वाम के खिलाफ अवाम: ईश्वर दोस्त

This is a guest post by ISHWAR DOST. Ishwar is a Left activist and journalist. He works with Jansatta.

एक वक़्त था जब नंदीग्राम माकपा के बर्ताव से अचंभे और सदमे में था। आज पूरे बंगाल में बुरी तरह खारिज कर दिए जाने पर माकपा की यही स्थिति है। कभी नंदीग्राम पीड़ित के रूप में उभरा था, आज माकपा और उसके साथ और पीछे खड़ी पार्टियों की पीड़ा समझी जा सकती है। नंदीग्राम और सिंगूर के एक स्थानीय घटना बन कर रह जाने की माकपाई उम्मीद अचानक खत्म हो गई। नतीजे बताते हैं कि नंदीग्राम की पीड़ा के साथ बंगाल के देहात ने ही नहीं, शहर कोलकाता ने भी साझा किया है। किसानों के साथ हुए हिंसक सलूक से कोलकाता के बुद्धिजीवी ही नहीं, आम लोग भी हिल गए थे।

नंदीग्राम अब माकपा की पीड़ा और छटपटाहट को समझ सके, इसमें शायद काफी देर हो गई है। ऐसा कभी हो सके, इसके लिए माकपा और उसके पीछे चलने वाली पार्टियों को सारे अहंकार छोड़ कर एक पुरानी पीढ़ी के किसी कम्युनिस्ट की तरह नंदीग्राम तक सिर झुकाए आना होगा। सत्ता और सफलता का अहंकार पीड़ा को समझने और उससे जुड़ने की क्षमता नष्ट कर देता है। इस अहंकार ने कम्युनिस्टों की एक वक्त की नैतिक, ईमानदार और जज्बाती होने की पहचान को कमजोर कर दिया है।
इस लोकसभा चुनाव में बंगाल के भीतर वामपंथी पार्टियां हारी हैं, लेकिन वाम रुझान नहीं हारा है। यह विचारधारा की नहीं, माकपा की हार है। विचारधारा को वह कहीं पीछे छोड़ कर बहुत आगे निकल आई है। नवउदारवादी भूमि अधिग्रहण का विरोध कर, किसानों के हितों की चैंपियन बन और राजकीय हिंसा के खिलाफ खड़ी होकर ममता बनर्जी ने बंगाल में वही भूमिका ले ली, जो कभी वाम मोर्चे की थी। वाम मोर्चे के लिए ज्योति बसु के मुख्यमंत्री रहने तक सामाजिक न्याय का सवाल औद्योगीकरण से ज्यादा अहम रहा। इसीलिए मोर्चा पूरी कोशिश के बावजूद बंगाल में उद्योगों के न पनपने का ठीकरा ममता के नेनो विरोध के ऊपर नहीं फोड़ सका।

1977 में बंगाल की जनता ने वाम मोर्चे को सत्ता में पहुंचाया था तो कम्युनिस्ट क्रांति के लिए नहीं, बल्कि भूमि सुधार, सामाजिक न्याय और मजदूर-किसान के जीवन की बेहतरी के सामाजिक-जनवादी एजेंडे के लिए। माकपा और सहयोगी पार्टियों के नाम में भले कम्युनिस्ट जुड़ा हुआ हो, लेकिन वे बंगाल में जिस वाम जगह को घेरती हैं, उसकी अंतर्वस्तु कम्युनिस्ट नहीं है। यह अंतर्वस्तु पूंजीवादी या सामाजिक जनवादी ही है। यही माकपा का पार्टी कार्यक्रम कहता है। यही तर्क  माकपा के एक पैरवीकार प्रभात पटनायक ने ‘इकोनॉमिक ऐंड पोलिटिकल वीकली’ में बुद्धदेव का बचाव करते हुए दिया था।

वाम ने नवउदारवाद की तरफ छलांग लगाते हुए सामाजिक जनवादी अंतर्वस्तु वाली जिस वाम जगह को खाली किया, धीरे-धीरे वह जगह ममता ने भर दी। माकपा ने अपने ग्रासरूट या तृणमूल को छोड़ कांग्रेस की भूमिका में आना चाहा तो तृणमूल कांग्रेस वाम भूमिका में चली गई। सभाओं में ममता ने कहा भी कि हम असली वाम हैं, और माकपा नकली। वहीं रतन टाटा के प्रमाणपत्र और नेनो की छवि को लेकर घूम रहा वाम मोर्चा मतदाता को तृणमूल के असली पूंजीवादी होने और अपने नकली या रणनीतिक रूप से पूंजीवादी होने के भेद का कायल नहीं कर सका। वह नहीं समझा पाया कि वाम मोर्चे का नवउदारवादी पूंजीवाद ममता या मनमोहन के नवउदारवादी पूंजीवाद से कैसे बेहतर है। मतदाता नवउदारवाद को लेकर माकपा के दिल्ली में अलग और कोलकाता में अलग सुर को नहीं बूझ सका।
सिंगूर और नंदीग्राम के स्थानीय मुद्दे बने रहने का मोर्चे को भरोसा था। सोचा था कि आग पीड़ित किसानों और गांवों तक ही फैलेगी, और बाकी जगहों का किसान बुद्धदेव के चेहरे के आर-पार ज्योति बसु के चेहरे का दर्शन करता रहेगा और आज के वाम में आपरेशन बर्गा के वाम को पाता रहेगा। भूमि सुधार की जिस जमीन पर वाम मोर्चा खड़ा था, वह स्थानीय मुद्दा नहीं, पूरे बंगाल के लिए भावनात्मक मुद्दा साबित हुई। शहर की जनता तीस साल बाद हिंसा और दर्प के प्रदर्शन से हिल गई।

