पेड़ खामोश होना चाहते हैंमगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं-जोस मारिया सिसोन(फिलीपिनो इन्कलाबी एवं कवि)
क्या हमारे वक्त़ के तमाम अग्रणी बुद्धिजीवी, जो असहमति के आवाज़ों के पक्षधर रहते आए हैं, बरबस अवकाश पर चले गए हैं – अब जबकि कन्हैया कुमार जेल से बाहर निकल कर आया है ? या वह सोच रहे हैं कि जो तूफां उठा है वह अपने आप थम जाएगा।
दरअसल जिस किसी ने हमारे समय की दो बेहद उम्दा शख्सियतों – प्रोफेसर निवेदिता मेनन और गौहर रज़ा – के खिलाफ चल रही सार्वजनिक कुत्साप्रचार एवं धमकियों की मुहिम को नज़दीकी से देखा है, और उसके बाद भी जिस तरह की चुप्पी सामने आ रही है (भले ही एकाध-दो बयान जारी हुए हों या कुछ प्रतिबद्ध लेखको के लेख इधर उधर कहीं वेबपत्रिकाओं में नज़र आए हों ) उसे देखते हुए यही बात कही जा सकती है। प्रोफेसर निवेदिता मेनन को इस तरह निशाना बनाया गया है कि सन्दर्भ से काट कर उनके व्याख्यानों के चुनिन्दा उद्धरणों को सोशल मीडिया पर प्रसारित करके उन्हें ‘एण्टी नेशनल’ अर्थात राष्ट्रद्रोही साबित किया जा सके जबकि गौहर रज़ा पर गाज़ इसलिए गिरी है कि उन्होंने दिल्ली में आयोजित भारत-पाक मुशायरे में – जिसे शंकर शाद मुशायरा के तौर पर जाना जाता है – न केवल शिरकत की बल्कि वहां धर्म और राजनीति के खतरनाक संश्रय पर जो कविता पढ़ी, वह शायद ‘भक्तों’ को नागवार गुजरी है।