शिक्षक: पेशेवर पहचान का संघर्ष

अपना  कार्यभार  बढ़ाने के खिलाफ शिक्षक आन्दोलन कर रहे हैं . बहुत दिनों के बाद शिक्षकों में इस तरह की एकजुटता और उत्तेजना देखी जा रही है. दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ को पिछले दिनों अक्सर ऐसे सवालों पर भी, जो शिक्षकों के हित से सीधे जुड़े थे, आन्दोलन में संख्या की कमी से निराशा होती रही थी. इस बार शिक्षक पूरी तादाद में सड़क पर हैं. संघ की सभाओं में हाल खचाखच भरे हुए होते हैं. क्षोभजन्य उत्साह से आन्दोलन में नई ऊर्जा दीख रही है.

अपने पेशे के अवमूल्यन से शिक्षक आहत और क्रुद्ध हैं. काम के घंटे बढ़ाने के निर्णय ने अध्यापक के काम की विलक्षणता को ख़त्म कर दिया है, यह अहसास उनमें है. अलावा इसके, एक शिक्षक का काम बढ़ जाने के बाद  यह कहा जा सकेगा कि अब चूँकि एक शिक्षक ही दो का काम करेगा, और पदों की आवश्यकता ही नहीं है.इसका असर उन शोधार्थियों पर पड़ेगा जो अध्यापन के पेशे में आने की तयारी कर रहे हैं. इसीलिए इस बार सड़क पर वे सब दिखलाई पड़ रहे हैं, जिन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय में  एड्हॉक  कहा जाता है और जिससे  कई जगह बंधुआ मजदूर की तरह बर्ताव किया जाता है.

साधारण जनता को शिक्षक के पेशे की खासियत  के बारे में शायद ही मालूम हो! इसी कारण संभव है, वह यह सोचे कि हफ्ते में सोलह घंटे  पढ़ाने की जिद पर अड़े लोग कामचोर ही तो हैं. लेकिन ऐसी  समझ कुछ तब जाहिर हुई जब दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर दिनेश सिंह ने एक अखबार को कहा कि कार्यभार बढ़ने की शिकायत फिजूल है, शिक्षक चाहें तो रात में शोध का काम कर सकते हैं.उन्होंने अपना उदाहरण दिया कि वे भी रात को ही शोध का काम करते रहे हैं! 

सवाल यह है कि तत्कालीन कुलपति की इस समझ के खिलाफ रोष इतना व्यापक क्यों न हो सका? क्यों एक शिक्षक संगठन ने,जो तबके शासक दल से जुड़ा था, उनका समर्थन किया? क्यों उसने शिक्षक के काम की परिभाषा को भ्रमित करने के कुलपति के इस बयान का विरोध न किया?

इसी क्रम में जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के खिलाफ शिक्षकों के प्रदर्शन के दौरान जब उनके साथ एकजुटता जाहिर करने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार आए , जोकि शोधार्थी हैं, और जिन्होंने खुद अध्यापन के पेशे में रुचि बताई है, तो कुछ शिक्षकों ने उनके हाथ से माइक छीन लिया, धक्का-मुक्की की और उन्हें बोलने नहीं दिया. कन्हैया के वहां आने और उन्हें बोलने को बुलाने के सवाल पर दिल्ली विश्वविद्यालय  के शिक्षकों में बहस छिड गई है. एक बड़े हिस्से का मानना है कि कन्हैया पर देशद्रोह जैसा गंभीर आरोप है, उनकी वहां मौजूदगी ही असह्य है.उनका आरोप है कि वामपंथी शिक्षक गुट आन्दोलन के मंच का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक विचारधारा के प्रचार के लिए कर रहे हैं. लेकिन इसके लिए एक वक्ता के साथ धक्का-मुक्की हो, उन्हें बोलने से जबरन रोक दिया जाए, यह कोई शिक्षकोचित आचरण तो नहीं हुआ.

कन्हैया पर देशद्रोह का आरोप कैसे और क्यों लगाया गया और फिर उनके साथ सरकार और पुलिस ने क्या बर्ताव किया, यह पूरी दुनिया ने देखा. अगर कोई वाकई इस आरोप को गंभीरता से लेता है, तो उसके विवेक पर संदेह के अलावा क्या किया जा सकता है? लेकिन इसके साथ ही कन्हैया एक विश्वविद्यालय के छात्र संघ के प्रतिनिधि थे. वे एकजुटता व्यक्त करने आए थे.उनके साथ यह व्यवहार निश्चय ही शिष्टाचार के विरुद्ध था.

