(रामचंद्र गुहा की पुस्तक ‘इण्डिया आफ़्टर गांधी’ के हिंदी अनुवादों की धीरेश सैनी द्वारा की गई समीक्षा, समयांतर के अक्टूबर 2012 अंक में प्रकाशित)

रामचंद्र गुहा की बहुप्रचारित किताब `इंडिया आफ्टर गांधीः द हिस्ट्री ऑफ दी वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी` का हिंदी अनुवाद पेंगुइन बुक्स ने दो खंडों (`भारतः गांधी के बाद` और `भारतः नेहरू के बाद`) में प्रकाशित किया है। बकौल गुहा, उनका `संपूर्ण कैरियर `इंडिया आफ्टर गांधी` लिखने की एक वृहत (और तकलीफदेह) तैयारी रही है।` यह बात दीगर है कि उन्होंने इस तकलीफदेह तैयारी को बतौर `दुनिया के विशालतम लोकतंत्र का इतिहास` प्रस्तुत करते हुए `ऐतिहासिक किस्सागोई का पुराना तरीका अख्तियार` किया है। किताब के कवर पर इस बात का जिक्र है कि यह `एक `व्यापक शोध के बाद किए गए लेखन का नतीजा है जिसे रामचंद्र गुहा ने अपनी मखमली भाषा में रोचक तरीके से लिखा है।` सुशांत झा द्वारा किया गया अनुवाद भी किस्सागोई और भाषा की रोचकता को बरकरार रखता है। जाहिर है कि इतिहास की किताब का महत्व उसकी किस्सागोई की मखमली भाषा की रोचकता से ज्यादा उसमें कहे गए तथ्यों और उनके विश्लेषण और कहने से छोड़ दिए गए जरूरी तथ्यों पर ही निर्भर करता है। 1947 से छह दशकों के सफर को विभिन्न भागों और अध्यायों के जरिये तय करने वाली इस किताब का हर अध्याय उथलपुथल, हिंसा और दूसरे झंझावतों के बीच `एकीकृत भारत` के अस्तित्व को लेकर निरंतर आशंकाओं (प्रायः पश्चिमी जगत की) का उल्लेख करता है और उसका समापन प्रायः इस `खुशी` के साथ होता है कि देखो दुनिया वालो, यह फिर भी `साबुत` खड़ा है।
देश की आजादी बंटवारे और भयानक हिंसा से जुड़ी हुई है। आजाद मुल्क के पहले मंत्रिमंडल में शामिल गैरकांग्रेसी नुमाइंदों में उस हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी हैं जो देश के सेक्युलर ढांचे को छिन्न-भिन्न करने के अभियान में निरंतर मुब्तिला रहती आई है। इस विडंबना के बावजूद गुहा कहते हैं `पहला मंत्रिमंडल राजनीतिक चरित्र का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चरित्र का था।` अगले पन्नों पर बंटवारे का जिक्र करते हुए गुहा कहते हैं, `अगस्त-सितंबर 1946 की हिंसा की शुरुआत मुस्लिम लीग ने की थी। इसी ने पाकिस्तान नाम के अलग मुल्क के लिए आंदोलन चलाया था।` किसी इतिहासकार का इस तरह का निष्कर्षात्मक वाक्य हैरान करता है। किताब की प्रस्तावना में गुहा का कहना है कि `इतिहास लेखन के नजरिये से 1947 के बाद की समयावधि का लेखाजोखा वजूद में ही नहीं है।` वे नहीं बताते कि पाकिस्तान की मांग के मुस्लिम लीग के औपचारिक आह्वान (1940) और पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के अंतराल में कट्टर हिंदूवादी ताकतें क्या कर रही थीं। आखिर हिंदू महासभा 1925 में ही हिंदू राष्ट्र का नारा देकर द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की ज़मीन तैयार कर चुकी थी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी 1925 से ही अपने मुसलमान विरोधी अभियान में सक्रिय था। वे यह जरूर लिखते हैं कि `कलकत्ता के दंगों के जवाब में हिंदुओं ने बिहार में बड़े पैमाने पर हिंसा की। इसके पीछे कांग्रेस नेताओं का हाथ था।` बंटवारे के दौरान दोनों ओर हुए भयानक दंगों और `इतिहास के सबसे बड़े मानवीय विस्थापन` के दौरान गांधी व नेहरू का रुख निश्चय ही बहादुराना था और वे आजाद हिंदुस्तान में हिंसा का शिकार हो रहे मुसलमानों की हिफाजत के लिए जी जान से जुटे हुए थे। गुहा एक अंग्रेज पर्यवेक्षक को ठीक ही उद्धृत करते हैं कि पश्चिम पंजाब के मुसलमानों के बीच `नेहरू और गांधी को कभी इतने विश्वास और इज्जत से नहीं देखा गया जितना इस घटना के दौरान देखा गया था।` इस दौरान नेहरू ने गृहमंत्री पटेल से कहा, `उन्हें ऐसा साफतौर पर लगता है कि सिर्फ दिल्ली में ही नहीं बल्कि अन्य जगहों पर भी हुए उपद्रवों में संघ का हाथ है…उन्होंने (संघ के सदस्यों ने) एक विशुद्ध आतंकवादी के रूप में काम किया है।`
गांधी के बाद किसे चाहिए गांधी?
