कॉरपोरेट और मीडिया का नया खेल: विनीत कुमार

आदित्य बिड़ला समूह ने इंडिया टुडे, बिजनेस टुडे जैसी पत्रिकाएं प्रकाशित करने वाली कंपनी लिविंग मीडिया इंडिया के साढ़े सत्ताईस फीसद शेयर खरीद लिए हैं। इसकी बदौलत टीवी टुडे नेटवर्क, जिसका 57.46 फीसद लिविंग मीडिया के पास था और उस पर मालिकाना हक अरुण पुरी का ही है, अब उसमें भी आदित्य बिड़ला समूह का व्यावसायिक दखल हो गया है।

टीवी टुडे नेटवर्क आजतक, दिल्ली आजतक, हेडलाइंस टुडे, तेज जैसे समाचार चैनलों सहित ओए 104.8 एफएफ रेडियो का प्रसारण करता है। आदित्य बिड़ला से पहले ही टीवी टुडे नेटवर्क के शेयर अनिल अंबानी की कंपनी रिलांयस कैपिटल के पास 13.36 फीसद और टाटा म्युचुअल फंड के पास 1.36 फीसद हैं।

शेयर खरीदने के दौरान आदित्य बिड़ला समूह के अध्यक्ष कुमार मंगलम बिड़ला ने वक्तव्य दिया कि निवेश के लिहाज से आने वाले समय में मीडिया फायदेमंद सौदा है। इससे पहले इसी साल तीन जनवरी को मुकेश अंबानी की कंपनी रिलांयस इंडस्ट्रीज ने कहने को एक स्वायत्त संस्था बना कर करीब सत्रह सौ करोड़ रुपए नेटवर्क-18 में निवेश किया तो यही तर्क दिया था। इतना ही नहीं, इससे पहले भी दिसंबर महीने में दिल्ली की पेट्रोरसायन, उर्वरक और मनोरंजन उद्योग से जुड़ी कंपनी अभय ओसवाल समूह ने 24.24 करोड़ रुपए निवेश करके एनडीटीवी के 14.2 फीसद शेयर खरीदे तो घोषणा की कि आने वाले समय में इससे कंपनी को मुनाफा होगा।

जाहिर है, कोई भी कॉरपोरेट कंपनी बिना मुनाफे की संभावना के मीडिया संस्थानों में निवेश नहीं करेगी। लेकिन मीडिया की व्यावसायिक रिपोर्ट पर गौर करें तो मौजूदा दौर में इसमें निवेश किया जाना किसी भी तरह से फायदेमंद सौदा दिखाई नहीं देता। फिक्की-केपीएमजी पिछले तीन साल से अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताते आए हैं कि मीडिया- खासकर समाचार चैनल- किसी भी लिहाज से फायदे का धंधा नहीं रह गया है। हां इससे ठीक उलट मनोरंजन चैनलों का कारोबार ज्यादा फायदेमंद है। दो-तीन समाचार चैनलों को छोड़ दें तो अधिकतर की हालत बहुत अच्छी नहीं है।

इतना ही नहीं, मीडिया संस्थानों की बैलेंस शीट पर गौर करें तो स्पष्ट होगा कि समय के साथ वे लड़खड़ा रहे हैं। टीवी टुडे नेटवर्क लिमिटेड की बैलेंस शीट साफ बताती है कि वह पहले के मुकाबले घाटे की तरफ बढ़ रहा है। कंपनी ने 31 मार्च2012 की रिपोर्ट में बताया है कि उसके मुनाफे में तेईस फीसद की गिरावट आई है और जनवरी-मार्च 2011 में जो मुनाफा 9.50 करोड़ रुपए का था, वह अब घट कर 7.33 करोड़ रुपए हो गया।

मुकेश अंबानी ने जब राघव बहल के मीडिया संस्थान नेटवर्क-18 में करीब सत्रह सौ करोड़ रुपए निवेश किया, उस समय संस्थान करीब पांच सौ करोड़ रुपए के कर्ज में डूबा था। इसी तरह ओसवाल ग्रुप ने एनडीटीवी के शेयर जिस वक्त खरीदे,उस समय संस्थान करीब 10.7 करोड़ रुपए के नुकसान पर था। शेयर की कीमत पहले के मुकाबले बहुत ही कम, मात्र25.45 रुपए रह गई थी। जाहिर है तीनों संस्थानों में कॉरपोरेट कंपनियों ने उस वक्त निवेश किया, जब वे घाटे में चल रहे थे। कहने को कहा जा सकता है कि उन्होंने इस उम्मीद में पैसे लगाए हैं कि आने वाले वक्त में स्थिति बेहतर हो सके। लेकिन क्या मामला सिर्फ इतना ही है?