बताया गया कि कन्हैया को रोकने वालों में वैसे शिक्षक थे, जो आज  केंद्र में सत्तासीन दल से संबद्ध हैं. मुझे लेकिन एक दूसरी घटना याद आ गई. कोई एक साल पहले दिल्ली  विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की एक आम सभा हो रही थी.उसमें कुछ प्रस्ताव संघ के नेतृत्व की ओर से रखे गए. विचार-विमर्श के दौरान संघ की कार्परिषद के एक सदस्य ने प्रस्ताव में संशोधन पेश किया.उस पर मतदान हुआ. संशोधन गिर गया. इसी क्षण ‘डूटा जिंदाबाद’, ;डूटा आगे बढ़ो’ के नारे लगने लगे. मैं सम्ह नहीं पाया कि उस वक्त ये नारे क्यों लग रहे थे. आखिर जिसने संशोधन पेश किया था वह भी डूटा का सदस्य ही था. उसने कोई डूटा के खिलाफ कुछ नहीं कहा था. संशोधन पेश करना उसका जनतांत्रिक अधिकार था. यह अलग बात है कि वह नेतृत्व के प्रतिद्वंद्वी समूह से जुड़ा था. लेकिन एक प्रस्ताव में उसकी बात गिर जाने पर उसके मुँह पर इस किस्म की नारेबाजी से सार्वजनिक रूप से यह जताया जा रहा था कि वह डूटा विरोधी है. यह कोई सभ्य  आचरण न था. फिर बैठकों में नारे लगने का कोई तुक भी नहीं. उस समय जो संशोधन के प्रस्तावक थे,  वे आज के सत्ताधारी दल से जुड़े हैं और संशोधन गिर जाने पर नारे लगनेवाले प्रायः वाम संगठन के सदस्य.

इन दोनों ही घटनाओं से वाजिब  प्रश्न उठते हैं. वे मुख्यतः शिक्षकों के राजनीतिक दलों से सम्बद्धता से जुड़े हुए हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षकों के संगठन भी राजनीतिक पार्टियों के आधार पर बंटे हैं. कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी),समाजवादी पार्टी, आदि के अपने शिक्षक संगठन हैं.जब शिक्षक संघ का चुनाव होता है, ये संगठन एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी होते हैं. जाहिर है, जब वे अपने लिए समर्थन माँगते हैं तो उसमें उम्मीदवार की अपनी पहचान और योग्यता से अधिक उसकी राजनीतिक दलवाली पहचान प्रमुख होती है. ऐसा नहीं है कि इसके अपवाद नहीं, लेकिन प्रायः यह तय होता है कि शिक्षक अपनी दलीय प्रतिबद्धता से शायद ही बाहर निकलें. एक बड़ा तबका वैसा भी है जो कहीं से बंधा नहीं और वह अलग-अलग समय अलग-अलग ढंग से अपना फैसला करता है.यहाँ यह कहने की कोई  मंशा नहीं कि शिक्षक किसी तरह की राजनीतिक प्रतिबद्धता न रखें या किसी दल के सदस्य न हों.

मेरे एक ऐसे ही सहकर्मी ने एकबार हँसते हुए कहा कि नए वेतन आयोग के आस पास आम तौर पर हम सब केंद्र सरकार में सत्तासीन दल वाले उम्मीदवार को मत देते हैं. इसे अगर नज़रअंदाज कर दें तो भी शिक्षकों का ऐसे प्रसंगों में निर्णय अपने राजनीतिक जुड़ाव से प्रभावित होता है.

शिक्षक क्यों अक्सर अपनी पेशेवर पहचान को पीछे कर देते हैं? इस सवाल पर कायदे से बहस नहीं हुई है.लेकिन इसी कारण पूरे साल और हर मामले में हर राजनीतिक गुट का प्रयास नए-नए शिक्षकों की भर्ती के जरिए  अपनी ताकत बढ़ाने का होता है. यह अस्थायी शिक्षकों के मामले में और भी साफ़ दीखता है. उनके आगे यह सवाल हमेशा बना रहता है कि अभी कौन सा गुट प्रभावी है और क्या उनका हित उसके साथ रहने से सधेगा? इसके कारण एक अध्यापक के सार्वजनिक आचरण में जो विकृति आ जाती है, उस पर सोचा नहीं गया है.कई अस्थायी शिक्षकों का यह मानना है कि  उनकी अस्थायी के दीर्घ स्थायी होने की  एक वजह दलों की संख्या बढाने की इच्छा है. अस्थायी रखकर उनकी वफादारी पर दावा किया जा सकता है: नौकरी की शर्त वफादारी है!