किताब में शुरू में ही अखरने वाली बात गांधी की हत्या के बाद की परिस्थितियों का वर्णन है। गुहा गांधी के हत्यारे का आत्मसमर्पण, उसका मुकदमा, उसे फांसी की सजा और उसका भाषण महज छह वाक्यों में निपटा देते हैं। शायद उन्हें इस कुर्बानी की बदौलत देश में शांति स्थापित हो जाने और नेहरू-पटेल का झगड़ा भी शांत हो जाने की घोषणा कर अपना यह अध्याय खत्म करने की जल्दी थी। `भारतः गांधी के बाद` शीर्षक से किताब लिख रहे किसी इतिहासकार के लिए गांधी के ठीक बाद के दिन इतने महत्वहीन कैसे हो सकते हैं जबकि मुकदमे की सुनवाई और उसमें गृहमंत्री पटेल जैसे नेताओं का रवैया जैसी बातें पिछली और अगली बहुत सारी साजिशों को साफ करने के लिए जरूरी हों। यहां आरएसएस के ढांचे, उसके संतान संगठनों और उसके काम करने के ढंग को ज्यादा गहराई से समझने-समझाने का मौका भी था, जो पूरी किताब में नदारद है। गुहा तो कहते हैं, `उनकी (गांधी की) मृत्यु पर दो सबसे प्रासंगिक और सार्वजनिक प्रतिक्रिया गांधीजी के दो सबसे खास या कहें कि ताकतवर शिष्यों वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू की तरफ से आईं।` और इसके बाद पटेल के व्यक्तित्व की महिमा शुरू हो जाती है- `पटेल जो अब भारत के गृहमंत्री थे, गुजरात से ही आते थे और सन् 1918 से गांधीजी के साथ थे। वह एक बेतरीन संगठनकर्ता और योजनाकार थे और कांग्रेस को एक राष्ट्रीय पार्टी बनाने में उनका अहम योगदान था। भारत सरकार में वह प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बाद दूसरे नंबर पर थे। पटेल के गांधी से जुड़ने के कुछ साल बाद जवाहरलाल नेहरू, गांधीजी से मिले थे और वे गांधी से तीनों भाषाओं (गुजराती में भी) में बात कर सकते थे।` यह सर्वविदित तथ्य है कि गांधी की हत्या के बाद आरएसएस को लेकर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के बीच खासा विवाद था और पटेल आरोपियों को बचाने में लगे हुए थे। गुहा प्रस्तावना में कह चुके हैं कि 1947 के बाद का लेखाजोखा उपलब्ध नहीं है, `ऐसे में `कई छोटी और बड़ी बातों के लिए इसकी कड़ी हमें ऐसी सामग्रियों और सूचनाओं से बुननी होगी, जिसे लेखक ने खुद ही मेहनत से चुना हो।` लेकिन गांधी हत्या के मुकदमे और इससे जुड़े बहुत सारे भयानक तथ्यों को लेकर तो फाइलें भी खंगालने की जरूरत नहीं थी। कम से कम एक किताब `आई कुड नोट सेव महात्मा गांधी-जगदीशचंद्र जैन` तो मैं भी पढ़ चुका हूं। जैन इस मुकदमे में अभियोजन पक्ष के मुख्य गवाह थे और उन्हें खुद उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा था। जैन लिखते हैं -` पंडित नेहरू ने 26 फरवरी 1948 को सरदार पटेल को लिखे पत्र में आरएसएस में बद्धमूल `जहर` को चिह्नित करते हुए जोर देकर कहा, उत्तरोत्तर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि बापू की हत्या कोई छुटपुट ढंग से अंजाम दी गई गतिविधि नहीं थी बल्कि बड़े पैमाने पर खासतौर से आरएसएस द्वारा सुनियोजित किए गए व्यापक अभियान का हिस्सा थी।`ठीक अगले दिन नेहरूजी को पहुंचे फौरी जवाब में पटेल ने निर्णयात्मक वक्तव्य दिया, `मैं बापू हत्याकांड की जांच के सिलसिले में हो रही प्रगति को लेकर लगभग रोज संपर्क में हूं…सभी मुख्य अभियुक्त अपनी गतिविधियों के बारे में लंबे और विस्तृत बयान दे चुके हैं। बयानों से यह भी साफतौर पर सामने आ जाता है कि इसमें आरएसएस की कतई भी संलिप्तता नहीं है।` जैन लिखते हैं, `सौभाग्य से मैं कुछ गोपनीय खुफिया दस्तावेज देख सका जो पुख्ता तौर पर यह इशारा करते थे कि भले ही तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने सीधे तौर पर आरएसएस को फंसाया नहीं था लेकिन तत्कालीन आरएसएस संघसंचालक माधव सदाशिव गोलवलकर इस घटना के किसी भी तरह खिलाफ नहीं थे। 6 दिसंबर 1947 को गोलवलकर ने दिल्ली के पास ही गोवर्धन कस्बे में आरएसएस कार्यकर्ताओं की बैठक आयोजित की थी। पुलिस की रिपोर्ट के मुताबिक, इस बैठक में `कांग्रेस के अग्रणी नेताओं की हत्या कर जनता को आतंकित करने और उन पर पकड़ कायम करने` की योजना पर विचार किया गया था।`
अलबत्ता, किताब के पहले अध्याय `आजादी और राष्ट्रपिता की हत्या` में न सही पांचवे अध्याय `शरणार्थी समस्या और गणराज्य` में गुहा कहते हैं- `…हालांकि उस हत्याकांड में संगठन (आरएसएस) सीधे तौर पर जुड़ा हुआ नहीं था, लेकिन वह पंजाब में हुई हिंसा में सक्रिय था।` यहां वे नेहरू के पटेल को लिखे पत्र का न सही, पंजाब के गवर्नर को लिखे पत्र का उल्लेख करते हैं, `इन लोगों (आरएसएस) के हाथ गांधी के खून सं रंगे हैं और सिर्फ मासूमियत भरे इनकार और उस घटना से अपने आपको अलग-थलग कर लेने का अब कोई मतलब नहीं हैं।` पटेल आरएसएस पर लगा प्रतिबंध हटवाने में व्यस्त थे। आरएसएस पर से पाबंदी हटाते हुए उन्होंने सलाह दी कि `उनके लिए कांग्रेस में सुधार लाने का एक ही रास्ता है कि वे कांग्रेस में अंदर से सुधार लाने की कोशिश करें, अगर वे वाकई समझते हैं कि कांग्रेस गलत रास्ते पर जा रही है।` पटेल और आरएसएस के गहरे व स्वाभाविक रिश्तों के तथ्यों की अनदेखी करते हुए गुहा गोवलकर के पटेल को लिखे पत्र का उल्लेख करते हैं – `अगर हम आपकी सरकार की ताकत और हमारे संगठन की सांस्कृतिक ताकत का इस्तेमाल कर लें तो हम बहुत जल्द इस लाल खतरे से निजात पा लेंगे।` गुहा कहते हैं कि `वास्तव में यह एक कारण रहा होगा कि उन्होंने कांग्रेस के अंदर आरएसएस को समाहित करने की संभावना पर विचार करना शुरु किया।` यहां वास्तव शब्द खास दिलचस्प है। देखा जाए तो, कांग्रेस में आरएसएस पहले ही सक्रिय था जिसका किताब में भी एक-दो बार जिक्र है। कांग्रेस में इस आरएसएस के मसीहा पटेल, प्रसाद, टंडन जैसे लोग नहीं थे तो और कौन थे? आजादी के बाद मुसलमानों से उनकी देशभक्ति के प्रमाण मांगे जाने का पटेल प्रेरित अभियान और नेहरू का निरंतर विरोध बेहद मार्मिक है और भयानक है, जो किताब में मौजूद है।
राजेंद्र प्रसाद प्रसंग
