Guest post by SANJEEV KUMAR
अभी अभी सत्तरहवीं लोकसभा (2019) के चुनाव परिणाम आये है, देश की कोई भी पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई है, जनता ने सभी सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवार को चुनकर संसद का रास्ता दिखाया है। हमारे राष्ट्रपति महोदय सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करें तो किसे करें? देश को इस संवैधानिक और क़ानूनी संकट से बाहर निकालने के लिए राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायलय के न्यायधीश को ख़त लिखा और दोनों ने मिलकर ये फैसला लिया कि सभी नव-निर्वाचित सांसदों को दिल्ली बुलाया जाय और उन्हें समग्र रूप से अगली सरकार बनाने का आग्रह किया जाय।
इधर हमारे सभी नव-निर्वाचित सांसदगन कन्फ्यूज्ड भी है पर दिल्ली के लिए अपना बोरिया बिस्तरा भी बाँध रहे है, आखिर महामहिम का आदेश जो है। दिल्ली पहुँचाने पर सभी सांसद जब राष्ट्रपति भवन में पहुंचे तो राष्ट्रपति ने सदन के दोनों सभाओ के संयुक्त बैठक को संबोधित कर सरकार बनाने की प्रक्रिया का ढांचा प्रस्तुत किया जिसमे सबसे पहले सभी नव-निर्वाचित सांसदों को एक एक कर देश की समस्याओं और उसके समाधान के उपाय पर बोलने की अनुमति दी जाएगी और उसके बाद उन सांसदों को प्रधान मंत्री बनाने का दावा पेश करने के लिए सामने आने को कहा जायेगा जिनको कम से कम 60 सांसदों का समर्थन प्राप्त हो। 60 सांसदों का समर्थन जुटाने के लिए उन्हें एक हफ्ते का समय दिया जायेगा और फिर उसके बाद संसद में प्रधानमंत्री पद के लिए अनुपातिक मतदान पद्धति से चुनाव होगा और हमारे प्रधान मंत्री को चुना जायेगा। उसके बाद ठीक इसी प्रकार से देश के अन्य मंत्रालयों के मंत्रियों का भी चुनाव होगा। सभी सांसदों को सभी मंत्रालयों को चलाने की क्षमता को संसद में सांसदों के सामने प्रकट करने का सामान अधिकार होगा।
तभी किसी ने मुझे झकझोरा और एक जानी पहचानी आवाज सुनाई पड़ी,
“उठो महराज, पाकिस्तान चलने के तयारी करो”।
ये क्या? मैं सोया हुआ था और ये बिना पार्टी वाली सरकार के बारे में सपना देख रहा था और हामिद ने मुझे बिच में ही जगा दिया।
“क्यूँ भाई, अभी रिजल्ट थोड़े ही न आया है ” !
“आ ही गया समझो, मोदी जी की ताजपोशी की तो अब फॉर्मेलिटी ही रह गयी है” “बोरिया बिस्तर बंधने में भी तो समय लगेगा? और आप तो सबसे पहले बांधो, क्यूंकि गिरिराज सिंह आपके क्षेत्र से ही संसद बनाने वाला है और आपने जो मोदी और उसके खिलाफ काम किया है न, वो उसे सब पता चल गया है।” “पहाड़ तोड़ने का बहुत शौक है ना, अब तोडियेगा पाकिस्तान जा के पहाड़।”
“इतना बढिया सपना देख रहा था, पार्टी विहीन लोकतंत्र वास्तविक में तो शायद हमरे देश में संभव नहीं है पर कम से कम सपने में देख कर तो संतोष करने देते, महराज ?”
“क्या, क्या? पार्टी विहीन लोकतंत्र ! सपने का भी एक लिमिट होता है गुरुदेव, सपने को इतना भी बदनाम मत करो की लोग सपना देखने से डरने लगें?”
