[This post is a response to Prabhat Patnaik’s article ‘Why the Left Matters’ which appeared in the Indian Express on 17 March. A version has appeared in two parts in Jansatta]
पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव हो रहे हैं. इनमें से दो, बंगाल और केरल वाममोर्चा शासित प्रदेश हैं. केरल में तो भारत के अन्य राज्यों की तरह चुनावों के परिणामस्वरूप सरकारें बदलती रही हैं , बंगाल ने पिछले चौंतीस साल से वाम मोर्चे के अलावा किसी और सरकार का तजुर्बा करना ज़रूरी नहीं समझा है. इसे अक्सर बंगाल की जनता की राजनीतिक परिपक्वता के तौर पर व्याख्यायित किया गया है. बौद्धिक जगत में साम्यवादी विचार की वैधता के लिए भी जनता द्वारा दिए गए इस स्थायित्व का इस्तेमाल वैसे ही किया जाता रहा है जैसे कभी सोवियत संघ और अन्य पूर्वी युरोपीय देशों या अभी भी चीन में साम्यवादी दल के सत्ता के अबाधित रहने से उसे प्राप्त था. बल्कि कई बार इसे अन्य राज्यों की जनता के राजनीतिक दृष्टि से पिछ्ड़े होने के प्रमाण के रूप में भी पेश किया जाता रहा है . इस बार स्थिति कुछ बदली हुई लग रही है. अगर बंगाल में अनेक स्तरों के स्थानीय निकायों के चुनाव कुछ इशारा कर रहे हैं तो वह सत्ता परिवर्तन का है.

संसदीय प्रणाली पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस प्रकार का परिवर्तन जीवन का नियम माना जाता है, बल्कि इस अस्थिरता में ही उसकी जीवंतता का स्रोत भी देखा जा सकता है. लेकिन बंगाल की जनता द्वारा मत-परिवर्तन की संभावना एक विशेष बौद्धिक संवर्ग के लिए चिंता का विषय बन गई है. प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने कुछ पहले इस संकेत की असाधारणता की ओर ध्यान दिलाते हुए एक टिप्पणी लिखी है. बल्कि यह जनता और विशेषकर भारत के शिक्षित समुदाय से एक अपील ही है – भारत की लोकतांत्रिक क्रांति की रक्षा की अपील. उनके कहने का सार यह है कि भारत की सतत वर्धमान लोकतांत्रिक क्रांति पर प्रतिक्रांतिकारी शक्तियों के बादल मंडरा रहे हैं और इस बार यह खतरा वास्तविक और आसन्न है. इस खतरे का सामना करने के लिए प्रभात आवश्यक मानते हैं कि वामपंथ को चुनाव में प्रतिकूल परिणाम न झेलना पड़ॆ. उनके अनुसार वामपंथ को कोई भी चुनावी धक्का दरअसल लोकतांत्रिक क्रांति के लिए मरणांतक आघात साबित हो सकता है.
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