आजकल दर रोज़ हमें बताया जा रहा है कि हम देश से प्रेम करें, राष्ट्र से भक्ति. बड़े परेशान हैं आज के शासक हमं जैसों की करतूतों से. जोश में आ कर कुछ भी बड़बड़ा देते हैं : कभी आज़ादी की बात करते हैं, कभी काशमीर की. कभी जातिवाद से छुटकारा चाहीए, तो कभी पूँजीवाद से. ऐसा लगता है हम न भक्ति जानते हैं, ना प्रेम. तो चलीए, भक्ति ओर प्यार, राष्ट्र ओर देश: इन चारों संज्ञाओं का विश्लेषण कीया जाए.
पहला प्रस्ताव: भक्ति में मिला हुआ है डर; प्यार के साथ चलती है रज़ामंदी.
प्यार मासूम नहीं होता. बच्चे प्यार ज़रूर करते हैं, पर प्यार बड़ों का खेल है. प्यार करना जोखिम भरा काम है दोस्त. ख़तरे की खाई है प्यार. क्योंकि डर लगता है कि जिससे हम प्यार करते हैं, वह हम से फ़क़त दोस्ती जताना चाहता है. “Let’s just be friends.”है इस वाक्य से बड़कर कोई अनर्थ? किसी नौजवान से पूछिए जिसने काँपते हाँथों से Valentine’s card दीया, ओर वापस मिला,”Thanks.” हँसी तो फँसी नहीं, हँसी तो भंग आशाओं की शिखंडी कलेजी में घुसी. पर होता है दोस्त. होता है. क़बूल करना पड़ता है. रो कर, हस कर, दोस्तों के साथ मदहोश शाम में पुरानी फ़िल्मों के गाने बेसुरी आवाज़ में रेंक कर, सुन कर, सुना कर. जब बैंड बजती है तो गाना गाओ दोस्त. गोली मार कर प्यार तो करवाया नहीं जा सकता. Continue reading क्या यही प्यार है? कहो, कहो ना…