आखिर एक अस्थायी शिक्षक को जब शिक्षक संघ में मताधिकार दिया जाता है तो उसे स्थायी करने में किसकी दिलचस्पी रह जाती है? एक-एक शिक्षक के सालों तक अस्थायी रहने का भी क्या तर्क है?किसी भी स्वीकृत पद को छह महीने से ज्यादा क्यों खाली रहना चाहिए?

इस बार ये अस्थायी शिक्षक सड़क पर बिना डरे कैसे उतर आए और क्यों दिल्ली विश्वविद्यालय के  स्नातक स्तर के चार वर्षीय पाठ्यक्रम के बारे में राय रखते भी उन्हें आशंका होती थी? कौन सी चीज़ थी जो उन्हें इसके बारे में अपना  अध्यापकीय मंतव्य रखने से रोक देती थी?

नियुक्तियों के समय भी यह दलीय प्रतिबद्धता कई बार उम्मीदवार की अपनी योग्यता पर भारी पड़ती है.

मेरा बचपन बिहार के शिक्षक आन्दोलन के सबसे उत्तेजक दौर में गुजरा है. वहाँ के संघ राजनीतिक दलों के गुटों में नहीं बंटे थे.एक लम्बे अरसे तक बिहार के कॉलेज शिक्षकों के संघ के नेता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के रहे ,लेकिन उनका कोई अपना दलीय गुट नहीं था. और न जन संघ या कांग्रेस के अलग-अलग गुट थे.सारे शिक्षक अपने नेताओं का चुनाव उनकी निजी क्षमता को तौल कर करते थे.

बिहार में शिक्षक आन्दोलन के कमजोर होने के कई कारण थे. लालू यादव के सत्ता में आने के बाद उसमें जातीय आधार पर दरार पड़ने की शुरुआत हुई.सीवान में जब वहाँ के सांसद के इशारे पर शिक्षकों पर हमले हुए तो शिक्षक अपने ही साथियों के साथ खड़े  होने में हिचकिचाते नज़र आए.

लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक अभी जब अपनी शिक्षक की ख़ास पहचान को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं, उन्हें अपने आन्दोलन  के इस पक्ष पर सोचना ही होगा: क्या वे अपने निर्णय शिक्षक होने के कारण ले रहे हैं या अपनी दलीय बाध्यता में या उसके हित में?

अभी इस बात का स्वागत होना चाहिए कि केंद्र में अपनी सरकार होते हुए भी सत्तासीन दल से जुड़ा शिक्षक संगठन इस आन्दोलन में पेश-पेश है.यह बात पिछली सरकार के वक्त न थी.उस समय चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम के विरोध के आन्दोलन से उस शिक्षक समूह ने खुद को अलग कर लिया था जो तत्कालीन सत्तारूढ़ दल के साथ था. यही उस दल से जुड़े छात्र संगठन ने भी किया था. अपने दल की सरकार चली जाने के बाद वही छात्र संगठन विरोध में शामिल हुआ. लेकिन इस पर क्या वहां कोई आत्म निरीक्षण नहीं हुआ.

आज का शिक्षक आन्दोलन शिक्षक की पेशेवर पहचान को कायम रखने के लिए है. फिर इस पहचान को ही परिसर से जुड़ी  हर गतिविधि में सर्वोपरि होना होगा.

( सत्याग्रह में द10 जून,20 16 को  प्रकाशित स्तंभ का परिवर्द्धित रूप)

4 thoughts on “शिक्षक: पेशेवर पहचान का संघर्ष”

  1. राष्ट्र का निर्माण करना है तो राष्ट्र के निर्माताओं का निर्माण करना होगा… राष्ट्र के निर्माता , उसका भविष्य आज के युवा हैं, जिसका निर्माण एक शिक्षक करता है… !! शिक्षकों और शिक्षा-व्यवस्था को सड़क पर लाने वाली सरकार कम-से-कम राष्ट्रवादी नहीं हो सकती… !!

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