हिंसा की राजनीति के पैरोकार

२००९ के लोकसभा  चुनाव की अगर इसके पहले दो चरणों के आधार पर कोई खासियत बतानी हो तो कहना पडेगा कि समाज के पारम्परिक शक्ति संतुलन में विचलन के भय से तथाकथित ऊंची जातियों के द्वारा पहले  जो हिंसा होती थी, वह नहीं दिखी. बिहार और अन्य स्थानों पर चुनाव के वक्त बूथ पर होनेवाला खूनखराबा इस बार नहीं हुआ. फिर भी इस बार हत्याएं हुईं. और ये हत्याएं हिंसक वर्ग-युद्ध में विश्वास रखनेवाले माओवादी समूहों ने कीं. बिहार, झारखंड, ओडीसा, छत्तीसगढ और महाराष्ट्र में इन समूहों के द्वारा हत्याएं की गईं, सार्वजनिक स्थलों को जलाया गया और दहशत फैलाई गई. पूरी ट्रेन का अपहरण कर लिया गया और अपना शक्ति प्रदर्शन करके फिर उसे छोड़ दिया गया. इस बीच उसके यात्रियों को जो भयंकर मानसिक यंत्रणा हुई होगी उसके लिए माओवादियों के पास कोई सहानुभूति का शब्द नहीं है. बंगाल में   सी.पी.एम. ने अपने हिंसक अहंकार में सिंगुर और नांदीग्राम और  उनके बाद लालगढ में जो कुछ किया उसने माओवादी समूहों को बंगाल में अपनी पकड मजबूत करने का मौका दिया. अब ये खबरें आम हैं कि बंगाल के गांवों और कस्बों में लोगों को सी.पी.एम. की सदस्यता छोड्ने को मजबूर किया जा रहा है और बात न मानने पर उनकी हत्या तक की जा रही है. ऐसी ही हत्याएं पिछले  साल बिहार  और झारखण्ड में की गयी थी. क्योकि माओवादी मारे गए लोगों  को ‘गलत पार्टियों’ में रहने नहीं देना चाहते थे. बंगाल में सी.पी.एम. की हिंसा का विरोध करनेवालों को शायद सी.पी. एम. के कार्यकर्ताओं की हत्या में  एक प्रकार का प्राकृतिक न्याय होता दीख रहा हो, वरना क्या वजह है कि अब तक इन हत्याओं की और दल छोडने को बाध्य करने की इस तरह की घटनाओं की कहीं से कोई भर्त्सना नहीं सुनाई पडी है !

“हिंसा को किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता ,चाहे  उसका औचित्य कुछ भी क्यों न दिया जाए.” पिछ्ले दो साल से माओवादियों को मदद पहुंचाने के आरोप में जेल में बंद बिनायक सेन ने हाल में एक पत्रकार को यह कहा जब उसने माओवादी हिंसा के बारे में उनसे सवाल किया. बिनायक जब यह बातचीत कर रहे थे, उनके चेहरे पर वह दाढी नहीं थी  जिसने उन्हें एक रूमानी शक्ल दे रखी थी. दाढीविहीन  होकर भी बिनायक उतने ही आकर्षक लग रहे  थे, हालांकि उसके होने से जो एक रहस्य की आभा उनके इर्द-गिर्द थी, वह नहीं रह गयी थी.
बिनायक का यह बयान उस वाक्य के मेल में है जो कुछ महीने पहले उनकी रिहाई के लिए चल रहे आंदोलन के दौरान तैयार किए जा रहे  एक पर्चे में उनके बारे में लिखा गया था: “बिनायक हिंसा में यकीन नहीं करते हैं.” लेकिन जब पर्चा छपा तब यह वाक्य गायब था. कुछ मित्रों का खयाल था कि यह चूक थी. लेकिन जब इस पर बात आगे बढ़ी तो यह पता चला कि यह न तो चूक थी  और न भाषागत संपादन था. इस वाक्य को हटाया जाना एक सचेत राजनीतिक निर्णय था. जिस मित्र ने यह किया था जब उनसे बात की  गई तो उन्होंने कहा कि उन्हें यह वाक्य उतना ज़रूरी नहीं लगा और इस तरह के वक्तव्य देने से ऐसा लगता है हम कुछ चीज़ों को लेकर अनावश्यक रूप से सुरक्षात्मक हो जाते हैं. फिर उन्होंने यह कहा कि संघर्ष के अलग-अलग रूप हैं और हिंसक संघर्ष उनमें से सिर्फ एक है. क्या हमें इस तरह के संघर्ष से घबराना या डरना चाहिए?, उनका सवाल था.