“पार्टी विहीन लोकतंत्र कोई नई बात थोड़ो ही ना है, हमारे ही देश में ही महात्मा गाँधी, एम्. एन. रॉय से लेकर जयप्रकाश नारायण तक ने इस प्रकार के शासन तंत्र की परिकल्पना की थी। और ये परिकल्पना तो लन्दन, वाशिंगटन, डेनमार्क, दोहा आदि की गलियों में भी हो चुकी है। फिलिफिंस के विद्वान् डाक्टर रिकार्डो पस्कुँल ने तो इस सम्बन्ध के पूरी की पूरी सिधांत ही दे डाला था।”
“ऐसा है, मेरा एग्जाम है और फालतू के बहस के लिए अभी मेरे पास टाइम नहीं है”
हामिद तो चला गया, पर मेरे दिमाग से उस पार्टी विहीन लोकतंत्र की परिकल्पना बार बार आ रही थी। आखिर मार्क्स की वर्ग विहीन-राज्य विहीन शासन तंत्र की परिकल्पना भी तो कहीं ना कहीं पार्टी विहीन लोकतंत्र की परिकल्पना की ओर ही इंगित कराती है। मार्क्स वर्ग विहीन और राज्य विहीन शासन तंत्र की परिकल्पना इसलिए करता है क्यूंकि इसमें समाज का हर व्यक्ति शासन तंत्र में प्रत्यक्ष रूप से भागेदारी निभाएगा। हमारे गाँधी जी ने भी जिस ग्राम स्वराज की परिकल्पना की थी उसमे भी किसी राजनितिक पार्टी का कोई स्थान नहीं था। गाँधी के द्वारा परिकल्पित शासन व्यवस्था के अनुसार ग्राम पंचायत, राज्य सरकार और केंद्र सरकार को चुनने का अधिकार पंचायत, पंचायत समिति, और जिला परिषद् के निर्वाचित सदस्य करते जिससे की हमारे सांसद और विधायक प्रत्यक्ष रूप से आम नागरिकों से जुड़े हुए होते।
लेकिन ये हमारा दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य पर अपने जिन्दगी के अंतिम पड़ाव पर पार्टी-विहीन राजनितिक व्यवस्था के सपने देखने वाले हमारे गाँधी जी और एम्. एन. रॉय ने ही देश के दो सबसे महत्वपूर्ण राजनितिक पार्टी से अपना राजनितिक जीवन प्रारंभ किया था। वहीँ पार्टी विहीन शासन प्रणाली के नाम से अपना आन्दोलन प्रारंभ करने वाले जे पी नारायण जैसे लोग ने जिन्दगी के अंतिम पड़ाव में खुद ही जनता पार्टी के गठन में अहम् भूमिका निभा डाली। जेपी के पार्टी विहीन शासन व्यवस्था की परिकल्पना के अनुसार पंचायत के मुखियाओं का इलेक्टोरल कॉलेज बनाने की सलाह दी गई जो मिलकर संसद और विधान सभाओं के सदश्यों का चुनाव करते। जेपी की यह परिकल्पना उनके सम्पूर्ण क्रांति की महत्वाकांक्षी योजना का हिस्सा था जिसमे सत्ता के विकेंद्रीकरण, ग्राम पंचायत की स्वायत्ता और अधिक जिम्मेदार सांसदों के लिए प्रयास मूल मंत्र था।
वैसे पार्टी विहीन प्रजातंत्र की परिकल्पना को जामा पहनाने की पहली उम्मीद फिलिफिंस में 1940 के दसक में देखने को मिली थी जब वहां के तात्कालिक राष्ट्रपति मनुएल कुएजों ने 16 जुलाई 1940 को फिलिफिन्स विश्वविद्यालय में दिए एक संबोधन में पार्टी विहीन लोकतंत्र की परिकल्पना के लिए छात्रो को प्रोत्साहित किया। इससे प्रोत्साहित होकर वहां के विद्वान डाक्टर रिकार्डो पस्कुँल ने भ्रस्टाचार, राजनीती के अपराधीकरण, और देश के शासन व्यस्था पर उद्द्योगपतियों के बढ़ते वर्चस्व से जूझते फिलिपिन्स के लिए एक वैकल्पिक पार्टी विहीन लोकतंत्र का खाका तैयार किया। उनके मॉडल में उन्होंने सभी कार्यात्मक या व्यवसायिक समूह को उनकी जनसँख्या अनुपात के अनुसार देश की संसद में सदस्यता दी जाती और अपने अपने व्यवसायिक समूहो के प्रतिनिधियों का चुनाव उस व्यवसाय से जुड़े हुए लोग करते।
यह कुछ कुछ ब्रिटिश राज द्वारा सुझावित पृथक निर्वाचन क्षेत्र से मिलता जुलता था। अंतर सिर्फ इतना था की पस्कुँल के व्यवस्था में ये पृथक निर्वाचन क्षेत्र व्यवसाय के आधार पर था जबकि भारत में ये धर्म के आधार पर सुझाया गया था जिसे गाँधी समेत सभी राष्ट्रवादी नेताओं ने एक सिरे से नकार दिया था। पर भारत में भी एक सरकार ऐसी बनी थी जिसमे कुछ फैसले पार्टी की परिसीमा से बहार जाकर किये गए थे। जब भारत आजाद हुआ था तो भारत की पहली अंतरिम सरकार में श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे हिंदूवादी नेता से लेकर कांग्रेस विरोधी आंबेडकर जैसे नेताओं को भी सरकार में शामिल किया गया था जिनका सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी से कोई लेना देना नहीं था।
