विश्वविद्यालय और उत्कृष्टता के प्रश्न

पद ग्रहण करने के बाद लगभग हर पखवाड़े हमारे राष्ट्रपति किसी न किसी शिक्षा संस्थान में दीक्षांत समारोह में भाग ले रहे हैं। इससे शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा के प्रति उनके  लगाव और चिंता का प्रमाण  मिलता है।  हर जगह उन्होंने इस पर व्यथा जताई है कि हमारे  विश्वविद्यालय के दो सौ श्रेष्ठतम शिक्षा संस्थानों में कहीं नहीं हैं। चिंता कोई  नई नहीं है। हमारे विश्वविद्यालयों में प्रथम श्रेणी का शोध नहीं होता, हम मौलिक खोज नहीं कर पाते , ज्ञान भंडार में हमारे योगदान के प्रमाण की तलाश हमें लज्जित करती है! शिकायतों की  फेहरिस्त और लम्बी हो सकती है। इस पर ताज्जुब ज़रूर किया जा सकता है कि पलक झपकते ही  समितियां और क़ानून बनाने की अभ्यस्त व्यवस्था ने इस प्रश्न पर विचार करने के लिए अब तक कोई समिति क्यों नहीं बनाई !

एक प्रवृत्ति इस सवाल से कतराने की  रही है। इस राष्ट्रवादी रवैये के मुताबिक़ हमारी अपनी परिस्थितयां है और हमें श्रेष्ठता के अपने पैमाने बनाए चाहिए,   पराए पर्यावरण में पहने फूलने वाले शिक्षा संस्थानों से तुलना व्यर्थ है, उनके मानदंड हमारे मानदंड नहीं हो सकते! लेकिन हम सब जानते हैं  कि  यह तर्क समस्या से कतराने का खूबसूरत आवरण है, कि  हम अंतरराष्ट्रीय वातावरण में काम कर रहे हैं और ‘हमारा’ सीमित अर्थ में ही हमारा है। कक्षाओं में हम ज्ञान के जिन स्रोतों का सहारा लेते हैं , वे पूरी दुनिया से लिए जाते हैं और संभवतः यह  अपेक्षा और महत्वाकांक्षा गलत नहीं है कि  कक्षा अमेरिका की  हो या अफ्रीका की, ज्ञान चर्चा के क्रम में  में भारतीय स्रोत तक जाना अनिवार्य हो। यह  विश्वगुरु की पदवी हासिल करने का राष्ट्रवादी अभियान नहीं हो सकता, ज्ञान की अन्तराष्ट्रीय बिरादरी में शिरकत करने की योग्यता अर्जित करने का  उद्यम अवश्य है। जो विश्वविद्यालय अपने परिसर में इस प्रकार का ज़रूरी ज्ञान पैदा नहीं करता वह ज्ञान के  अन्तराष्ट्रीय समुदाय का सदस्य नहीं हो सकता। लेकिन यह विश्वविद्यालय का एक पक्ष है। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि इसे लेकर समाज में, जो विश्वविद्यालयों को संपोषित करता है,  जागरूकता नहीं के बराबर है। वह इन्हें इसी रूप में उपयोगी मानता है कि वे इस प्रकार की प्रमाणन व्यवस्था हों जिन पर उद्योगों और दूसरे काम देने वाले संस्थानों  का यकीन हो।  उसका संघर्ष कई बार विश्वविद्यालयों से इस बात को लेकर होता रहा है कि वे इन प्रमाण पत्रों या डिग्रियों के रास्ते में बाधा न बनें। किसी भी तरह डिग्री दे देने से अधिक उनका उपयोग नहीं है। वे इसकी भी उम्मीद उनसे नहीं करते कि वे डिग्री को अर्थवान बनाएं। एक ही साथ डिग्री कहीं से और व्यावहारिक प्रशिक्षण कहीं और से लेने  में उन्हें कोई ऐतराज नहीं।

समाज की इस सीमित अपेक्षा को  काफी मानना ज़रूरी नहीं. हम विश्वविद्यालयों को मात्र परीक्षा के कारखानों में नहीं बदल देना चाहते. हम चाहते है कि ज्ञान की नई सरहदें खींचने की कुव्वत उनमें पैदा हो. इसके अलावा उदार लोकतांत्रिक सामाजिक के  अभ्यास के लिए भी  हमें विश्वविद्यालयों की ज़रुरत है। नारीवादी ज्ञान अगर आन्दोलनों का ऋणी है तो उसके निर्माण में विश्वविद्यालयों की अहम् भूमिका रही है। उसका व्यावहारिक उपयोग अब कितने स्तरों  पर हो रहा है, कहने की आवश्यकता नहीं. इसलिए ज्ञान निर्माण की  बुनियादी जिम्मेदारी को नज़रअंदाज करने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता. और इस मामले में हम निश्चय ही  दुनिया के अग्रगण्य विश्वविद्यालयों  में नहीं हैं.

