भाषा का कार्य न तो प्रगतिशील होता है और न प्रतिक्रियावादी, वह फासिस्ट है: क्योंकि फासिज़्म अभिव्यक्ति पर पाबंदी नहीं लगाता, दरअसल वह बोलने को बाध्य करता है. रोलां बार्थ का यह वक्तव्य पहली नज़र में ऊटपटांग और हमारे अनुभवों के ठीक उलट जान पड़ता है. हम हमेशा से ही फासिज़्म को अभिव्यक्ति का शत्रु मानते आए हैं. लेकिन बार्थ के इस वक्तव्य पर गौर करने से, और हमारे आज के सन्दर्भ में खासकर, इसका अर्थ खुलने लगता है. इसके पहले कि हम आगे बात करें, यह भी समझ लेना ज़रूरी है कि बार्थ की खोज कुछ और थी. वे अर्थापन की नई विधि या पद्धति की तलाश में थे. अंततः उनकी खोज अर्थ से मुक्ति की थी, एक असंभव संधान लेकिन दिलचस्प: स्पष्टतः वह एक ऐसी दुनिया का स्वप्न देखता है जिसे अर्थ से मुक्ति हासिल होगी( जैसे किसी को अनिवार्य सैन्यसेवा से छूट मिली होती है). हम हिन्दुस्तानियों के लिए इसका पूरा अभिप्राय समझना कठिन है लेकिन एक अमेरीकी या रूसी या इस्राइली के लिए नहीं. उन्हें पता है कि वयस्क होते ही राज्य उनको सेना में भर्ती होने के लिए बाध्य कर सकता है. प्रसंगवश अनेक न्यूनताओं के बावजूद भारतीय लोकतंत्र के पक्ष में यह बात भी है कि उसने अपने नागरिक को सैन्य पदावली में परिभाषित नहीं किया. भारतीय होने की शर्त या उसकी कीमत अपना सैन्यीकरण नहीं है.
भाषा से अर्थ की अपेक्षा क्या उसका सैन्यीकरण है? हर अर्थ क्या एक प्रकार की हिंसा के लिए जगह पैदा करता है? क्या इसलिए कि प्रत्येक अर्थ का प्रतिद्वंद्वी अर्थ अनिवार्यतः होगा? जब मैं अर्थ करता हूँ तो साथ-साथ यह अपेक्षा भी करने लगता हूँ कि मेरे इस अर्थ को सब स्वीकार कर लें. प्रति-अर्थ की आशंका मुझे लगी रहती है और मैं निश्चिंत हो जाना चाहता हूँ कि वह कहीं छिपा तो नहीं बैठा है! इसके लिए ज़रूरी होगा हर किसी के मेरे किए अर्थ के प्रति रवैये को जानना.यह तब तक मुमकिन नहीं जब तक उसे बोलने को बाध्य न किया जाए.इसी तरह मुझे अपने अर्थ की अजेयता की आश्वस्ति हो सकती है.
फासिस्ट व्यवस्थाओं में इसका अनुभव रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सब करते हैं. राजकीय अर्थ से वफादार होना भर नहीं, दिखना भी अनिवार्य है. इस हिसाब से देखें तो फासिस्ट व्यवस्था मूक नहीं होती,वह अत्यंत ही वाचाल होती है. आपकी चुप्पी को स्वीकृत अर्थ को लेकर आपकी असहजता माना जा सकता है. साम्यवादी सोवियत संघ में चुनाव होते थे और लगभग शत प्रतिशत मतदान होता था. किसी भी लोकतंत्र के लिए यह ईर्ष्या की बात थी. मतदान में विकल्प जनता के पास नहीं था.सिर्फ और सिर्फ स्टालिन को चुना जा सकता था. इसलिए सोवियत संघ में अपने जोखिम पर ही मतदान से खुद को अलग रखने का निर्णय लेना संभव था.भारत जैसे लोकतंत्र की अपरिपक्वता का एक लक्षण मतदान के प्रति उसके नागरिकों की एक अच्छी-खासी संख्या की उदासीनता को बताया जाता है. बीच-बीच में प्रस्ताव लाया जाता है कि मतदान हर वयस्क के लिए अनिवार्य कर दिया जाए और मत न देना जुर्म घोषित कर दिया जाए. सौभाग्य से भारतीय लोकतंत्र अभी फासिस्ट नहीं हुआ है!
वाचालता या अर्थ-मुखरता या अर्थासक्ति इस प्रकार एक चिंताजनक अवस्था है. लोकतांत्रिक समाज में बोलने या अभिव्यक्ति को ही एक सहज अवस्था माना गया है. जन संचार माध्यमों में तकनीकी परिष्कार के साथ ही विस्तार तो हो ही रहा है, समय का अंतराल भी प्रायः समाप्त हो गया है. इंटरनेट,मोबाईल आदि ने स्थान और कालजनित दूरी या अवकाश को मिटा दिया है.किसी घटना के होते ही उस पर उसी क्षण प्रतिक्रिया संभव भी है और ज़रूरी भी मानी जाने लगी है. फेसबुक पर क्षण-क्षण की खबर ली और दी जा सकती है और यह उम्मीद भी की जाती है कि उस पर अन्य लोग प्रतिक्रिया देने में विलम्ब नहीं करेंगे. इसकी छूट नहीं कि आप प्रतिक्रिया देने वाले समाज से अलग रहना चाहें. याचिकाएं सार्वजनिक तौर पर जारी की जाती हैं और आपका दस्तखत अगर किसी पर न हो तो आपकी उदासीनता को खतरनाक माना जासकता है.