कामरेड द्वंद्ववाद को भूल गए, मगर जनता नहीं भूली। उसने देख लिया कि न तो वाम वह पुराना वाम है और न ममता पुरानी ममता हैं। कभी हेगेल ने इसी द्वंद्ववादी प्रक्रिया को ‘विरोधियों के अंतर्वेधन’ का नाम दिया था। अगर आने वाले दिनों में बंगाल की यह वाम जगह नहीं बदली तो ममता तब तक ही टिक पाएंगी, जब तक वे वाम मुद्दों को उठाती और आगे बढ़ाती रहें। लगता नहीं कि वामपंथ के लिए पिछले तीस सालों से मतदान करते आ रहे लोगों को तृणमूल कांग्रेस को लेकर कोई भ्रम है। वे जानते हैं कि ममता वामपंथी नहीं हैं, महज वाम भूमिका में हैं, जिस तरह वाम मोर्चा कम से कम बंगाल के भीतर वाम भूमिका छोड़ चुका है।

वाम मोर्चे की हार का संकेत तभी मिल गया था जब सस्ते राशन की दुकानों पर काबिज वाम काडरों के खिलाफ बंगाल भर में प्रदर्शन हुए। नंदीग्राम के बाद हुए पंचायत चुनाव में वाम मोर्चे के हाथ से करीब तीस फीसद पंचायतें निकल गई थीं। फिर भी मोर्चे को बंगाल के लाल दुर्ग के बरकरार रहने का यकीन था तो इसकी वजह यह थी कि राज्य में ममता की छवि ऐसे लड़ाकू लेकिन अपरिपक्व नेता की थी जिसके पास कोई वैकल्पिक कार्यक्रम न हो। ममता कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा से समझौता कर अपनी जगहंसाई करा चुकी थीं। बंगाली समाज में बुद्धिजीवियों की विशेष जगह है और इनमें से ज्यादातर या तो वाम मोर्चे के साथ थे या उनके मानस को वामपक्षी कहा जा सकता था।   नंदीग्राम की घटनाओं के निरंतर विरोध के बाद और वाम मोर्चे के वज्र अहंकार के चलते धीरे-धीरे कलाकारों, साहित्यकारों और अन्य बुद्धिधर्मियों की एक नई गोलबंदी उभरने लगी। वाम मोर्चा नैतिक और बौद्धिक दोनों धरातलों पर कमजोर पड़ता गया और ममता की नई छवि बनने लगी।

वाम मोर्चा ग्रामीण गरीबों के वोट से ही नहीं, 1977 के बाद से अपने साथ रहे मुसलिम समुदाय के वोटों से भी हाथ धो बैठा। मुसलिम किसी मजहबी वजह से नहीं, बल्कि खालिस सेकुलर वजहों से वाम मोर्चे से दूर गए। ग्रामीण मुसलिमों की नाराजगी का एक कारण नंदीग्राम था। इसी बीच आई सच्चर समिति की रिपोर्ट से सामने आया कि बंगाल की पच्चीस फीसद आबादी होते हुए भी सरकारी नौकरियों में वे करीब चार फीसद ही हैं। दलित और पिछड़े मुसलमानों की गुजरात और कर्नाटक तक से खराब हालत एक बड़ा मुद्दा बन गई। वाम मोर्चा तब भी अमेरिका विरोध और तसलीमा को बंगाल में रहने की इजाजत नहीं देने जैसे जज्बाती मुद्दों के भरोसे रहा। रिजवानुर की हत्या के मामले को राज्य सरकार ने जिस तरह लिया, उसने सभी समुदायों के लोगों को नाराज कर दिया। एक बार विभिनन तबकों के नाराज होने का सिलसिला शुरू हुआ तो यह संथाल परगना के आदिवासियों तक गया। माकपा के सहयोगी दलों ने उसकी आलोचना की भी तो आधे-अधूरे रूप से ही। ये दल सत्ता के व्यवहारवादी तकाजे के चलते माकपा के तर्कों को भुनभुनाते हुए मानते रहे।