पटेल की ही तरह राजेंद्र प्रसाद को लेकर भी गुहा की टिपण्णियां बेहद दिलचस्प हैं। गुहा कहते हैं- नेहरू के जीवनीकार लिखते हैं कि `राजेंद्र प्रसाद मध्ययुगीन सोच रखनेवाले नेताओं में सबसे महत्वपूर्ण थे।` गुहा व्यथित होकर लिखते हैं, `शायद यह एक देशभक्त नेता का निर्मम मूल्यांकन है जिसने हिंदुस्तान की आजादी के लिए अपना बहुत कुछ बलिदान कर दिया है।` आखिर गुहा एक इतिहासकार की तरह क्यों निर्मम मूल्यांकन से कन्नी काटते हैं और प्रसाद व पटेल को तथ्यों के बजाय भवनात्मक आधार पर प्रस्तुत करना चाहते हैं? उनके लिए आजादी व हिंदुस्तान के मानी क्या हैं? क्या हिंदुस्तान की आजादी के लिए बहुत कुछ बलिदान करना इस बात की गारंटी है कि कोई नेता मध्ययुगीन सोच रखने वाला नहीं हो सकता है? लेकिन गुहा उनके सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में शामिल होने को बतौर तथ्य प्रस्तुत नहीं करते बल्कि उनके इस कदम को जेनुइन ठहराने की मशक्कत में नेहरू को आइना दिखाने की हद तक चले जाते हैं। देश बंटवारे के दौरान साम्प्रदायिक हिंसा की चपेट में था और गांधी-नेहरू इस भयानक स्थिति को सामान्य करने की कोशिशों में जुटे थे तो कांग्रेस का हिंदूवादी धड़ा सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार को लेकर चिंतित था। और जब प्रधानमंत्री नेहरू सद्भाव और सामाजिक न्याय के आधार पर देश के पुनर्निमाण की मुहिम में जुटे थे तो राष्ट्रपति प्रसाद सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार को महत्व दे रहे थे। गुहा लिखते हैं- `ये मतभेद (नेहरू-प्रसाद के बीच)1951 के बसंत में तब सतह पर आ गए जब राष्ट्रपति को गुजरात में सोमनाथ मंदिर के उद्धाटन करने का आमंत्रण दिया गया। कभी अपनी धन-संपत्ति के लिए मशहूर सोमनाथ पर अतीत में कई मुस्लिम सरदारों और राजाओं ने हमला किया था जिसमें ग्यारहवीं सदी का कुख्यात लुटेरा महमूद गजनवी भी शामिल था। जब भी कभी मंदिर को तबाह किया गया, इसे फिर से बना दिया गया था। आखिरी बार मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पूरी तरह तोड़ देने का हुक्म दिया था। तबसे यह मंदिर करीब ढाई शताब्दियों तक ऐसे ही भग्नावशेष की अवस्था में पड़ा रहा। सन् 1947 में सरदार पटेल ने खुद सोमनाथ का दौरा किया और इसके पुनर्निमाण का वादा किया। उसके बाद पटेल के सहयोगी के. एम. मुंशी ने इसके पुनर्निमाण का जिम्मा अपने हाथों में लिया।` गुहा कुछ उद्धरणों के साथ लिखते हैं, `प्रसाद ने नेहरू की सलाह नहीं मानी और सोमनाथ के लिए रवाना हो गए। हालांकि उन्होंने इतना किया कि अपने भाषण को गांधीजी के अंतर्धार्मिक भाईचारे के सिद्धांत पर ही केंद्रित रखा। हालांकि यह सच है कि उन्होंने हिंदुस्तान के स्वर्णिम युग को याद किया जब देश के मंदिरों में अथाह सोना-चांदी देश की समृद्धि दर्शाता था। हालांकि सोमनाथ के बाद के इतिहास से यही सबक मिला कि धार्मिक असहिष्णुता से सिर्फ `नफ़रत और अनैतिक कार्यों को ही बढ़ावा मिलता है।` उसी आधार पर सोमनाथ के मंदिर के पुनर्निर्माण का मतलब `पुराने घावों को कुरेदना नहीं था जो कि पिछली शताब्दियों में काफी भर चुका था,` बल्कि `हरेक जाति और समुदाय को पूरी आजादी प्राप्त करने में मदद करना था।“
अब यहां, हरेक जाति और समुदाय को पूरी आजादी का क्या अर्थ लिया जाए जबकि इस `पूरी आजादी` का सिलसिला बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर भी रोके नहीं रुक पा रहा है। उस वक्त भी जब सोमनाथ मंदिर के नाम पर इस पूरी आजादी का जश्न मनाया जा रहा था तो पंजाब (हरियाणा-पंजाब) में असंख्य मस्जिदें और दरगाहें तोड़ दी गई थीं या तबेलों में तब्दील कर दी गई थीं और कब्रें तक खेतों में जोत ली गई थीं। गुहा तो सोमनाथ मंदिर समारोह में प्रसाद के `सेक्युलर` भाषण की आड़ में नेहरू के स्टेंड के बरक्स प्रसाद के कदम को जेनुइन ठहराते हैं, `ये बात किसी को मालूम नहीं है कि नेहरू ने उनका भाषण पढ़ा या नहीं। किसी भी सूरत में वे वह इसी को महत्व देते कि प्रसाद वहां न जाएं। प्रधानमंत्री के विचार में जनसेवकों को कभी भी आस्था या पूजास्थलों से अपने आपको नहीं जोड़ना चाहिए। जबकि राष्ट्रपति की राय में उन्हें सभी धर्मों को बराबरी और आदर का दर्जा देना चाहिए। राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ में कहा, यद्यपि मैं एक हिंदू हूं, लेकिन मैं सारे धर्मों का आदर करता हूं। मैं कई अवसरों पर चर्च, मस्जिद, दरगाह और गुरुद्वारा जाता रहता हूं।` क्या तत्कालीन परिस्थितियों में सोमनाथ मंदिर जीर्णोद्धार और उस समारोह का अर्थ एक सामान्य आस्था तक ही सीमित था और क्या उसके कोई अन्य निहितार्थ नहीं थे और अगर थे तो क्या वे किसी `सेक्युलर` भाषण से खत्म हो जाते थे?
हिंदू कोड बिल
जिन प्रसाद को मध्ययुगीन सोच वाला नेता कहे जाने से गुहा व्यथित हो जाते हैं, वे प्रसाद हिंदू महिलाओं के अधिकारों खासकर संपत्ति में उनके अधिकार से जुड़े हिंदू सहिता मसौदे को लेकर बतौर संविधान सभा अध्यक्ष जबरदस्त विरोधी थे। वे इस बारे में प्रधानमंत्री को पत्र भेजने वाले थे पर पटेल ने उन्हें रोक दिया। `यह समय काफी महत्वपूर्ण था क्योंकि यह दिसंबर 1949 की बात है और जल्द ही कांग्रेस राजेंद्र प्रसाद और सी. राजगोपालाचारी में से एक के नाम पर राष्ट्रपति पद के लिए विचार करने वाली थी। इस बात को ध्यान में रखते हुए पटेल ने राजेंद्र प्रसाद को कहा कि वे प्रधानमंत्री को हिंदू निजी कानून की आलोचना में पत्र न भेजें `नहीं तो पार्टी के भीतर उनके प्रति पूर्वग्रह की भावना फैल जाएगी।` लेकिन खासी जद्दोजहद और दक्षिणपंथियों के दबाव के असर के बावजूद बने आधुनिक संविधान को लेकर खुद गुहा की शंका जिसे वे पूर्वग्रहविहीन नजरिया कहते हैं, गौरतलब है- `एक पूर्वग्रहविहीन नजरिये से देखा जए तो भारतीय संविधान, यहां की समस्याओं के लिए पश्चिमी सिद्धांतों का पालन करने जैसा था।` वे कहते हैं कि `हालांकि कुछ राष्ट्रवादी नेता ऐसा नहीं सोचते थे` तो एकबारगी लगता है कि शायद वे नेता आधुनिक संवैधानिक मूल्यों के पक्षधर होंगे पर आगे का किस्सा और ज्यादा दिलचस्प है। `उनका कहना था कि ये भारतीय ही थे, जिन्होंने व्यस्क मताधिकार का आविष्कार किया था। टी. प्रकाशम ने हजार साल पुराने कांजीवरम मंदिर के शिलालेखों का हवाला देते हुए कहा कि उस वक्त भी चुनाव होते थे, जिसमें पत्तों का मतपत्रों के और मिट्टी के बर्तनों का मतपेटी के तौर पर इस्तेमाल होता था। हिंदी विद्वान रघुवीर ने दावा किया कि प्राचीन भारत ही “गणराज्य प्रणाली` का जन्मदाता है और यहीं से यह प्रणाली देश के दूसरे हिस्सों में फैली है।` और फिर गुहा दुखियों के स्वर में इस वाक्य के साथ अपना स्वर मिलाते दिखाई देते हैं- “हालांकि जिन लोगों ने संविधान के प्रावधानों को बारीकी से देखा था, वे अपने आपको सांत्वना नहीं दे सके। महावीर त्यागी ये देखकर `बहुत दुखी हुए कि संविधान में कुछ भी गांधीवादी नहीं है।` के. हनुमंतय्या ने शिकायत की कि उनके जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने `वीणा और सितार के संगीत की कामना की थी, लेकिन बदले में उन्हें अंग्रेजी बैंड मिला है।“` तो क्या भारतीय परंपराओं पर आधारित संविधान जरूरी था या फिर गांव को केंद्र में रखकर `गांधीवादी संविधान`। दलितों के लिए आज भी शोषण की चक्की गांवों पर आधारित राज का अंबेडकर ने विरोध किया, `इन ग्राम गणराज्यों में भारत के विनाश के बीज छुपे हैं।…गांव क्षेत्रीयता, अंधकार, संकीर्ण मानसिकता और सम्प्रदायवाद के केंद्र हैं।`
समाजवाद की गलती?