इसमें एक दूसरा नैतिक प्रश्न भी है जिस पर बिनायक की रिहाई से जुड़े किसी मित्र  का ध्यान नहीं गया. माओवादी तरीके में यकीन रखनेवाले जिस मित्र ने यह वाक्य हटाया, वह क्या यह भ्रम बनाए रखना चाहता था कि बिनायक की सहानुभूति हिंसक संघर्ष से एक स्तर  पर हो सकती है! क्या इसके साथ ही  यह सवाल भी उठाने की आवश्यकता नहीं कि  बिनायक की गिरफ्तारी के बाद से अब तक माओवादियों ने यह बयान देना ज़रूरी नहीं समझा है कि बिनायक का उनसे कोई  सांगठनिक सम्बन्ध  नहीं है. क्या माओवादी यह देख कर प्रसन्न  हैं कि बिना उनके प्रयास के उनका दायरा बढ़ रहा है?

माओवादी या तथाकथित क्रांतिकारी हिंसा के पक्ष में जो अनेक तर्क दिए जाते हैं, यह उनमें से सिर्फ एक वह अहि जिसका जिक्र ऊपर किया गया यानी क्या हमें हिंसक संघर्ष से डरना चाहिए! . हिंसा से असहमत लोगों को डर का शिकार बताकर उनमें हीनताबोध पैदा करना इसका उद्देश्य है. दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि इस पर विचार करना होगा कि माओवादी हिंसा बड़ी  है या राज्य की हिंसा और कहीं  ऐसा तो नहीं कि हम माओवादी हिंसा पर बात करके राज्य की हिंसा से, जो अधिक व्यापक है, ध्यान हटा रहे हैं!  पिछले कुछ वक्त से एक और तर्क इसके साथ ही दिया जाने लगा है: माओवादी हिंसा के देशव्यापी होने का हव्वा खडा किया जा रहा है, वे दरअसल उतने बडे इलाके में सक्रिय नहीं हैं और हमें कुछ हत्याओं और विस्फोटों की घटनाओं को इतना  बढा-चढा कर पेश करने से बचना चाहिए और अपना  ध्यान असल हिंसा पर,  जो कि राजकीय हिंसा है और इजारेदारों की लूट की हिंसा, केन्द्रित करना चाहिए. तो क्या हिंसा का विरोध करने का आधार उसकी  व्यापकता है? अगर इस तर्क को मान लिया जाए तो फिर सिंगुर और नांदीग्राम ग्राम में सी. पी.एम. के द्वारा की गई हिंसा पर भी इतना विरोध करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है. प्रसंगवश यह याद कर लेने में हर्ज़ नहीं कि सी.पी.एम. के नेता भी इस हिंसा को एक बहुत छोटे इलाके तक सीमित बता कर यह साबित करने की कोशिश कर रहे  थे कि इस पर इतने बडे विरोध की कोई ज़रूरत नहीं थी. नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी का यह पुराना तर्क है कि सिर्फ और सिर्फ गुजरात में एक छोटे कालखंड में हुई हिंसा को बार-बार याद करके उनका विरोध, जो कुछ भी  हुआ उसका समानुपाती नहीं है. मोदी का  तो यह प्रश्न् ही है कि  क्या गुजरात में 2002 के  बाद हिंसा हुई! तुलना हमेशा अच्छी नहीं होती , लेकिन ये उदाहरण केवल यह बताने के लिए दिए जा रहे हैं कि व्यापकता, चाहे भौगोलिक हो या कालखंड की, कोई आधार नहीं, जिसे किसी हिंसा को उचित या अनुचित ठहराने के लिए इस्तेमाल किया जाए.
यह भी कहा जाता है कि माओवादी अपने ढंग से कुछ जगहों में काम कर रहे हैं, इतने बडे देश में हम दूसरे तरीके से काम करके कोई नया  रास्ता दिखा दें! जब यह कहा जाता है तो इसके पीछे यह समझ काम कर रही होती है कि माओवादी रास्ते की अपनी जगह है और उसे समय देना चाहिए कि वह अपनी सफलता सिद्ध करके दिखा सके, वरना आपको किसने रोका है कि आप अहिंसक तरीके से संघर्ष करके जनता की परेशानियों का हल निकाल लें! लेकिन   इन सारे तर्कों के पीछे चतुराई सिर्फ है माओवादी हिंसा को किसी भी विचार-विमर्श के दायरे से बाहर रखने  की .

