौन?: कुलदीप कुमार”

  1. मानवतावादी नजरिए से अच्छा विश्लेषण.

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