एक अध्याय `कानून और इसके निर्माता` की शुरुआत में गुहा जो दो उद्धरण देते हैं, दोनों ही किसी एक बिंदु पर नेहरू के संविधान निर्माण में समाजवादी व बराबरी के आग्रहों पर सवाल खड़ा करते हैं। पहला उद्धरण डी. एफ. कारका, 1955 का है – `इन कुछेक प्रगतिशील आंदोलनों से नेहरू खासे अभिभूत रहे हैं। वे हमेशा अपने आपको एक आधुनिक व्यक्ति के रूप में देखा जाना पसंद करते हैं, वे रॉयल एकेडमी में पिकासो की कलाकृति बनना चाहते हैं…।` तो क्या प्रगतिशील आंदोलनों के प्रभाव और उससे उपजी कोशिशें नेहरू की आत्मछवि से ग्रस्तता भर थी? दूसरा उद्धरण `एक हिंदू (वादी) वकील, 1954` का है- `यह एक स्थापित तथ्य है कि हरेक देश और हरेक राष्ट्र का अपना चरित्र होता है। यह जन्मजात होता है और ऐसा उसके चरित्र में होता है। इसे बदला नहीं जा सकता। शेक्सपीयर और कालीदास दोनों ही महान कवि और नाटककार हुए हैं। हिंदुस्तान, शेक्सपीयर पैदा नहीं कर सकता, उसी तरह इंगलैंड कालीदास नहीं पैदा कर सकता। मैं पूरी शक्ति और पूरे आत्विश्वास के साथ इन सुधार के पैरोकारों से पूछता हूं कि हिंदू कानूनों के यूरोपीयकरण की क्या आवश्यकता है? इसे संहिताबद्ध करने में लाखों लोगों की समर्पित भावनाओं को गंभीर रूप से चोट पहुंचाने और उनको क्षति पहुंचाने का बड़ा खतरा मौजूद है।` दरअसल, लगभग हजार पन्नों की अपनी इस किस्सागोई में वे बहुत सारे उद्धरणों को प्रश्नांकित किए बिना एक ऐसे खास ढंग से रखते चलते हैं कि बहुत सारे पूर्वग्रह स्थापित तथ्य की तरह लगने लगते हैं। इनमें अखबारी कतरनों के ढेर के ढेर आते हैं और कोरी सूचनाएं भी तथ्य की शक्ल में तब्दील हो जाती हैं, इस तरह बहुत सारे प्रचलित स्टीरियोटाइप्स मजबूत होते हैं और नए स्टीरियोटाइप भी बनते हैं। यह हिस्ट्री राइटिंग कई बार गॉसिप लगने लगती है। हैदराबाद के कट्टरवादी मुसलमान संगठन के नेता कासिम रजवी के बारे में यह उद्धरण देखिए- तस्वीरों में रजवी घनी दाढ़ी रखे हुए दिखता है। बल्कि यूं कहें कि `वह दंतकथाओं में वर्णित शैतान की तरह दिखता है।` उसकी `सबसे बड़ी विशेषता उसकी चमकदार आंखें लगती हैं, जिससे धर्मांधता की आग झलकती है।`
हिंदू कट्टरपंथ- गुहा की नज़र
किताब का `उपसंहार` लिखते हुए गुहा कहते हैं, `एक नागरिक से ज्यादा एक इतिहासकार के रूप में मेरा अपना विचार यह है कि जब तक पाकिस्तान अस्तित्व में है भारत में हिंदू कट्टरपंथ अस्तित्व में रहेगा।` एक `आधुनिक` इतिहासकार का यह एक चौंकाने वाला निष्कर्ष है जो पाकिस्तान को मिटा देने तक जाता है। तो क्या इसमें यह भी निहित है कि पाकिस्तान भी मिटा दिया जाए तो भी जब तक हिंदुस्तान में इस्लाम (`कट्टर` या `धर्मांध` की आड में कह सकते हैं) रहेगा, हिंदू कट्टरपंथ अस्तित्व में रहेगा? तो क्यों न पश्चिमी देशों की सभ्यता के संघर्ष वाली थ्योरी जो दुनिया की समस्याओं के लिए इस्लामी कट्टरवाद को जिम्मेदार ठहराती है, को सही मान ली जाए? 1965 की लड़ाई के बारे में एक वाक्य देखिए,`दरअसल सन् 65 की लड़ाई, पाकिस्तानी मुसलमानों द्वारा काफी सोच-समझकर चलाया जाने वाला धार्मिक दृष्टिकोण का एक अभियान था, जो अपने कश्मीरी बिरादरानों के लिए चलाया गया था।` इस सरलीकरण का क्या किया जा सकता है जो किसी मुल्क के सारे के सारे मुसलमानों को इस जंग में शामिल कर देता है? यूं भी “ट्रैजिडी का यह प्रसन्नचित्त वाचक“ पाकिस्तान से युद्धों के वर्णन करते हुए कभी जीत के जश्न में तो कभी राष्ट्रवादी उन्माद में शामिल दिखाई देने लगता है। 1971 में पाकिस्तान पर भारत की जीत का जिक्र करते हुए गुहा सुदूर अतीत तक पहुंचते हैं,`दूसरी सहस्राब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा से होकर कई विदेशी आक्रमणकारी भारत को लूटने-खसोटने के इरादे से आए थे। बाद के दौर में बतौर शासक मुसलमानों की जगह ईसाइयों ने ले ली, जो जमीन के बजाय समंदर के रास्ते भारत आए थे। हाल ही में हिंदुस्तान को चीन के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा था। एक लंबे समय तक हार और अपमान बर्दाश्त करने के बाद हिंदुस्तानियों को सैनिक विजय के ये नायाब और मधुर क्षण नसीब हुए थे।` कारगिल संघर्ष पर इस बुद्धिजीवी इतिहासकार की किताब एक अखबार की कतरन के सहारे कहती है, `पूरे भारतवर्ष में कारगिल संघर्ष ने देशभक्ति का एक उन्माद पैदा कर दिया। देशभर में सैनिक नियुक्ति केंद्रों पर सेना में भर्ती होने के लिए हजारों नौजवानों में होड़ मच गई। उनकी तादाद इतनी थी कि कई बार पुलिस को उन्हें तितर-बितर करने के लिए गोलियां चलानी पड़ीं।` फिर गुहा खुद इस उन्माद में शामिल हो जाते हैं, `इस घटना ने एक ज्यादा प्रभावशाली और ज्यादा धमक वाले भारतीय राष्ट्रवाद को भी जन्म दिया। इससे पहले कभी भी सरहद पर मारे जाने वाले जवानों के शवों ने इतना भावनात्मक ज्वार पैदा नहीं किया था।` कारगिल संघर्ष के दिनों में मैं अमर उजाला अखबार के जिला ब्यूरो चीफ की हैसियत से हरियाणा के करनाल में था। हरियाणा में कारगिल में काम आए सैनिकों के शव बड़ी संख्या में पहुंचे थे। मैं कई गांवों में पीड़ित परिवारों के पास पहुंचा और फोटो खिंचाऊ व छपास रोग से पीड़ित लोगों से अलग होकर दुखी मांओं या विधवाओं से बातें कीं तो हर बार एक भारी त्रासदी का ही अहसास हुआ। शहरों में होने वाले सैनिकों को समर्पित समारोहों के उत्सवी चेहरे उस त्रासदी को कभी कम नहीं कर पाए। मैंने कई भर्ती रैलियों को भी कवर किया। वहां पहुंचे किसानों-मजदूरों के बेटों से लंबी बातें कीं तो किसी में रत्ती भर उन्माद नहीं पाया। सहज ढंग से बातचीत होते ही अधिकांश युवा कोई रोजगार न होने की मजबूरी को ही सेना में भर्ती होने की चाहत की वजह बताते थे। लेकिन गुहा के पास अखबारों की जो कतरनें पहुंचीं, वे ज्यादा माहिर रिपोर्टरों की लिखी हुई थीं और शायद खुद गुहा के सीने में भावों की ज्यादा गहरी रसधारा बह रही थी।