माकपा के भीतर हार के जिन कारणों पर चर्चा हो रही है, जरा उन पर गौर करें। जो करात के प्रति मुलायम हैं, वे राज्य संगठन की नाकामी और दबी जुबान में नंदीग्राम और सिंगूर को हार का बड़ा कारण मान रहे हैं। जो बुद्धदेव के साथ हैं वे करात के कांग्रेस से समर्थन वापस लेने को सबसे बड़ी वजह बता रहे हैं। यह सही है कि समर्थन वापसी ने कांग्रेस और तृणमूल के गठबंधन का रास्ता साफ कर दिया था, जो पहले से कमजोर हाल वाम मोर्चे पर भारी पड़ा। लेकिन यह कहना सही नहीं है कि देश भर में कांग्रेस के पक्ष में लहर बनने की वजह से ही वाम मोर्चे को बंगाल में नुकसान हुआ। आखिर ऐसा नुकसान जद (एकी) को बिहार में और बीजू जनता दल को ओडीशा में क्यों नहीं हुआ?

वाम मोर्चे का केंद्र में यूपीए सरकार की साढ़े चार साल तक की स्थिरता और रोजगार गारंटी योजना, सूचना के अधिकार और वनाधिकार अधिनियम जैसे प्रगतिशील कदमों में योगदान था, लेकिन वह समर्थन वापसी के बाद इनका श्रेय लेने की हालत में नहीं रह गया। वाम मोर्चे ने कांग्रेस की सामाजिक जनवादी छवि को बनाने में तो योगदान किया, मगर खुद नवीन पटनायक और चंद्रबाबू नायडू जैसे पक्के नवउदारवादी चेहरों के साथ खड़े होकर अपनी साख खराब कर ली। यह वाम राजनीति के भाजपा-विरोध और अमेरिका-विरोध तक सिमट जाने का नतीजा है। महामंदी के चलते कई राष्ट्रों में वामपंथी उभार आया है, मगर भारत में वाम को 2004 की ऊंचाई से 2009 के पराभव का सामना करना पड़ा है तो इसकी एक वजह नवउदारवाद की बाबत उसका अंतर्विरोधी रवैया ही है।

अवाम और वाम के बीच दूरी बढ़ती जा रही है, यह तो पता था, मगर इतनी बढ़ जाएगी, यह ज्यादातर वामपंथी नेताओं ने नहीं सोचा होगा। इसलिए वे निराश हैं, अचंभे में हैं। अचंभे का यह भाव बताता है कि ये नेता जनता से ही नहीं, व्यापक वामपंथ के भीतर ही मौजूद स्थितियों के वैकल्पिक विश्लेषण तक से कट गए थे। अपनी आलोचनाओं को गंभीरता से लेने का माद्दा खो बैठे थे।

किसी के वाहन के पहिए बाहर निकलने को हों और उसे राह चलते लोग चिल्ला-चिल्ला कर बता रहे हों कि भाई तुम्हारी गाड़ी में फलानी गड़बड़ है। तब गाड़ी के चालक और उसमें बैठे लोग ऐसे हमदर्दों को धन्यवाद देने के बजाय गाली-गलौज करने लगें तो उस गाड़ी का देर-सबेर हादसे का शिकार होना तय है। पश्चिम बंगाल और केरल में वामपंथ के साथ ऐसा ही हुआ है।

पिछले तीन सालों में अनेक वाम बुद्धिजीवियों ने वामपंथी पार्टियों के भटकाव की विशद आलोचना पेश की। इससे कुछ सबक लेने और विनम्रता के साथ आत्मालोचन करने के बजाय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इन बुद्धिजीवियों के चरित्र हनन की कोशिश की। उन्हें बुर्जुआ या साम्राज्यवादी एजेंट तक कहा गया। जबकि इन बुद्धिजीवियों में से ज्यादातर माकपा से इसलिए खफा थे कि वह सामाजिक न्याय और किसान-मजदूर हितों को छोड़ कर उद्योगीकरण के नवउदारवादी रास्ते पर चलने लगी थी और जनता पर राजकीय हिंसा न करने के वाम नैतिक धरातल को उसने छोड़ दिया था। इनमें से कई माकपा में कभी नहीं रहे, लेकिन कुछ ऐसे थे जो नंदीग्राम के पहले तक माकपा के साथ रहे। माकपा ने अपने अनगिनत समर्थकों को महज अहंकार के चलते गंवाया। जो माकपा की हर नीति से सहमत नहीं था, वह वर्ग शत्रु, गद्दार या प्रतिक्रियावादी एजेंट हो गया।