ज्ञान निर्माण या सृजन को विश्विद्यालय में संभव करने के किस प्रकार की  परिस्थितियाँ चाहिए? दूसरे शब्दों में, उच्च शिक्षा में उत्कृष्टता के घटक तत्व क्या  हैं या वह सांस्थानिक वातावरण किस प्रकार का है जो उत्कृष्टता की ओर पूरे विश्वविद्यालय समुदाय को प्रेरित करता है ?  भारतीय विश्वविद्यालय व्यवस्था उन्हें कैसे उपलब्ध कर सकती है?

विश्वविद्यालय की सांस्थानिक संरचना पर विचार किये बिना यह समझना कठिन है कि उसमें उत्कृष्टता के लिए अनुकूल वातावरण कौन और कैसे उत्पन्न करता है. राष्ट्रपति महोदय भाषणों से आगे इस पर विचार करते तो सबसे पहले उन्हें खुद  सारे केन्द्रीय विश्विद्यालयों के ‘विजिटर’ पद को छोड़ देने का ख्याल आता. दुनिया के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों के  सांस्थानिक ढाँचे में कहीं भी सर्वोच्च पद पर ऐसा व्यक्ति नहीं होता जो मात्र राष्ट्रपति या राज्य – प्रमुख  होने के नाते ही  किसी विश्वविद्यालय का प्रमुख या अध्यक्ष  बनने की अर्हता हासिल कर लेता हो. किसी भी श्रेष्ठ माने जानेवाले  विश्वविद्यालय का  प्रमुख   बनने के लिए किसी भी व्यक्ति को प्रमाणित करना होता है कि समबन्धित विश्वविद्यालय से उसका गहरा रिश्ता है और उसमें उसकी पर्याप्त रुचि है और वह अपना समय और ध्यान उसके लिए लगाने को तैयार है. हमारे कुलाध्यक्षों की तरह वह मात्र उपदेशिन नहीं होता. उसी की तरह अन्य न्यासियों या प्रबन्धन के सदस्यों  का चुनाव भी विश्वविद्यालय के शिक्षण, शोध और अन्य गतिविधियों से उनके गहरे जुड़ाव के प्रमाण के बाद ही हो पाता है.  विश्वविद्यालय  की सर्वोच्च प्रबंधन समिति और विश्विद्यालय की कार्यकारिणी में भी स्पष्ट स्तर-भेद होता है.

अमेरिका में, हम जिसका अनुकरण करने को बेताब हैं, प्रायः प्रबंधन-समिति (गवर्निंग बोर्ड) या कार्यकारिणी का अध्यक्ष विश्वविद्यालय का ‘प्रेसिडेंट’( हमारे यहाँ  कुलपति) नहीं होता. वह न्यास द्वारा बनाई गई समितियों का सदस्य हो सकता है लेकिन उनका प्रमुख नहीं. यह भी ध्यान देने की बात है कि प्रत्येक वर्ष विश्विद्यालय के प्रेसिडेंट के कार्य की बाकायदा समीक्षा न्यास या प्रबंधन-समिति द्वारा की जाती है. इसकी जांच-परख की जाती है कि अकादमिक सत्र के आरम्भ में जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे, उन्हें प्रेसिडेंट के नेतृत्व में कितना हासिल किया जा सका है. इसका आशय यह है कि प्रेसिडेंट अपने ऊपर एक निकाय के समक्ष जवाबदेह है और उसे  कोई भी निर्णय लेते समय इसका अहसास रहता है. हमारे विश्वविद्यालयों की तरह वह कार्यकारिणी की बैठक नहीं चला सकता और न उसे ‘रुलिंग’ देने का अबाधित अधिकार होता है. जवाबदेही के ढाँचे के बिना कोई भी प्रबंधन चल नहीं सकता.

अगर संस्था अपने लक्ष्य प्राप्त  करने में  लगातार अक्षम है तो उसके प्रबंधन को जिम्मेवारी लेनी होगी और अपने भीतर भी कुछ बदलाव लाने होंगे. ताज्जुब की बात है कि हमारे विश्विद्यालय प्रमुख ( प्रायः राष्ट्रपति या राज्यपाल) विश्वविद्यालयों  के पतन पर क्षोभ जाहिर करते समय एक बार भी अपनी भूमिका पर विचार नहीं करते और न यह  सोच पाते हैं कि इस न्यूनता के लिए विश्विद्यालय की प्रबंधन-व्यवस्था की कोई  खामी या कमी भी जिम्मेवार हो सकती है.