जैसा कि पहले भी कहा गया है कि संघ परिवार और उसकी साजिशों को लेकर गुहा की समझ बेहद नाकाफी, समस्याग्रस्त और रहस्यमय है। बाबरी मस्जिद विध्वंस का वर्णन भी इस लिहाज से खासा अखरने वाला है। गुजरात के व्यापक नरसंहार और उस पर केंद्र सरकार की खामोशी के बाद आरएसएस को फासीवादी कह दिए जाने पर गुहा को गहरी आपत्ति है। गुहा कहते हैं, `...अरुंधती रॉय ने बीजेपी शासन की `फासीवादी` शासन तक से तुलना कर दी। वास्तव में उन्होंने दिल्ली की सरकार की कार्रवाइयों की व्याख्या करते हुए महज एक पैराग्राफ में ग्यारह बार `फासीवाद` शब्द का प्रयोग किया।` इसके जवाब में गुहा भी एक लंबा पैरा खर्च करते हैं और खूनी पंजों वाले संघ की इस संतान के लिए एनडीए की सहयोगी पार्टियों से भी ज्यादा उदार हो जाते हैं- `यहां एक बार फिर से भारतीय घटनाओं और भारत के अनुभवों के संदर्भ को यूरोपीय इतिहास से उधार लेकर लापरवाहीपूर्वक विश्लेषित किया जा रहा था। बीजेपी को `फासीवादी` कहने का मतलब था कि इटली और जर्मनी के मूल फासीवादियों के गंभीर और बर्बरतापूर्ण अपराधों को कम करके आंकना। यह एक तथ्य है कि बीजेपी के बहुत सारे नेता कई मामलों में आरोपी हैं लेकिन पूरी पार्टी को फासीवादी कहना एक तो बीजेपी की ताकत को बढ़ा-चढ़ाकर बताने जैसा है और दूसरे भारतीय जनता के लोकतांत्रिक परंपराओं को कम करके आंकने जैसा भी है। रेखांकित करने वाली बात यह भी है कि बीजेपी अब खुलकर भाषायी बहुलताको बढ़ावा दे रही है। अब इसके नेता सिर्फ हिंदी पट्टी से ही नहीं आते बल्कि इसने अपना प्रभाव दक्षिणी राज्यों में भी बढ़ा लिया है। और कम से कम यह पार्टी धार्मिक बहुलता को ऊपरी तौर पर समर्थन देने के लिए जरूर बाध्य है। पार्टी के एक महासचिव मुस्लिम समुदाय से हैं। इसे अगर प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व भी मान लिया जाए तो वे और उनकी पार्टी जिस विचारधारा को बढ़ावा देती हैं उसे वे `सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता` कहते हैं। यहां पर जो बात रेखांकित करने लायक है वो ये कि पार्टी द्वारा एक कट्टरपंथी नीति पर नरम रवैया अपनाया गया है। वो नरम रवैया ये है कि भले ही बंद कमरे में बीजेपी के कुछ नेता एक हिंदू राष्ट्र की आकांक्षा पालते हों लेकिन जनता के बीच इस मुद्दे को ग्राह्य बनाने के लिए वे भारतीय संविधान के सेक्युलर आदर्श को मानना जरूरी समझने लगे हैं।`
यह `बौद्धिक` छाप नसीहत देने वाले गुहा खुद बीजेपी की गुजरात सरकार के संरक्षण में हुए मुसलमानों के संहार पर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की आपराधिक निष्क्रियता जो एक निष्ठावान स्वयंसेवक की अपराध के प्रति सक्रियता ही थी, को कभी बेनकाब नहीं करते। वे कहते हैं, `जो (दंगा पीड़ित मुसलमान) शरणार्थी शिविरों में रह रहे थे और जिनकी दारुण स्थिति को खुद प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने अहसास किया था।` उस अहसास से आगे जाकर अमल में पीएम ने क्या किया था? यह भी गौरतलब है कि गुजरात के नरसंहार का जिक्र करते हुए वे इसकी तुलना 1984 के सिखों के नरसंहार से करना नहीं भूलते। इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि 84 का सिख नरसंहार केंद्र की कांग्रेस सरकार और उसके नेताओं के संरक्षण का नतीजा था? इस बारे में सेक्युलरों ने लगातार लड़ाई लड़ी है। लेकिन हम लगातार यह भी देखते हैं कि किस तरह संघ और बीजेपी गुजरात का जिक्र आते ही 84 के सिख नरसंहार का उदाहरण देने लगते है। यह तब जबकि गुहा बाकायदा अध्यायों में विभिन्न घटनाओं पर कमेंट्री करते हैं और इंदिरा की हत्या और उसके बाद के सिख नरसंहार उस अध्याय में मौजूद हैं।
यथास्थितिवादी नजरिया
दरअसल, कोई एक चीज लेखक की चेतना में है जो विभिन्न मसलों पर व्यापक उद्धरणों व पक्षों के उल्लेख के बीच यथास्थिति का या प्रतिगामी शक्तियों का पक्ष बनाने लगती है। कई बार यह काम उनके वाक्यों के गठन और उनमें किसी बात पर बार-बार जोर दिए जाने से हो जाता है । रूपकंवर प्रकरण का वर्णन इसी तरह का नमूना है। किताब कहती है, `,सितंबर 1987 में राजस्थान के एक गांव में रूपकंवर नाम की एक महिला अपने पति की मौत के बाद सती हो गई।` शायद इस वाक्य में यह छिपा रह गया हो कि रूपकंवर सती नहीं हुई, उसे किसी और ने जबरन जला दिया था। शायद इसलिए यह पूरी तरह जता देने के लिए कि देखिए सती होना एक स्वैच्छिक कर्म था, एक और वाक्य की जरूरत पड़ती है, `उसने खुद को आग में जला दिया।` आगे का वाक्य भी काबिलेगौर है, `हालांकि हिंदू परंपराओं में सती का उल्लेख है और इसकी मान्यता दी गई है लेकिन कानून यह प्रतिबंधित करता है।` मोटे तौर पर यह एक सामान्य तथ्य लग सकता है लेकिन पहले हिंदू परंपराओं में सती के उल्लेख की बात और फिर अलग से इसकी मान्यता को स्थापित किया जाता है। तब यह बताया जाता है, `लेकिन कानून इसे प्रतिबंधित करता है।