आज वाम नेता जिस नतीजे पर चौंक रहे हैं, उसकी चेतावनी पिछले तीन सालों से अनगिनत लेखों में मिलती है। अब अगर पोलिट ब्यूरोक्रेट हार के कारणों को वास्तव में समझना चाहते हैं तो वे ईपीडब्ल्यू, मेनस्ट्रीम जैसी पत्रिकाओं और सन्हति व काफिला जैसै ब्लागों के सैंकड़ों पन्नों में मौजूद वामपंथ के जनता से कटने के कारणों का विशद विश्लेषण पढ़ सकते हैं।

माकपा के नेता दीवार पर साफ-साफ लिखी इबारत को पढ़ने में चूक गए, तो उसकी वजह  उनमें पनप आया ऐतिहासिक अहंकारवाद है, जो अपने हर आलोचक को षड्यंत्रकारी की तरह देखता है। उसे खारिज करता है। उसका मजाक उड़ाता है। आलोचक होते हुए माकपा का हमदर्द नहीं रहा जा सकता। कोई रहने को आमादा ही हो तो उसे माकपा का तिरस्कार झेलते हुए उसका हमदर्द बने रहना होगा। जो माकपा ब्रांड वामपंथ से सहमत नहीं है, वह बुर्जुआ एजेंट है। पर वह माकपा में या उसके साथ है तो पूंजीवाद की वकालत और पूंजीवादी पार्टियों से गलबहियां करते हुए भी चौबीस करात (कैरेट) का कम्युनिस्ट है।
ऐतिहासिक अहंकारवाद की बीमारी के शिकार लोगों को अवाम से ज्यादा समझदार होने के बारे में और अवाम से ज्यादा उसके हित समझने को लेकर आत्मविश्वास होता है। इसलिए हो सकता है कि वाम इसे अवाम के भटकने की एक और मिसाल मान ले और उम्मीद करे कि जनता कभी न कभी सत्य को प्राप्त कर उसके पाले में लौट आएगी।

[ यह लेख पहले जनसत्ता में छपा था। ]

26 thoughts on “वाम के खिलाफ अवाम: ईश्वर दोस्त”

  1. yakinan, Wam Morcha, Khaskar CPM apni ‘karni’ se haari hai Bengal me. Lekin iska credit Mamata Banerjee ko Dena ek kism ke atirek ke alawa aur kuch nahin hai. Jo log Wam Morcha ki is ‘durgati’ se rahat mahsoos kar rahe hain, we kya is tathya ki wyakhaya karne ki meharbaani karenge ki Navudaarwadi Bhoomiadhigrahan ki Tathakathit virodhi evam Kisano ke hiton ki Tathakathit ‘champion’ Mamata didi kya waqt ke kisi bhi mod pe Navudaarwadi Punjiwad ki sabse badi ‘Champion’ Congress Party ke Virodh ka sahas dikha payegi? Hume yah bhulne ki galti katai nahin karni chahiye ki rajnitik paridrishya par Mamata multah Congressi mansikta ki paidawaar hain.Yaad yah bhi rakhna chahiye ki ye wahi Mamata hain jo Andh- Wam Virodh ki Aasakti me Sampradayik saktiyon se bhi samjhauta karne me sankoch nahin dikhati hain. Ab sawal yah hai ki Wampanthiyon ki janvirodhi nitiyon ka virodh Sampradayikta ki god me baithkar hoga kya? Yahan yah poochna bhi uchit hoga ki sampradayikta ka mahin istemaal Congress se Behtar aur koi Party kar saki hai kya is desh me?

    Raha sawal Budhijeewiyon ka, to usne niveden yah hai ki yaadi we Wampanthiyon ki nitiyon se asantusht the toh ek sawatantra pahal karne ke wajay unhen Mamata- Congress type rajniti ki god me baithna kyon aur kaise mufid laga?

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  2. अगर लेख ज़रा ग़ौर से पढ़ें आम आदमी साहब, तो पाएँगे की उसमें सारा का सारा श्रेय माकपा को ही दिया गया है। यह बात आपके कॉमेंट की पहली लाइन में भी ज़ाहिर है। लिहाज़ा, अपनी बात आप सीधे बी कह सकते थे – बिना ईश्वर की बात तो तोड़े मरोड़े। रही बात आपकी बाक़ी टिप्पणी की, तो इस मक़ाम पर एक ही बात कही जा सकती है: अब पछताए का होत है जब चिड़िया चुग गई खेत! अगर पूरा श्रेय माकपा को ही जाता है तो इस जिम्मेदारी से वह कैसे बच सकती है?

