Guest Post by धर्मराज कुमार
वर्त्तमान परिदृश्य में हमारे इर्द-गिर्द जितने भी विमर्श मंडराते नजर आ रहे हैं उन सबके के आक्रामक शुरुआत को सोलह दिसंबर की बलात्कार की घटना से जोड़े बगैर नहीं देखा जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि उस रात को दहला देने वाली घटना तक को कई खांचों में रखकर देखा जाता है। उदाहरणस्वरूप, आलोचना के तौर पर यह भी कहा गया कि निर्भया अभिजात वर्ग से आती थी इसलिए उसके बलात्कार ने पूरे देश की राजनीति को झकझोर कर रख दिया। जबकि उसी दरम्यान दिल्ली के करीब हरियाणा में कई दलित और सामाजिक रूप से प्रताड़ित लड़कियों और महिलाओं का निर्ममता से बलात्कार किया गया और मारकर फ़ेंक दिया गया और जिसका आज तक कोई अता-पता तक नहीं है। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि दिसंबर की घटना के पहले भी अनगिनत बलात्कार की घटनाएं हररोज हो रही थी और उसके बाद भी हो रही है। मगर कभी भी किसी विरोध ने इतना विकराल रूप धारण नहीं किया जिससे देश की राजनीति को हिलानी तो दूर उससे आजतक न्याय प्रक्रिया में गति तक आ सके। इसके कई कारण हैं।
मेरा उद्देश्य उस तरफ ध्यान खींचना कतई नहीं है। मेरा उद्देश्य है मुख्यधारा में इन मुद्दों से जुड़ती सवालों को उठाये जाने की तरफ ध्यान ले जाना। मैं बात कर रहा हूँ मुख्यधारा में चल रही फिल्मों और उससे जुड़े सवालों के ऊपर। फ़िल्म समीक्षा की दुनिया में ऐसा कम ही देखने को मिलता है जब कोई फ़िल्म अपनी रिलीज के बाद एक चर्चा का विषय हो या विवाद का हिस्सा हो। बल्कि तमाम विचारधारा से जुड़े लोग जब किसी फ़िल्म के ऊपर अपनी प्रतिक्रिया जताने लगे इसका मतलब है कि ऐसी फिल्में लोगों को संवाद करने के लिए विवश कर रही हैं। Continue reading मर्दवादी और असमान सामाजिक व्यवस्था में स्त्री प्रतिरोध – ‘हाईवे’: धर्मराज कुमार