` क्या यह अनुवाद की भाषा का नतीजा है या मूल अंग्रेजी किताब भी इसी तरह बोलती है? उत्तर पूर्व और खासकर नागालौंड के संघर्ष की जटिलताओं पर काफी रोशनी डालने के बावजूद लेखक शांति के संकेतों का जिक्र करते हुए लिख बैठता हैं, `पहले मैच में तालियों की गड़गड़ाहट और जोश से भरी 15,000 की भीड़ के सामने कोहिमा-11 की टीम ने अपने मेहमान को 1-0 से हरा दिया। हालांकि अगले दिन मोहन बागान ने मेजबान टीम को 5-0 से हराकर हिंदुस्तान की इज्जत जरूर बचाई।` ऐसे उदाहरण पूरी किताब में बिखरे पड़े हैं। वे इमरजेंसी को लोकतंत्र के बुरे दिन मानते हैं और उस दौर की निरंकुशताओं के विवरण भी उपलब्ध कराते हैं। लेकिन ब्रिटिश समाजशास्त्री जो. इल्डर के लेखन के आधार पर इस निष्कर्ष पर भी पहुंच जाते हैं कि आपातकाल की पटकथा इंदिरा और जेपी द्वारा संयुक्त रूप से लिखी गई थी। जेपी के संपूर्ण क्रांति के आह्वान को वे रॉबर्ट जे. लिफ्टन की उस नज़र से देखते हैं जिसने चीन की सांस्कृतिक क्रांति को उम्रदराज माओ की कुंठा का नतीजा बताया था। वे हद तब भी कर देते हैं जब जेपी आंदोलन और केरल की पहली कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ हुए आंदोलन में हास्यास्पद ढंग से तुलना करने बैठ जाते हैं। गुहा के मुताबिक, `दोनों ही आंदोलनों में गजब की समानताएं हैं। दोनों ही मामलों में एक तरफ जनता द्वारा वैध तरीके से चुनी गई सरकारें थीं, जिन पर संविधान को तोड़ने-मरोड़ने का आरोप लगया गया था। दूसरी तरफ इनके विरोध में एक जनांदोलन उठ खड़ा हुआ था, जिसमें विपक्षी पार्टियों समेत कई गैरराजनीतिक और अर्द्ध राजनीतिक संस्थाएं शामिल थीं। मन्नथ पद्मनाभन की तरह ही जयप्रकाश नारायण भी निश्चय ही एक बेदाग शख्सियत के नेता थे, जिनका जनता एक संत की तरह सम्मान करती थी। उन्हें लोगों ने राजनीति की रक्षा के लिए आमंत्रित किया था, जो राजनेताओं के चंगुल में फंस गई थी। उनका व्यवहार अपने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में बिल्कुल उलट था। 1958-59 में नंबूदरीपाद और 1974 में श्रीमती गांधी अपने विरोधियों की बातों को सुनने या अपनी मर्जी से सत्ता छोड़ने के पक्ष में बिल्कुल ही नहीं थे।` अब गुहा को कौन बताए कि जेपी लोकतांत्रिक अधिकारों के व्यापक दमन के विरोध में उपजे जनाक्रोश का नेतृत्व कर रहे थे, तो पद्मनाभन कमजोर तबकों को राज्य सरकार द्वारा दिए जा रहे वाजिब अधिकारों व शिक्षा के सेक्युलराइजेशन के विरोध में बड़ी जातियों, रूढ़िवादी ताकतों और अवसरवादी सियासती जमातों के अनैतिक गठजोड़ द्वारा संचालित अभियान की अगुआई कर रहे थे। इंदिरा जहां लोकतंत्र को हमेशा के लिए पटरी से उतार देने के लिए याद की जाएंगी तो नंबूदरीपाद लोकतंत्र में वंचितों को हक दिलाने और सेक्युलरिज्म को सही मायनों में स्थापित करने के प्रयास में सत्ता कुर्बान करने के लिए। यहां गुहा की दो समस्याएं हैं। एक तो वे नेहरू के नेतृत्व की कांग्रेस सत्ता से अलग किसी भी राज्य में गैर कांग्रेसी सरकार, किसी भी जनांदोलन या विरोध को खतरे के रूप में देखतेहैं। दूसरे उनकी चेतना में कम्युनिस्टों के लिए एक स्थायी बैरभाव है जो कम से कम किसी इतिहासकार के लिए खतरनाक है। वे बांग्लादेश से कलकत्ता में आए लुटे-पिटे शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए कम्युनिस्टों के प्रयासों तक को पचा नहीं पाते। अमेरिकी और दूसरे पश्चिमी लोगों के हवाले से तो कभी सीधे उन्हें कम्युनिस्टों का खतरा निरंतर सताता है। केरल में दुनिया की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार को वे भारतीय संघ प्रणाली के भविष्य पर बड़ा प्रश्नचिह्न मानते हैं। पश्चिम बंगाल की अजय मुखर्जी (बांग्ला कांग्रेस) के नेतृत्व वाली बांग्ला कांग्रेस-सीपीएम गठबंधन सरकार के कार्यकाल पर भी उनका रवैया यही है। भूमि, श्रम और गृह मंत्रालय सीपीएम के पास थे और गुहा पाते हैं कि समस्या भूमि और श्रम मामलों से शुरू होती थी जिसे गृह विभाग हल नहीं करता था, मतलब पुलिस भूमिहीनों और फैक्ट्री मजदूरों को सबक नहीं सिखाती थी। इस राज्य में सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कम्युनिस्टों के भयावह दमन को वे स्वाभाविक रूप से भूल जाते हैं।
अनुदारता के आयाम
आश्चर्य नहीं कि दूसरे जनांदोलनों और जनपक्षधर सरकारी नीतियों को लेकर भी गुहा उदार नहीं हो पाते। या तो उन्हें वे शंका की नज़र से देखते हैं या फिर उन्हें मामूली महत्व देते हैं। नेहरू के बड़े बांधों को उत्सवधर्मी नज़र से देखते हुए वे व्यापक विस्थापन और दूसरे दुष्परिणामों की तो अनदेखी कर देते हैं लेकिन नेहरू की नीतियों में वाम रुझान और उनके अमेरिका के बजाय सोवियत यूनियन की तरफ ज्यादा झुकाव से वे चिंतित रहते हैं। आदिवासियों के विस्थापन से जुड़े नर्मदा बचाओ जैसे आंदोलनों को भी वे एक इलीट उत्सवधर्मी निगाह से ही देखकर आगे बढ़ जाते हैं। भारतीय राजनीति में आए पिछड़ों-दलितों के उभार, इससे जुड़े व्यापक बदलाव और इन्हें आर्टिकुलेट करने की भीतरी-बाहरी कोशिशों की पड़ताल करने के बजाय वे कमेंटरी करते हुए कुछ उद्धरण भर जोड़ देते हैं मसलन `जाति और पेशे के बीच, एक जमाने में जो मजबूत संबंध था, वो भी कमजोर होने लगा था।