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तिलिस्म-ए-होशरुबा, उर्फ़ पूंजी की अनकही कहानी

[यह लेख हाल में प्रभात खबर के दीपावली विशेषांक में छप चूका है  और मेरी हालिया किताब डिजायर नेम्ड डेवेलपमेंट के कुछ अंशों पर आधारित है.]

एक ज़माना था जब इंसान जिंदा रहने के लिए पैदावार किया करता था. बहुत पुरानी बात नहीं है – यही कोई सौ डेढ़ सौ बरस पहले का किस्सा है. आज जब हम जिंदा रहने के लिए नहीं बल्कि ‘जीडीपी’ या ‘सेंसेक्स’ जैसे कुछ अदृश्य देवताओं का पेट भरने के लिए पैदावार करते हैं, तब यह बात हमारी याद्दाश्त से तकरीबन गायब हो चुकी मालूम होती है की ये देवता दरअसल बहुत नए हैं. ‘जीडीपी’ की उम्र बमुश्किल अस्सी साल होगी, और ‘सेंसेक्स’ तो हमारे यहाँ १९७९ में ही वजूद में आया है. याद रखने काबिल बात है की इन दोनों का लोगों के वास्तविक जीवन से कोई रिश्ता नहीं है और यह बिलकुल मुमकिन है कि लोगों के जीवन-स्तर में लगातार गिरावट के साथ साथ आंकड़ों में हमें दोनों में अच्छी खासी बढोतरी दिखाई दे. मसलन, यह संभव है कि आप जंग के वक़्त लगातार जीडीपी में इज़ाफा देखें जब वास्तव में लोगों कि ज़िंदगियाँ बद से बदतर होती जा रही हों.

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