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  3. CPI bahut pahle se CPM ko janti thee phir vee us var var apmanit hone ke bavjood CPM ke sath atut bandan bna liya hai.is se CPM ko bangal mein ek party ki hakoomat sthapit karne ka avsar mila.us hakoomat ke teen dask mein jo hua vo dost ne theek biaan kiya hai.agar CPI unke sath na jati to bengal mein lokraj ka bahut achha namoona ban sakta tha aur pure desh mein communist lehar aage ja sakti thee.inki ek prapti zaroor hai: communiston ki bemisal kurbanion ki kahani ko puran tarah se be-assar kar diya hai.aur congress ko khatam karne chale the khud khatam hone ke kagar par ja chukke hain.lok jamhooriat ka aisa hi hasar hona tha par kaumi jamhooriat ki ke liye akeli congress kaafi hogi?

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  4. आम आदमी: ममता को बंगाल के आम आदमी ने ही नहीं, आम औरत ने भी यानी आम जनता ने चुना है, इसलिए आम आदमी की नुमायंदगी करने वाले बुद्धि-आल्हादित वाम-नामधारियों को सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ। बजाय जनता के भटकने के कारणों की तलाश के वे यदि अपने भटकने के कारण ढूढ़ पाएं तो शायद कभी रास्ता खोजते-खोजते फिर वाम जगह पर पहुंच पाएं, जो इन पंक्तियों के लेखक की मुराद है।
    आप सही कह रहे हैं सीपीएम की ‘करनी’ जैसी थी वैसी भरनी हो गई। आप इससे खुश हैं या दुखी हैं? अगर खुश हैं तो क्या आप भी माकपा की दुर्गति या भरनी से राहत महसूस कर रहे हैं और दुखी हैं तो क्या आप चाहते थे कि करनी की भरनी न देनी पड़े। पर तब क्या सचमुच के आम आदमी-औरतों को यह भरनी नहीं देनी पड़ती? या आप मेरी तरह सुखी-दुखी हैं। आपको बंगाल के आम आदमी के फैसले से कोई शिकवा-गिला है तो जैसा कि आदित्य ने कहा है कि फिर खुल कर इसे बताइए।
    असली क्रेडिट तो आम आदमी और औरत का है, मगर क्या ममता निमित्त मात्र थी? माकपा हारी है मगर ममता नहीं जीती है, इस तरह के विलक्षण वाक्यों का प्रतिनिधि लोकतंत्र के संदर्भ में मतलब समझने की कोशिश करना जरूरी है।
    न तो ईश्वर ने और न मार्क्स ने किसी पार्टी के हमेशा वाम जगह पर काबिज रहने का वरदान दिया है। वाम जगह किसी भी पार्टी के लिए (नवउदारवादी) ठेके पर भी नहीं उठा दी गई है, अगर किसी देशकाल की कम्युनिस्ट पार्टी दक्षिणामुखी होगी तो उसकी वाम जगह खतरे में पड़ जाएगी।
    इस पोस्ट में बंगाल का विश्लेषण है और वहां की वाम जगह की बात की गई है। इसमें साफ लिखा है कि ममता ने भाजपा के साथ जाकर अपनी छवि बिगाड़ी थी, मगर जनआंदोलनों के साथ आने से उसकी नई ((डाइलेक्टिक्स की कसम!!… जिस तरह वाम की वाम जगह स्थाई नहीं है, उसी तरह ममता की यह जगह भी स्थाई नहीं है..)) छवि उभरी। सभी जानते हैं कि ममता कांग्रेसी थी और भाजपा से उसका उसी तरह का अवसरवादी गठबंधन था, जैसा कि कभी चंद्रबाबू नायडू, पासवान या नवीन पटनायक का था, जो अब अचानक तीसरे मोर्चे के सम्मानित कामरेड हो गए हैं। ममता को तो भाजपा का साथ त्यागे वक्त गुजर गया, पर नवीन बाबू पर तो सेकुलरिज्म का गंगाजल हाल ही में छिड़का गया है। पापमुक्त होने के लिए करात जैसे पंडित की ही जरूरत है क्या?
    कांग्रेस की सांप्रदायिकता को कौन नकारता है, मगर उसी कांग्रेस की महफिल की तरफ वाम कदम क्यों लड़खड़ाते रहते हैं?
    खैर आपकी इस ईमानदार बेचैनी में मेरा साझा है कि नवउदारवाद के खिलाफ संघर्ष कौन करेगा? पूंजीवाद के विकल्प के लिए कौन काम करेगा। वैसे करना तो यह आम आदमी और औरत को ही है। जिसकी बंगाल में उसने शुरुआत कर दी है और फिलहाल नवउदारवाद की हवा निकाल दी है। अच्छा हो यह हवा केंद्र तक आए।
    यह भी सोचना होगा कि कांग्रेस के समर्थन में साढ़े चार साल कौन था? क्या तब कांग्रेस नवउदारवादी नहीं रह गई थी। कलिंगनगर और पोस्को फेम नवीन की बीजद सरकार के साथ माकपा क्यों है? जाहिर है कि आसान या अपनी सुभीते के समीकरण नहीं बनाए जा सकते। विकल्प के लिए नामों और साइनबोर्डों के पीछे छिपी बातों तक पहुंचना होगा और माकपा-ममता से आगे जाकर वाम की नई जमीन तोड़नी होगी। वहां माकपा आत्ममंथन से गुजर कर पहुंच सके तो आम जनता उसका स्वागत ही करेगी।