`एक अन्य संदर्भ में वे लिखते हैं कि बहुत सारे जाटव स्वरोजगार में ही लगे रहे लेकिन उन्हीं में से कुछ ने अपना कारखाना लगा लिया जहां उनके श्रमिकों को दी जाने वाली तन्ख्वाह इतनी थी जिसकी वे खुद कभी कल्पना नहीं कर पाए थे। लेकिन जाति-पेशे में संबंध कमजोर होने का बदलाव काफी इकतरफा था, यह गुहा नहीं बताते। जिस वक्त वे इस किताब के प्रकाशन की तैयारी कर रहे थे, उसी समय दिल्ली से महज 125 किलोमीटर दूर हाइवे पर स्थित लिबर्टी जूता फैक्ट्री में मजदूरों पर भारी जुल्म जारी था। एक बनिया परिवार दलितों के परंपरागत पेशे का बड़ा व्यापारी बन चुका था और वाजिब मेहताने की मांग को लेकर वहां काम करने वाले कारीगर व दूसरे मजदूर पुलिस की लाठियां खा रहे थे। वे किताब में कई बड़े और कई फालतू व्यक्तित्वों के चित्रण में पूरा हुनर उडेल देने हैं लेकिन दलित नेताओं के साथ इतने उदार नहीं रहते। जगजीवन राम के लिए यह किताब कहती है, `जगजीवन राम को एक प्रथम श्रेणी का प्रशासक माना जाता था हालांकि उनकी जीवन शैली विवादों से रहित नहीं थी जैसी कि उनकी गांधीवादी जीवनशैली से उम्मीद की जाती थी। ` दलित आरक्षण पर वे लिखते हैं, `इन सकारात्मक कदमों का उद्देश्य जातीय भेदभाव को दूर करना था, लेकिन इससे लाभान्वित होने वाले लोगों को पहले से भी ज्यादा अपनी मूल जाति में ही स्थिर कर दिया। ऊंची जातियों में उनके प्रति शक और नाराजगी भरा भाव था और कभी-कभी इससे लाभान्वित होने वाले लोग भी अपनी मूल जाति के लोगों को हेय निगाह से देखने लगते थे या भूलने की कोशिश करते थे।`
समझ की सीमाएं
देश-विदेश के पुस्तकालयों में बंद रहकर गुहा अंग्रेजी अखबारों की कतरनों से मायावती के बारे में यह जान पाए कि `भाषण देने की लाजवाब कला और चुटीले व्यंग्यों की बदौलत मायावती ने जनसभाओं में लोगों को ध्यान आकर्षित किया। उनका व्यंग्य ज्यादातर कांग्रेस पार्टी के खिलाफ होता था।` गुहा ने न उन्हें न कभी दलितों के गली-मुहल्लों में भटकते देखा था, न सवर्णों की ताकत वाले गांवों में उनके आक्रामक भाषणों को सुना था जिनमें वे कांग्रेस से भी पहले ताकतवर जातियों पर निशाना साधती थीं और उन्हें सभा से उठकर चले जाने को कहती थीं। 1984 के लोकसभा चुनाव में वै कैराना से प्रत्याशी थीं तो थानाभवन क्षेत्र में मतदान के दिन वे बामुश्किल बच पाई थीं। गुहा यह तो ठीक कहते हैं कि 90 के दशक की शुरुआत तक मायावती अपनी पार्टी का चेहरा बन चुकी थीं लेकिन उनका यह कहना कि उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि सिर्फ अपने समुदाय के मतों की बदौलत दलित कभी भी सत्ता में नहीं आ पाएंगे और इसलिए उन्होंने दूसरी पार्टियों और जातियों से गठबंधन बनाना शुरू किया, तकनीकी तौर पर उचित नहीं है। दरअसल इसके योजनाकार कांसीराम ही थे जो मायावती के पहली बार मुख्यमंत्री बनने से बाद तक पार्टी के असल रणनीतिकार रहे। शायद अंग्रेजी अखबारों पर निर्भरता का ही नतीजा है कि वे दिल्ली से महज सवासौ किलोमीटर दूर शामली के करमूखेड़ी बिजलीघर पर पुलिस से किसानों के टकराव के बाद उभरकर आए जाटों की बालियान खाप के नेता महेंद्र सिंह टिकैत की भारतीय किसान यूनियन को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बजाय हरियाणा व पंजाब में सक्रिय पाते हैं।
उत्फुल्लता का सवेरा
इस किस्सागोई का एक अध्याय `समृद्धि का दौर` किस्सागो की आत्मा की आवाज की तरह है जिसकी कसमसाहट पूरे किस्से में मौजूद रहती आई है। नेहरू के समाजवादी रुझान वाले दौर से अतृप्त उन अमेरिकापरस्त-पूंजीपरस्त आत्माओं की तरह जिन्हें आखिरकार `मनमोहनी युग` में चैन मिल पाता है। इस बेचैनी के सूत्र कभी पश्चिमी पत्रकारों, नेताओं और बुद्धिजीवियों की चिंता के जरिए और कभी पटेल आदि पूंजीवादी-पश्चिम समर्थक खेमे की कोशिशों के जरिए किताब की शुरुआत में ही मिलने लगते हैं। इमरजेंसी के दौर में टाटा का बयान उल्लेखनीय है जिसमें वे इमरजेंसी को उद्योगपतियों के लिए माकूल समय मानते हैं। 1966 में रुपये के अवमूल्यन से भी इन तत्वों की बांछें खिलती हैं और फिर आगे `अपेक्षित सुधार` न होने की निराशा जताई जाती है। बकौल गुहा, `लेकिन जब सन् 1969 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में विभाजन करवा दिया तो उनकी सरकार ने `वाम झुकाव` का प्रदर्शन करते हुए कई `नए उद्योगों का राष्ट्रीयकरण` कर दिया और आर्थिक तानाशाही की तरफ बढ़ गईं।`गुहा सॉफ्टवेयर क्षेत्र के उदय का हवाला देते हुए नेहरू को भी नई आर्थिक नीतियों से उपजे `समृद्धि के दौर` का श्रेय दे देते हैं, जिन्होंने `उच्चस्तर के इंजीनियरिंग संस्थानों की स्थापना और उच्चशिक्षा में अंग्रेजी को माध्यम बनाने पर जोर दिया था।` उत्फुल्ल गुहा कहते हैं, `यह वाकई सुखद विरोधाभास है कि बाजार उदारीकरण का यह एक अच्छा नतीजा उस व्यक्ति के कार्यों की बदौतल संभव हो पाया जो राज्य नियंत्रित आर्थिक विकास के लिए प्रतिबद्ध था।` वे आईटी सेक्टर के किसी `प्रतिष्ठित` विश्लेषक के जरिये कहते हैं, `भारत की सबसे बड़ी ताकत उसकी विशाल, शिक्षित और अंग्रेजी भाषी जनता है जो अपेक्षाकृत सस्ती दरों पर काम करने के लिए तैयार है।` सस्ती दर पर रात भर जागकर भारतीय युवाओं, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल हैं द्वारा पश्चिमी देशों के क्रेडिट कार्ड उपभोक्ताओं के फोन सुनने का उदाहरण पेश कर रहे गुहा के लिए काम के घंटे और कथित वैश्विक गांव में दरों की समानता कोई मसला नहीं है। उनका स्वर उन अर्थशास्त्रियों के स्वर में ही शामिल है जो श्रम कानूनों को महत्वहीन बनाने को विकास मानते हैं। जीडीपी के आंकडों, मशहूर ब्रांड के विज्ञापनों, शोरूमों, कंक्रीट और शीशे की विशालकाय इमारतों, देशी-विदेशी कारों का हवाला देकर वे बाज़ार समर्थक नीतियों का जमकर गुणगान करते हैं।