चुप्पी संदेह पैदा करती है. तानाशाह और फासिस्ट हर किसी को बोलते पाकर ही निश्चिन्त होता है. सोल्झेनिस्तिन ने वह किस्सा मशहूर कर दिया है जिसमें स्टालिन के भाषण के बाद तालियों की गड़गड़ाहट थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.कई मिनटों के बाद या तो अपनी अभ्यर्थना से निश्चिन्त हो कर या झेंप कर(क्या तानाशाह को भी झेंप होती है?) स्टालिन को ही इशारा करना पड़ा कि जनता अपने उत्साह को नियंत्रित करे. ध्यान रहे यह किस्सा नहीं है.
भाषा के कई पहलू होते हैं. वह अपने आप में फासिस्ट ही हो,ज़रूरी नहीं.एक अभिव्यक्ति दूसरी अभिव्यक्ति को जन्म देती है. इससे और आगे बढ़ कर वह दूसरी अभिव्यक्ति को बाध्यकारी और अनिवार्य भी बना दे सकती है. इस दूसरी भाषावस्था में जब सामाजिक व्यवहार पहुँचने लगे तो हमें फिक्र होनी चाहिए. उसी तरह हम भाषा का दो तरह से प्रयोग कर सकते हैं: एक, जब हम कुछ बोल या लिख कर सिर्फ फौरी नहीं,बल्कि कभी भी मुखर प्रतिक्रिया की अपेक्षा ही न करें. बल्कि उसके कारण चिंतन या मनन की एक प्रक्रिया मात्र के आरम्भ होने या गतिमान होने में ही उसकी सार्थकता का अनुभव करें. भाषा के व्यवहार की एक और परीक्षा यह भी है कि क्या वह अपने एक अनिवार्य प्रतिपक्ष की कल्पना से पैदा होती है जो उसके बाहर कहीं स्थित है. और क्या वह अपने इस प्रतिपक्षी को किसी उत्तर देने के लिए बाध्य करने की लालसा से ही पैदा होती है? हम अक्सर ऐसे वाक्चतुर लोगों के किस्से सुनते हैं जो सामने वाले को लाजवाब कर दिया करते हैं. किसी को निरुत्तर कर देने में विजयी होने की हिंसक खुशी होती है.यह भूलते हुए कि इसने अभी सामनेवाले में स्तम्भन या असमर्थता या वाक्शून्यता के कारण जो विवशता का भाव पैदा किया है वह प्रतिहिंसा का स्रोत हो सकता है. किसी पर,वह व्यक्ति हो या समाज,ऐसा आक्रमण करना कि वह प्रतिक्रिया दे न सके, प्रतिक्रिया को भूमिगत कर दे सकता है. फिर वह कहाँ , कैसे फूट निकलेगी, इसका अंदाज करना असंभव हो जाता है. इसलिए जब हम पोलेमिक्स का रास्ता अपनाते हैं तो एक प्रकार की भाषाई हिंसा को वैधता दे रहे होते हैं.यहाँ जीत या हार के अलावा तीसरी स्थिति संभव नहीं है.एक समय एक तर्क जो दूसरे की लाश पर विजय पताका लहराता है,औचक ही मारा भी जाता है.
भाषा का एक व्यापार या व्यवहार वह है जिसमें वह कहीं स्वयं को सम्बोधित करती है, खुद को भी टटोलती,खंगालती या ज़ख़्मी करती है.यह कह सकते हैं कि यह जनांतिक प्रदेश की भाषा है.ऐसा नहीं कि स्वयं को संबोधित भाषा बाहर सुनी नहीं जाती.उसका मूल्य यह है कि वह बाध्यकारी नहीं होती. उसकी रौशनी में हम फिर खुद को भी सुनने की कोशिश करते हैं.यह कोशिश किसी और के सामने अपना औचित्य सिद्ध करने,अपने आप को साबित करने के मकसद से आज़ाद होती है.
हम अक्सर हैरान रह जाते हैं कि ऐसा कैसे होता है कि हमें उसकी चीख नहीं सुनाई देती जिसे हम दूसरा मानते हैं. क्या यह इस वजह से होता है कि हमने कभी ठीक से खुद से बात नहीं की!
भाषा के इस प्रकार दो रुख हो सकते हैं:भीतर की ओर और बाहर की ओर. या बार्थ के अनुसार भाषा का संघर्ष उसके भीतर ही होगा. साहित्य इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जहां अर्थ तक पहुँच जाने में ही लेखक या पाठक की सार्थकता नहीं है. वह इसमें है कि भाषा के व्यवहार में अर्थ का स्थगन कितनी दूर तक किया जा सका है.यहाँ भाषा मात्र विचारों या भावों के सम्प्रेषण का माध्यम नहीं रहती,अपने आप में विचारणीय होती है.अर्थ का स्थगन या उसका विलंबन ऐसा गुण है जिसे सब गुण नहीं मानते.इसके नतीजे में भाषा ताकत के खेल के अलावा और कुछ नहीं रह जाती.ताकत हमेशा नकारात्मक नहीं. लेकिन भाषा की ताकत किसी को हतवाक करने में नहीं और न किसी जवाब देने को मजबूर करने में है. सबसे अधिक ताकतवर भाषा तब होती है जब वह ऐसे मौन का सृजन कर सके जिसमें एक-दूसरे से जुड़ पाने के सूत्र की खोज की जा सके.
( Published first in Jansatta on 22 September,2013)