भारत के माओवादियों को नेपाल के माओवादियों से सबक लेना चाहिए, ऐसा पिछले दो साल से कहा जा रहा है. समझ यह रही है कि नेपाली माओवादियों ने सशस्त्र संघर्ष का रास्ता छोड़कर संसदीय लोकतंत्र में भागीदारी का फैसला किया . लेकिन नेपाली माओवादियों के प्रति भारतीय वामपंथियों के आकर्षण की वजह शायद यह भी रही है कि उन्होंने दीर्घ जनसंघर्ष के रास्ते वह हासिल कर लिया जो यहां की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अलग-अलग समय में हथियारों के सहारे हासिल करना चाहा था और जिसमें वे सफल नहीं हो पाईं. संसद में हिस्सा लेने के उनके निर्णय को उनकी परिपक्वता का सबूत माना गया. संसदीय लोकतंत्र को लेकर माओवादियों या आम तौर पर कम्युनिस्ट दलों का रुख क्या रहा है, यह उनके दस्तावेजों को पढ़ने से मालूम हो जाता है. वे इसे लोकतंत्र की एक हेय या हीन अवस्था मानते हैं और इसे अपना ऐतिहासिक दायित्व मानते हैं कि वे लोकतंत्र को एक उच्चतर अवस्था पर ले जाएं. चूंकि समाज के विकास का एक नक्शा उनके पास है, जिसमें सामंतवाद के बाद पूंजीवाद का आना अनिवार्य है और तभी समाजवाद के लिए आवश्यक उत्पादन-पद्धति और उत्पादन संबंध की ज़मीन बन सकती है, यह जिम्मेवारी भी वे अपने ऊपर ले लेते हैं कि सामंतवाद से पूंजीवाद के संक्रमण को वे पूरा करें.
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जारी है ‘जनपक्षीय हिंसा’ का तान्डव
खबर मिली है कि छत्तीसगढ़ में माओवादी हमले में ग्यारह से ज़्यादा पुलिस के जवान मारे गए हैं. इस महीने ऐसी हत्याओं की संख्या पचास से अधिक हो गयी है. इसके साथ ही बंगाल के चुनाव में हिंसा के समाचार किसी भी दूसरे राज्य से अधिक मिले हैं. बंगाल की हिंसा में संसदीय राजनीति में भाग लेने वाले एक मार्क्सवादी दल के सदस्य शामिल हैं.संसदीय राजनीति को भटकाव बताने वाले और उसे रणनीतिक रूप से इस्तेमाल करने वाले, दोनों तरह के मार्क्सवादी या माओवादी दलों को हिंसा के अपने इस्तेमाल के जायज़ होने में कोई शक नहीं है.दोहराव का खतरा उठाते हुए नंदीग्राम और सिंगुर में सीपीएम की हिंसा के पक्ष में उसके बुद्धिजीवियों के तर्कों को याद कर लेना उचित होगा.इन तर्कों में एक तर्क रक्षात्मक हिंसा का था. इस बार चुनाव में अपने पक्ष में न होने के लिए सीपीएम ने नंदीग्राम में हत्याएं कीं और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सीपीएम के समर्थकों को मारा.बंगाल के पिछले एक साल के अखबार को उठा कर देख लें, हिंसा उस समाज के स्वभाव को परिभाषित करती जान पड़ती है.
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