पहली बात तो यह कि मीडिया संस्थान धड़ाधड़ अपने शेयर कॉरपोरेट के हाथों बेच कर जल्दी से जल्दी न केवल कर्ज-मुक्त होना चाहते हैं, बल्कि इसका उन्हें मुनाफा भी होता है। वे इससे अपना व्यावसायिक विस्तार भी कर लेते हैं। रिलांयस इंडस्ट्रीज ने जब नेटवर्क-18 में सत्रह सौ करोड़ रुपए निवेश किए तो संस्थान न केवल कर्ज-मुक्त हो गया, बल्कि उसने देश के सबसे प्रमुख क्षेत्रीय टीवी समूह इटीवी का अधिग्रहण भी कर लिया।

लेकिन इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि इन मीडिया संस्थानों को विज्ञापन और मासिक शुल्क से आने वाले राजस्व से भरोसा पूरी तरह खत्म हो गया है। या फिर कॉरपोरेट करार के आगे यह खेल बहुत ही छोटा दिखने लगा है। वैसे भी अगर अपने घाटे की भरपाई के लिए ये विश्लेषण करते हैं, नए सिरे से व्यावसायिक रणनीति तय करते हैं, कंटेंट पर मेहनत करते हैं, वितरण पर ध्यान देते हैं तो इसके लिए उन्हें न केवल काफी मेहनत करनी होगी बल्कि भारी रकम भी निवेश करनी होगी। इसके मुकाबले कॉरपोरेट के हाथों शेयर बेचना कहीं ज्यादा आसान काम है। इसमें उन्हें बिना लंबे इंतजार के कर्ज से मुक्ति और कई बार मुनाफा भी हो सकता है।

ऐसा करते हुए एक सवाल उठता है कि दूसरे व्यावसायिक घराने एक-एक कर पहले से स्थापित मीडिया संस्थानों में इतनी भारी रकम निवेश करते हैं, तो उनकी साख क्या रह जाएगी? क्या आने वाले समय में मीडिया संस्थान इन कॉरपोरेट घरानों और हमदर्द घरानों के खिलाफ खबरें प्रसारित करने की स्थिति में होंगे?

संभव है कि ऐसे सवालों को भावुकता मान कर खारिज कर दिया जाए या फिर एक जवाबी सवाल खड़ा कर दिया जाए कि करार के पहले मीडिया संस्थान भला कब विरोध में खबरें प्रसारित कर रहे थे?

ऐसे सवाल फिर भी रहेंगे। लेकिन दूसरा सवाल, इससे कहीं ज्यादा गंभीर है। कि क्या ऐसा करके मीडिया संस्थानों ने अपनी साख के दम पर कमाई करने का मौका कॉरपोरेट घरानों को नहीं दे दिया? भारी घाटे के बीच अगर कॉरपोरेट फिर भी इन मीडिया संस्थानों के शेयर खरीद रहा है तो इसका सीधा मतलब है कि उसकी नजर सिर्फ उसकी मौजूदा व्यावसायिक सेहत पर नहीं है, बल्कि ऐसा करके वह साथ ही लंबे समय में अर्जित उसकी साख भी खरीद ले रहा है जिसे अपने बूते वह शायद ही कभी हासिल कर पाता। और यह भी कि इस तरह वह अपने नए कारोबार के लिए भविष्य भी सुरक्षित कर रहा है।

लिविंग मीडिया इंडिया ने जब आजतक की शुरुआत की थी, मुनाफे के बीच भी उसकी अपनी साख थी। ऐसा करते हुए वह मीडिया का बिजनेस मॉडल गढ़ रहा था। उसकी साख का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस दौरान रॉयटर ने जब टीवी चैनलों का सर्वे किया तो आजतक को दूरदर्शन से दस फीसद ज्यादा विश्वसनीय बताया।

दरअसल, इन टीवी कंपनियों ने खबरों और मीडिया की साख के बूते जो बाजार खड़ा किया, उसे धीरे-धीरे कॉरपोरेट के उस बाजार पर कब्जा करना था जहां वह रीयल एस्टेट से लेकर फिल्म निर्माण, केबल वितरण, आॅनलाइन शॉपिंग,मोबाइल, सॉफ्टवेयर जैसे दूसरे कारोबार भी कर सके। उसके मुनाफे को अपने मूल व्यवसाय मीडिया में लगा सके ताकि दूसरी कॉरपोरेट कंपनियों पर उसकी निर्भरता कम से कम हो।

यह प्रिंट मीडिया के दौर से अलग रणनीति थी जहां इस्पात, कपडेÞ, सीमेंट आदि का धंधा करने वाला मालिक ही प्रेस भी चलाता था। इन संस्थानों ने मीडिया के अलावा कई दूसरे व्यवसाय भी शुरू किए। लेकिन इस तरह से घाटे की भरपाई के लिए कॉरपोरेट के हाथों करोड़ों रुपए के अपने शेयर बेचने का मतलब है कि उनके मूल व्यवसाय (मीडिया) का बिजनेस मॉडल चरमरा गया है। वे कॉरपोरेट के इलाके में क्या काबिज होते, उलटे कॉरपोरेट बडेÞ ही आक्रामक तरीके से उनके इलाके में सेंधमारी करने लग गया।