ऐसा नहीं है कि गुहा इस `चमकते-विकसित` हिंदुस्तान में लुटते-पिटते लोगों से वाकिफ नहीं हैं। वे उनका जिक्र करते हैं और उनके साथ नाइंसाफी को अपने ढंग से देखते हैं। एक वजह तो यही है कि `भारत के ज्यादातर गरीब लोग गांवों में रहते हैं क्योंकि आर्थिक उदारीकरण का फायदा सुदूर इलाकों तक अभी भी नहीं पहुंच पाया है।` फिर वह यह भी बताते हैं कि सरकारी गोदामों में खाद्यान्न का बफर स्टॉक है लेकिन वितरण की व्यवस्था अपर्याप्त है और जनवितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार भी है। अब शायद उन्हें मालूम नहीं कि जिस मुक्त बाज़ार व्यवस्था की बात वे कर रहे हैं, वह गरीबों को सब्सिडी की सबसे बड़ी दुश्मन है और यह व्यवस्था भ्रष्टाचार पर ही फलती-फूलती है। दूसरे जिन शहरों में आर्थिक उदारीकरण के फायदे पहुंचने की बात वे कर रहे हैं, उन शहरों की भी बड़ी आबादियां गटर में तब्दील हो जाने को मजबूर होती गई हैं। किसानों की आत्महत्या को लेकर इस किस्सागो का `बौद्धिक` बेहद क्रूर मजाक की तरह है। गुहा कहते हैं, `बहुत सारे मामलों में ऐसा इसलिए होता था कि वह (किसान) सालों साल से बढ़ता बैंक, सहकारी संस्थान या स्थानीय महाजनों का कर्ज अदा करने में असमर्थ हो जाता है। लेकिन एक बात यह भी थी कि किसानों के कर्ज में डूबे रहने की परंपरा भी ग्रामीण जीवन की एक विकृत सचाई थी। सवाल यह था कि अब ऐसी कौन सी परिस्थिति आ गई थी कि इसका इतना दुखदायी नतीजा सामने आने लगा था?` गुहा को हारकर लिखना पड़ा कि `इसका कोई व्यवस्थित अध्ययन हमारे सामने उपलब्ध नहीं है...`, क्योंकि किताब के छापेखाने में जाने तक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह ज्ञान नहीं दिया था कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं।
सामूहिक संघर्ष बनाम एंग्री यंगमैन
किताब का एक अध्याय हिंदुस्तान के लोगों के मनोरंजन के माध्यमों को लेकर है जो मुख्य रूप से हिंदी सिनेमा पर केंद्रित है। हिंदुस्तानी सिनेमा अपनी शुरुआत से ही हिंदुस्तान की मिली-जुली संस्कृति का कायल रहा है, इसका गुहा जिक्र भी करते हैं। लेकिन, इस सिनेमा को श्रेष्ठतम देने वालों में बड़ी संख्या वामपंथियों और वामपंथी रुझान वाले लोगों की रही है। इप्टा जिसे किताब के हिंदी अनुवाद में उग्र सुधारवादी कहा गया है, के बेहतरीन कलाकारों ने लंबे समय तक वंचितों-शोषितों के सवालों व सेक्युलर सिलसिले को इस सिनेमा के केंद्र में बनाए रखा। गुहा इस महान योगदान को नजरअंदाज कर जाते हैं। सत्यजित रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक और श्याम बेनेगल के जिक्र के बावजूद वे कला या समानांतर सिनेमा की जोरदार उपस्थिति वाले दौर की भी लगभग अनदेखी करते हैं और सत्तर के दशक में नक्सलवादी आंदोलन और जेपी मूवमेंट के लिहाज से फिल्मी पर्दे पर अमिताभ बच्चन की यंग एंग्रीमैन की भूमिका को बिल्कुल उपयुक्त करार देते हैं। वे यह व्याख्या करना जरूरी नहीं समझते कि यंग एंग्रीमैन दरअसल जनता के सामूहिक संघर्षों में शामिल होने के बजाय अकेले हर स्याह-सफेद तरीकों का इस्तेमाल करते हुए हर बुराई पर फतेह पा लेता था। दरअसल, यह सामूहिक संघर्षों को कमजोर करने और युवाओं को फासिज़्म का रास्ता दिखाने जैसा था। गुहा के लिए हबीब तनवीर का अर्थ यह है कि उन्होंने अपने आपको किसी राजनैतिक पार्टी या आंदोलन के साथ खुलकर नहीं जोड़ा। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से एक सज्जाद जहीर किताब में पूर्व कम्युनिस्ट (क्या यह अनुवाद की समस्या है?) हो जाते हैं। लोकप्रिय क्रांतिकारी गीतकार गदर का उल्लेख जरूर किया गया है पर कुल मिलाकर राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों ही क्षेत्रों में बेहतर बदलाव की ज़िद वाले आंदोलनों से लेखक अनदेखी या अनबन ही पेश करता है। गांधी के बाद के भारत में गुहा स्त्री आंदोलन के लिए केवल एक पैरा देते हैं। दरअसल, `एकीकृत भारत` के अस्तित्व के लिए उनका ज्यादा यकीन सक्षम नौकरशाही और सेना पर बनता है जिसकी बदौलत पंजाब के `आतंकवादी`, कश्मीर के `जेहादी`, उत्तर पूर्व के `अलगाववादी` और मुक्त बाज़ार के खिलाफ उठ खड़े होने वाले भूखे-नंगे काबू किए जाते रहे हैं और काबू किए जा सकते हैं। गुहा के लिए हिंदी कवि रघुवीर सहाय की कविता की पंक्ति काम की हो सकती हैः `केंद्रीय रिजर्व पुलिस भारत की एकता`।
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Santulit, alochanatmak vivek se sampann aakalan. Is aalekh ko padhne ke baad Ram Guha ki kitab aur bhi kharaab lagne lagegi. Dhiresh ko is vidvatapurn kaam ke liye badhai.
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शुक्रिया धीरेश भाई. यह किताब मैं भी पढ़ रहा था, और कुढ़ रहा था. गुहा उदार चोले के भीतर भीषण कट्टर और असहिष्णु हैं. किताब कुल मिलाकर नायकों (?) के इर्द-गिर्द घूमती है और राजनैतिक घटनाओं की व्याख्या के नाम पर सत्ता के ऊपरी बुर्जुवा ढांचें की किस्स्सागोई में ही सुकून हासिल कर पाती है.
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bahut sundar, jabardast!
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विस्तृत समीक्षा के लिए धन्यवाद। आशा करता हूँ कि जब यह किताब हाथ में आएगी तो उसे आपकी समीक्षा की रोश्नी में पढ़ना बेहद दिलचस्प होगा।
आभार सहित।
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