ये जरुरी नहीं हैं की एक पार्टी विहीन लोकतंत्र की परिकल्पना मेरे सपने में दिखे लोकतंत्र जैसा ही हो, लेकिन चाहे उसका जो भी प्रारूप हो लेकिन आज बढ़ाते भ्रस्टाचार, राजनीती का अपराधीकरण और पूंजीपतियों का सरकार पर बढ़ते वर्चस्व को ख़त्म करने या कम करने के लिए हमें किसी भी हाल में अपने लोकतंत्र को राजनितिक पार्टियों के नेतृत्व से जितना अधिक हो सके दूर करना ही होगा। अभी अभी गाँधी और जेपी के नाम पर भ्रस्टाचार और सत्ता के विकेंद्रीकरण का झंडा लिए अन्ना और केजरीवाल आये भी तो गाँधी के पार्टी विरोधी परिकल्पना को किनारे कर अपनी खुद की पार्टी बना डाली। हालाँकि वो अपने मेनिफेस्टो में सत्ता के विकेंद्रीकरण के बारे में बात कर रहे है पर वो कौन सा विकेंद्रीकरण होगा जब आपकी पार्टी गाँव गाँव में अपनी पार्टी के कार्यालय खोल देगी और स्थानीय राजनीती भी अप्रत्यक्ष रूप से राजनितिक पार्टियों के वर्चस्व से मुक्त हो ही नहीं पायेगी? और वैसे भी भारत में तो कितने ऐसे राज्य हैं जहाँ पंचायत और नगर निगम के चुनाव भी राजनितिक पार्टियों के सदस्य पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में लड़ते हैं और जहाँ ऐसा करने की अनुमति नहीं हैं वहां पार्टी से जुड़े लोग ही बिना पार्टी का नाम लिए हुए चुनाव लड़ते है।
इसलिए प्रश्न राजनितिक अधिकारों के मात्र संस्थागत विकेंद्रीकरण का नहीं है बल्कि राजनितिक पार्टियों के बढ़ते ताकतों पर भी प्रश्न उठाना चाहिए। वैसे ये प्रश्न उठाये कौन? क्षत्रिये पार्टियों के बढती संख्यां ने पहले से ही हमारे पूंजीपतियों को परेशान कर रखा है, अब वो किस-किस पार्टी को ख़रीदे? ऐसे में अगर पार्टी विहीन राजनितिक व्यवस्था के बारे में सोचेंगे तो हमारी पूंजीपतियों का तो गला ही कट जायेगा न? अब वो अगर सैकड़ो सांसदों से व्यक्तिगत स्तर पर खरीद फरोख्त करेंगे तो फिर उन्हें रोजगार करने के लिए समय कैसे मिलेगा?
वैसे भी, हम किस देश में पार्टी विहीन राजनितिक व्यवस्था की बात सोच रहे हैं? उस देश में जहाँ अगर कोई सांसद अपने पार्टी के मर्जी के विरुद्ध कोई कार्य करता है तो उसपर दल-बदल कानून के तहत उसे संसद से ही निकल दिया जाता है? या फिर उस देश में एक परिवार पूरी पार्टी पर राजतन्त्र चलाता है? अब तो हमारे देश में एक ऐसे नेता भी उभर के सामने आ गएँ है जो पूरी पार्टी पर अपना तानाशाह चलते है। अब अगर उस नेता के प्रचार पर हमारे उद्द्योग्पति बिना किसी रोक के खर्च कर रहे हैं तो इसमें कौन सी बड़ी बात है? भाई, पहले उन्हें पार्टी को खरीदना पड़ता था अब एक व्यक्ति मात्र को खरीदना पड़ेगा।
वैसे हामिद की बात सच ही लगाती है, मुझे ऐसे सपने नहीं देखना चाहिए जिससे लोगो का सपने के प्रति नकारात्मक सोच बढे और लोग सपने देखने मात्र से डरने लगे।
Sanjeev Kumar is a student, writer and theatre activist and one of the founding member of Jagriti Natya Manch which consist students from JNU, DU, IIMC etc. He can be reached at subaltern1987@gmail.com
Ki kya hua agar sapna kabhi pura na hone wala ho sapna to hai. bahut jaruri hai khwabo ka jinda rahna taki ham thode palo ke liye hi sahi hame wartman ki ghatiya haqiqat se shanti to milti hai. Magar kya rajniti ka nirdaliykaran Bharat jaise vishal aur vastwik taur pe na sahi chetna ke star par hi loktantr desh bharat main is sapne ki kya gunjayish hogi ispar gambhirta se vichar karna hoga.
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Sapne mein hi sahi Mr Sanjeev ne kuch to achcha socha , warna aajkal to sirf modi ke alaya kuch nahi sunaee deta.Aisa hi kuch mein bhi soch raha tha, lekin wo meri begum ne wahin khatam kar diya. Kyon na aisa ho ki Lok Shabha chunav mein jeetne ke baad aur sansad mein jaane se pehle, unki party ki membership khatam ho jaye. Aur sabhi sansad sirf desh ke liye kaam karen na ki party ke liye. Jish desh mein abhi hum log moolbhoot jarrorat ke liye jadojahat kar rahein hain. Wahan par ek rashtriya karyakaram banana muskil nahi hoga. Abhi kya ho raha hey ki kuch bhi ruling party karegi , opposition ko bus oppose karna hey. Sansad bina kisi party ke sirf kaam karengi. Lekin eh bhi ek sapna hey , jisse meri biwi ne criticaly analyse karke sirey se hi khatam kar diya. Aur kaha phaltoo baatein kum karoon aur jaldi se khaana banao kitchen mein.
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I am writing a street play on this issue. Please help me if anyone has any ideas which can help me. Write to subaltern1987@gmail.com.
We will perform this play in next academic session. The title of play will be most probably ‘Dilli Fatah’.
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