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  5. Lallan: thanks for appreciation.
    चरण गिल: सीपीआई में सीपीएम की तुलना में अहंकार वाकई कम है और कई बार वह अपनी आलोचनाओं के साथ संवाद कायम कर पाती है। मगर सोवियत संघ ढहने की बाद की घबराहट में उसने सीपीएम के पीछे चलने और उसके अनुकरण का रास्ता पकड़ लिया। पहले रूस के पीछे, फिर सीपीएम के पीछे… अब कई बार लगता है कि इस पार्टी में, स्वतंत्र पहलकदमी की ताकत बची ही नहीं है। यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर नंदीग्राम पर यह कोई नैतिक स्टैंड ले पाती तो एक अलग डायनेमिक्स बन सकता था। यह शायद बहुत सी बातों और सिद्धांतों के पुनरीक्षण का वक्त है।

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  6. मुझे नहीं लगता कि हिंदी या अंग्रेज़ी में, इतना वस्तुपरक, तटस्थ और वाम-जन-प्रतिबद्धता के साथ साफ़-सुथरा और लगभग ‘आमसहमति’ जैसा ऐसा कोई दूसरा आलेख कहीं लिखा गया होगा। यह वह आलोचना और विश्लेषण है, जिसे किसी भी पोलितब्यूरो में जनता के श्वेत-पत्र की तरह पढा जाना चाहिए। क्योंकि इसमे वाम के पराभव और गरीबों-किसानों तथा बौद्धिकों से सी.पी.एम. की विच्छिन्नता का उत्सव नहीं मनाया गया है, बल्कि यह किसी ईमानदार चिंता में डूबे शोकगीत की तरह है। बंगाल में यह वाम विचार की मूल ताकत की ही जीत है। ममता की जीत या सत्ताधारी वाममोर्चे की हार नहीं। सबूत तो वह खबर भी है कि २७ लाख रुपये के टाटा के डोनेशन चेक को तृण मूल कांग्रेस और सी.पी.एम. दोनों को लौटाना पड़ा है। ऐसा किस दबाव के चलते हुआ, इस आलेख को पढ़ कर समझ ,में आता है।

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  7. ईश्वर (और आदित्य भी)
    आपसे तीन सवाल है.

    पहला – क्या आपको लगता है के वाम की हार का यह रुझान विधान सभा तक बरक़रार रहेगा? ममता मुख्य मंत्री बन पाएंगी? या फिर २०११ तक वाम अपनी गलतियाँ सुधार कर वापिस जीत जाएगा?

    दूसरा – आपकी राय में क्या वाम को ज्योति बासू के दिनों की पौलिसीयो के तरफ पीछे जाना चाहिए? या फिर ऐसी पॉलिसी अपनानी चाहिए जिस में सामाजिक न्याय और मजदूर-किसान बेहतरी के साथ साथ थोडा पूँजीवाद का अंश भी शामिल हो? अगर पूँजीवाद शामिल हो, तो फिर वाम और कांग्रेस के बीच में (या यूं कहे जो कांग्रेस के वादे एवं दावे हैं उनके बीच में) क्या फर्क रह जाएगा?

    तीसरा – जब बुश राष्ट्राध्यक्ष थे तब शायद अमरीका-विरोध में आम जनता को तथ्य लगता था. ओबामा के राष्ट्राध्यक्ष बनने से क्या अमरीका-विरोध के पटाखे की बाती गीली नहीं हुई? कम से कम आम आदमी के मन में तो ज़रूर हुई होगी. बुद्धिजीवियों और स्कालरों के मन में ना सही. अगर यह मान ले के ओबामा मुस्लिम जगत के साथ अमरीका के सम्बन्ध काफी सुधार दे, इराक़ से फौज हटा दे, और पर्यावरण और भू-गर्मी सुधारने वाले कदम ले, और २०१२ में जीतकर २०१६ तक राष्ट्राध्यक्ष बने रहे. उस हाल में, वाम के अमरीका के प्रति क्या नीति होनी चाहिए?