प्रमुख न्यासी या ‘चेयर’ और प्रेसिडेंट का कार्य-विभाजन स्पष्ट है और चेयर मात्र शोभा की वस्तु नहीं है. इसके अलावा, विश्विद्यालय के प्रेसिडेंट का (हमारे यहाँ  कुलपति) काम भी संस्था के दैनंदिन  कार्यों में उलझे रहना नहीं है.हमारे कुलपतियों को  पार्किंग में लगी  गाड़ियों पर लगे स्टिकर की जांच से लेकर दफ्तर में कर्मचारी की उपस्थिति का निरीक्षण, कक्षाओं के निश्चित समय पर चलने की गारंटी  तक का काम करना पड़ता है. दूसरी तरफ़, हमारे यहाँ के डीन प्रायः अधिकारविहीन होते हैं. वे अकादेमिक प्रस्ताव देने का काम नहीं करते और अपने संकायों में अध्यापकों की नियुक्ति, या पदोन्नति  में भी उनकी भूमिका नहीं होती. ये सारे अधिकार या दायित्व कुलपति के हाथ में होते हैं. सहज ही कल्पना की जा सकती है कि भारत में किसी बड़े विश्वविद्यालय का कुलपति होने के लिए किस प्रकार की  प्रतिभा और  क्षमता चाहिए. आश्चर्य नहीं कि कि यहाँ के कुलपति प्रायः शिकायतों से भरे होते हैं और उनकी आत्म छवि इस भीमाकार दायित्वबोध से निर्मित होती है.

ज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्टता बिना इत्मीनान के नहीं आ सकती.  इसके लिए लचीलापन भी चाहिए. क्या इसकी छूट हमारे हमारी व्यवस्था में है कि वह इसकी पहचान कर सके कि किस अध्यापक में शोध की प्रवृत्ति है और क्या इसकी गुंजाइश है कि  इसके लिए उसे शिक्षण कार्य से कुछ राहत दी जा सके? सार्वभौम ‘वर्क-लोड’ की भाषा में काम करने वाली ज्ञान-व्यवस्था को ज्ञान निर्माण के सपने देखने का अवकाश नहीं होता. अगर शोध के बारे में हमारे संस्था प्रमुखों का विचार यह हो कि अध्यापक नौ बजे से पाँच बजे तक कक्षा में रह कर रात में शोध करें तो कैसा शोध होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है. अवकाश को जिस व्यवस्था में नफरत की निगाह से देखा जाता हो और जो हाजिरी बजाने को  सबको मजबूर करने में ही कामयाबी  महसूस करे वह और कुछ  कर ले,ज्ञान निर्माण नहीं कर सकती, उत्कृष्टता और श्रेष्ठता तो उसके लिए सपना ही है.

उत्कृष्टता संस्था प्रमुख का लक्ष्य हो या महत्वाकांक्षा, इसके लिए उसे अपने संस्थान के प्रत्येक इकाई  से वास्तविक लगाव होना चाहिए. यह तभी हो सकेगा  जब उसके चुनाव में ये इकाइयां भूमिका निभाएं. इस जुलाई से प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के प्रेसिडेंट का कार्य क्रिस्टोफ़र इज्ग्रुबर संभालेंगे. उनका चयन जिस समिति ने किया उसमें नौ न्यासी, चार अध्यापक, दो स्नातक और एक परास्नातक छात्र और एक गैर-शैक्षणिक कर्मी शामिल थे. विश्विद्यालय की चुनौतियों, संभावनाओं, नए नेता की अर्हता पर राय शुमारी के लिए इस समिति ने पूरे देश में मशविरा किया, परिसर में सौ से अधिक बैठकें कीं,वेब साईट पर उसे तीन सौ बीस सुझाव मिले. प्रत्याशियों से इस समिति ने कई बैठकें कीं और फिर क्रिस्टोफ़र को अपने प्रेसिडेंट के रूप में चुना. यह प्रक्रिया छह महीने चली और पूरी तरह से पारदर्शी थी. हमारे विश्वविद्यालयों की तरह तीन बुद्धिमान लोगों की खोज समिति की सदाशयता और फिर विश्विद्यालय से राजसी दूरी पर बैठे कुलाध्यक्ष के विवेक पर विश्वविद्यालय के नेतृत्व के चयन का काम छोड़ नहीं दिया जाता. उत्कृष्टता की आकांक्षा खंड-खंड पूरी नहीं होती, उसके लिए एक उत्कृष्ट सांस्थानिक प्रक्रिया बनानी पड़ती है.

( First published in Jansatta on 2 June,2013)

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