घाटे में चल रहे इन मीडिया संस्थानों के पास लंबे समय से अर्जित साख है, जिसे बाजार की भाषा में ब्रांड कह सकते हैं। इधर कॉरपोरेट की दिलचस्पी मीडिया, प्रोडक्शन हाउस, सिनेमा के प्रति तेजी से बढ़ी है। इसका सीधे तौर पर एक फायदा तो यह है कि इस समुदाय में किसी न किसी तरह शामिल होने का मतलब है किन्हीं भी तरह की गड़बड़ियों के सामने आने की संभावना का बहुत ही क्षीण हो जाना। वैसे भी एक ‘वॉचडॉग’ दूसरे ‘वॉचडॉग’ को कभी नहीं काटता। दूसरे, आने वाले समय में जब वे मीडिया और मनोरंजन के धंधे में उतरेंगे, जो कि तेजी से शुरू हो गया है, तो हो सकता है उन्हें मार्केटिंग के स्तर पर बहुत अधिक मेहनत न करनी पडेÞ। रिलायंस इंडस्ट्रीज ने नेटवर्क-18 के साथ करार ही इसलिए किया कि आने वाले समय में जब उसकी कंपनी इन्फोटेल 4-जी के जरिए आॅनलाइल मोबाइल कंटेंट के धंधे में उतरे तो सामग्री के स्तर पर उसे कोई मेहनत न करनी पडेÞ। आदित्य बिड़ला समूह, जिसने साल 2003 में अपनी कंपनी एप्पलाउज एंटरटेनमेंट के बैनर तले ‘ब्लैक’ फिल्म बनाई थी, उसे और मजबूत करना चाहता है, मनोरंजन के कारोबार को बढ़ाना चाहता है। इधर अभय ओसवाल ग्रुप ने भी एनडीटीवी से करार इसलिए किया कि वह मनोरंजन उद्योग में कायदे से हाथ आजमाना चाहता है। जाहिर है, यह सब उसी रणनीति, फिक्की-केपीएमजी की रिपोर्ट और बिजनेस पंडितों की भविष्यवाणी का नतीजा है कि आने वाले समय में मनोरंजन उद्योग में भारी उछाल आएगा और मीडिया धीरे-धीरे मनोरंजन बनेगा, कोरा मीडिया नहीं रह जाएगा।

इन रिपोर्टों और भविष्यवाणियों का असर तो हमें अभी से टीवी स्क्रीन और अखबार के पन्नों पर दिखाई दे रहा है। लेकिन यह एक खतरनाक स्थिति होगी कि जैसे-जैसे कॉरपोरेट और मीडिया में निवेश करने वाली कंपनियां अपने मूल व्यवसाय में मार खाती जाएंगी, मीडिया की स्थिति बदतर होती चली जाएगी। लेकिन अगर मजबूत होगी तो समाज के जरूरी सवाल भी उतने ही हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे।

यह सिर्फ दर्शकों-पाठकों के स्तर का नुकसान नहीं है, बल्कि स्वयं मीडिया के भीतर बड़ा नुकसान है, जिसने कभी खबरों का कारोबार करते हुए एक बिजनेस मॉडल खड़ा करने की रणनीति बनाई थी। सरकार क्रॉस मीडिया ओनरशिप (यानी जो अखबार चला रहा है, वह मीडिया के बाकी माध्यमों को नहीं चला सकता) पर कुछ गंभीरता से सोच पाती और 360डिग्री मीडिया के मालिकाना हक पर कुछ कदम उठाती, उससे पहले ही 360 डिग्री कारोबार का दौर चल पड़ा है।

(मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित, 4 जून 2012. विनीत कुमार, एफ.एम चैनलों की भाषा पर एम.फिल्, हिन्दी विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय, सीएसडीएस-सराय स्टूडेंट फेलोशिप प्रोग्राम के तहत निजी समाचार चैनलों की भाषा पर रिसर्च. साल 2012 में मीडिया  कारोबार पर मंडी में मीडिया ( वाणी प्रकाशन) किताब प्रकाशित. फिलहाल-  मनोरंजन प्रधान चैनलों की भाषिक संस्कृति पर हिन्दी विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. )

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2 thoughts on “कॉरपोरेट और मीडिया का नया खेल: विनीत कुमार”

  1. Every institution needs media these days, whether it is a government, a corporate or a political party. The cheapest way for satisfying any entity’s propaganda needs is to invest in media. If it makes profit, that is an added benefit. The government need not invest. it can withhold its advertisements. It can also pass laws to control media. Even without passing laws, it has many coercive methods up its sleeve to keep media in check. Why then grudge corporates if they try the means at their command to use media ? The common man has to understand which media says what, when and at whose instance. Fortunately, he does, most of the time. He is smarter than what people take him for. So, let us stop worrying on his account.

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