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  8. उदय प्रकाश: इतने अच्छे शब्दों के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। सागर विश्वविद्यालय में आपकी पीढ़ी समाजवाद के जिस सपने को ऊंचे टैगोर हॉस्टल से दूर नीचे झील और शहर तक लहराता और फहराता हुआ छोड़ गई थी, उसी ने बाद में कभी हमें लड़ने और प्रश्न पूछने के लिए जिंदा किया था। आज उस सपने के रेशे-रेशे घाटी में उड़ते-फिरते हैं, बदहवास उनकी तरफ भागने और उन्हें बटोरने की कोशिश करें तो मठों के कारिंदे और सत्य के लाइसेंसी एजेंट घूरते हुए गश्त करते दिखते हैं। आपकी यह टिप्पणी प्रश्न पूछते रहने और चिंदिंया बटोरते रहने की लड़ाई की हिम्मत देती है।

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  9. इस बात पर बेहद संतोष है कि वामपंथ के भीतर जो आत्ममंथन चल रहा है, उसकी आखिरी मुराद सचमुच वाम के अपने पंथ पर वापस लौटने और फिर से वाम जगह हासिल करने की है। सब कुछ साफ है कि वाम की जो “मूल प्रकृति” रही है, उससे “भटकने” का ही नतीजा हमारे सामने आया है। फिर भी यह समझना मुश्किल हो रहा है कि क्या एक भटकन का विकल्प दूसरा भटकन ही होगा। जनता के सामने “बिगड़े हुए” वाम का विकल्प ममता थीं। लेकि सब कुछ “सोच-समझ” तय करने वाले और वाम को खड़ा करने और बनाए रखने का दावा करने वाले बुद्धिजीवी? संघर्ष क्या इतना असंभव रास्ता हो गया है कि “एक गोद” के मुकाबले “दूसरी गोद” ही चाहिए? क्या संघर्ष का एक रास्ता किसी मोड़ पर खाई की ओर मुड़ जाए तो नया रास्ता गढ़ने का माद्दा हमारे भीतर खत्म हो गया है? खुद पर और अपनी प्रतिबद्धता पर भरोसा करने वाले किसी भी व्यक्ति को ऐसे सवाल असहज नहीं कर सकते। लेकिन यह क्या कि “दुश्मन” का जो दुश्मन है, उसके गले लग जाएं! वह भी तब, जब उस दुश्मन का चाल-चरित्र सब सामने और तयशुदा हो!

    वाम अगर अपना पंथ दुरुस्त नहीं करता है, तो इसका विकल्प वाम ही हो सकता है, ममता नहीं। उत्साह में आकर ममता को वामपंथी या वाम भूमिका में घोषित करना दरअसल आगा-पीछा सबको अनजाने या जानबूझ कर नजरअंदाज करना है। ममता वाम भूमिका में कभी नहीं रहीं, बल्कि एक ऐसी दक्षिण भूमिका में रहीं जहां सत्ता के सामने सारे जायज-नाजायज सवाल बेमानी हो जाते हैं। सन 2002 के गुजरात जनसंहार के दौरान नरेंद्र मोदी के साथ खड़े रहने से लेकर तमाम नाटकों के बाद आज कांग्रेस के साथ तक के सारे सवाल।

    वाम सरकार नंदीग्राम में नैतिक-राजनैतिक-प्रशासनिक- सभी स्तरों पर हारी। लेकिन हाल ही में एक महत्त्वपूर्ण नक्सली नेता ने एक साक्षात्कार में जिस तरह साफ तौर पर कहा कि नंदीग्राम में तृणमूल कांग्रेस ने नक्सलियों को हथियारों की सप्लाई की थी, क्या इसे यों ही खारिज कर देंगे हम?

    और इसके बाद “नंदीग्राम कांड” की पूरी तस्वीर की परतें हमारे सामने क्या नहीं खुलने लगती हैं?

    रही बात सिंगूर की तो उस “आंदोलन” में फोर्ड फाउंडेशन की “मदद” से चलने वाली कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं से लेकर कुछ महान विभूतियों के कोई इक्कीस “पक्षों” ने क्या “भूमिका” निभाई? क्या यह बहुत सारे बुद्धिजीवयों की निगाह से अछूता रहा।”

    पश्चिम बंगाल के मुसलमानों के बीच यह कब किसने बैठा दिया कि नंदीग्राम के बाद अब राज्य भर में चुन-चुनकर मुसलमानों की जमीन छीन ली जाएगी।

    और अगर सच्चर समिति ने सच्चाई नहीं बताई होती तो पश्चिम बंगाल के मुसलमानों को राज्य के सरकारी सच के बारे में बताने वाला कौन था?

    सही है कि तीसरे मोर्चे और नवीन पटनायक पर वाम के स्टैंड को राजनीतिक व्यावहारिकता का तकाजा भर कह कर नहीं छोड़ दिया जाना चाहिए। अच्छा है कि मौजूदा दुर्दशा के आत्म मंथन में भी इन चीजों को मुख्य कारणों में शुमार किया जा रहा है। लेकिन सन 2004 के चुनावी नतीजे के बाद वाम क्या करता? भाजपा को फिर से सरकार बनाने का रास्ता साफ कर देता? परमाणु करार के मसले पर वाम क्या करता? यूपीए के साथ रह कर या उसके पक्ष में वोट देकर यह जताता कि हम भी परमाणु करार के पक्ष में हैं?