लोकतंत्र की बुनियाद यह् है कि अपने प्रतिनिधि का चुनाव करने का अधिकार हर  व्यक्ति के पास होगा. कोई और उसकी जगह फैसला नहीं कर सकता, चाहे उसका तर्क कुछ भी क्यों न हो. माओवादी शायद यह तर्क दे सकते है कि  उनके पास  जनता के हित की सर्वश्रेष्ठ विचारधारा है और उनकी हिंसा भी जनहित की हिंसा है जो इस विचारधारा से समर्थित है, इसलिए उसपर कोई सवाल नहीं किया जा सकता. श्रेष्ठता के  इस  तर्क की विडंबना के उदाहरणों की  इतिहास में कमी नहीं है. क्या हमें जरमनी, सोवियत संघ, पूर्वी युरोप या चीन और कंपूचिया का नाम  बार-बार लेना होगा यह बताने के लिए कि श्रेष्ठता के हिंसक तर्कों से यह विश्व थक चुका है?

8 thoughts on “हिंसा की राजनीति के पैरोकार”

  1. there should be articles in other languages too.. why give preference to hindi ? many of us can’ t read hindi !

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  2. dear federalist, we do want to make Kafila into a multilingual blog – hopefully one day we will do so. At the moment, we are going with our capacities and strengths.

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    1. apoorvanand has given very sensible arguments in rejecting maoist violence. Actually if we look it this violence this does not have much to do with ‘masses’ of which the maoists speak of. Maoists are ‘self-proclaimed’ representatives of ‘masses’ while the politics they practice is on the same line as the politics of the state – the politics of instilling fear, politics of coercen. Actually it is not the state which is afraid of the maoists, it is the people who live in the areas influeced by maoist violence who are afraid of the maoists.

      This is the halmark of the politics of the bourgiosie, in demoractic form or otherwise. Just as maoists want to instill fear state try to do it. Recently, to supress the protests against G20, british government resorted to waht was called ‘kettleing’ – innocent peopel were put in a ‘kettle’ for svveral hours. Once person died. Demoractic british government wanted to instill fear and intimidate – if your oppsotive went beyondaccepted norms then…

      apoorvanand is rightly recalled Soveit Union, China, Pinochet. In all these countries working class, all people were, subjected to horrible violence – gulgs, concentration camps. But these governemnts were not communist or workers governments. These were ultra nationalist, state capitaist governments who were ready to destroy everybody who came in the way of thier ‘patriotic’ struggle

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  3. the post on political violence is apt. you might be interested in a recent (and under-reported) decision of the Supreme Court with far-reaching consequences for political violence. this blog post discusses its ramifications: http://lawandotherthings.blogspot.com/2009/04/supreme-court-makes-law-governing-civil.html

    In simple terms, the In Re Destruction of Public and Private Properties case (2009) lays down thee important legal propositions:
    (1) any violence (to person or property) that follows from a political agitation/bandh/protest etc., there will be civil/tortious liability for the leadership of the political organisation that called the agitation. thus, in a case like Gujarat, there will be a presumption that the leadership was involved (but only for civil liability, not criminal). This is important, since usually only the foot-soldiers get caught, while leaders go scot-free. [Although the decision may not have retrospective effect to cover what happened in Gujarat]

    (2) The damages awarded will cover not only actual damage caused, but also include exemplary or punitive damages. For smaller groups like Ram Sene, this could be crippling.

    (3) A special implementation vehicle involving the High Court will be constituted to ensure speedy adjudication.

    This judgment is not relevant to political violence by those completely outside the constitutional framework (like the Maoists). But those groups that still masquarade as respectable, and work within the constitutional framework, but are not shy of using political violence and then disown responsibility, this judgment can have far reaching implications. Of course, one also needs to be careful that we don’t zealously over-sanitise our politics to reduce the space for legitimate dissent.

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  4. ye bahut achcha bakwaas karte hain. jahaan tak sawal hinsa ke achhe aur bure hone ka hai, maovadi (jo ki tarah-tarah ke hain, unko ek katghare mein daalna bevkoofi hogi) bhi hinsa nahin chahte… unki ladaai pulis aur sena jaise hinsak daston se hai – aap ko kya lagtaa hai – pulis aur sena aapki ahinsak bakwaas sunkar chup rahegi. usi tarah maovadi bhi nahin – hinsakta symptom hai, bimari aur kitanu nahin. sabse pahle rajsatta ke hone par aap sawal utthaye – yaani kitanu par, hinsa uska gun hai… maovadiyon (jinki aap baat kar rahen hain) ki samasya hinsa nahin, unki rajsattavad hai

    lekhak usi tarah ki bakwaas karte hain jisko gramsci “common sense” kahte the… yeh “good sense” nahin hai… kafila ke intellectual log samuhik rona rone me maahir hain sahib!!!

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  5. ‘बकवास’ शायद आपका प्रिय शब्द है, लीज़ा जी, मगर बेहतर हो कि आप गाली गलौज कि बिना बातचीत करने का शऊर सीख लें। बहस में आसानी होगी।

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