    विडंबना यह है कि वाम की बातें हमें बहुत अच्छी लगती हैं, लेकिन वे हमें अपनी नहीं लगतीं। हम लोकगीतों की धुन पर झूमने वाले लोगों को शास्त्रीय संगीत की जटिल संगीत-संरचना सुनाने लगते हैं और नतीजा वही होता है, जो हुआ है। परमाणु करार पर हमने समर्थन वापस लिया, लेकिन हम इसे वोट के एक लोकप्रिय मुद्दे के रूप में तब्दील नहीं कर पाए। कांग्रेस को सभी पक्षों को खारिज कर समूची विदेश के शिफ्टिंग के इस सवाल से ही बचना था, इसलिए उसने पूरे चुनावों के दौरान इसकी चर्चा तक नहीं की।

    ये कुछ सवाल वाम पराजय के बचाव में गढ़े नहीं गए हैं, बल्कि उसके खिलाफ और ज्यादा प्रासंगिक हो उठे हैं कि केवल वाम के नाम पर धाम का धंधा करना काफी नहीं है।

    अफसोस उन तमाम घटनाओं का अपने “अध्ययन कक्षों” में बैठ कर “शास्त्रीय” विश्लेषण करने वाले बुद्धिजीवियों पर है, जिन्हें वाम से निराशा के बाद ममता की “सादगी” और हवाई चप्पल “प्रभावित” कर लेती है। शायद इसलिए कि आदिवासियों के कल्याण के नाम पर बनाए एनजीओ का “हिसाब-किताब” सुविधाजनक तरीके से चलना भी तो एक काम है। तापसी मलिक से साथ जो घटा था, उससे सबको विचलित होना चाहिए। लेकिन सुनीता मंडल का नाम किसी को याद है? उसके साथ भी तो वही सब कुछ हुआ था, जो तापसी के साथ हुआ?

    औद्योगीकरण और सामाजिक न्याय के सवालों का सामना किए बगैर कोई भी समाज फेल होगा। लेकिन सवाल है कि बंगाल में हजारों औद्योगिक इकाइयों का बेमौत मर जाना किस “वाम” नीति का नतीजा थी। और क्या उसी “वाम संस्कृति” ने सिंगूर में अपना कमाल दिखाया। सिंगूर वाम की जिद थी, लेकिन नेनो का गुजरात जाना किस जिद का परिणाम रहा। अब नेनो तो गुजरात में पैदा होकर बंगाल की सड़कों पर भी दौड़ेगी! उसका क्या करेंगे? कोई बात नहीं। यह “आमार बंगदेश” का मामला है। यहां हजारों ठप्प औद्योगिक इकाइयों की तरह आगे भी यह संस्कृति बहाल रहनी चाहिए। बीस साल के बाद फिर कोई सच्चर समिति आकर बताएगी कि फलां-फलां समुदाय आज भी बेहद वंचित हैं।

    रही बात सामाजिक न्याय की तो पिछले कुछ सालों में वाम इस सवाल से दूर नहीं हुआ है, बल्कि इससे जूझने को तैयार हुआ है। मेरे खयाल से वाम को इस बात का एहसास हुए पांच-छह साल से ज्यादा नहीं हुए हैं कि सामाजिक न्याय का सवाल भी कोई मतलब रखता है। कुछ इसी तरह का सवाल मेरे एक दोस्त ने मुझसे किया है, जिससे मैं बार-बार मुंह चुराता फिरता हूं। उसने कहा कि सामाजिक न्याय महज पांच-छह साल पहले वाम के लिए कोई मुद्दा बना है। और वाम बुद्धिजीवियों के माकपा या वाममोर्चे से किसी भी “कारण” से मुंह मोड़ने का भी यही दौर है। इसके क्या कारण हो सकते हैं?

    इसके अलावा सामाजिक न्याय के नारे, नौकरियों और औद्योगीकरण में क्या कोई संबंध है? सरकार के पास कितनी नौकरियां हैं कि वह प्रतिशत के हिसाब से प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर सकेगी? जब करना था तब तो उसने सरकारी नौकरी करने “लायक” समाज के प्रतिनिधियों को चुन लिया। फिर पिछले तीन दशक के राज्य की “वाम नीति-संस्कृति” ने हजारों औद्योगिक इकाइयों को खा लिया। उद्योग लगेंगे कैसे? क्या उसके लिए किसी नीति की जरूरत होती है? जनता ने बंगाल की नवउदारवादी पूंजीवाद की गोद में खेलते वाम पक्ष को खारिज कर दिया। तो क्या जनता को यह समझ आ गया है कि वाम के नवउदारवादी पूंजीवादी के मुकाबले ममता और कांग्रेस ब्रांड नवउदारवादी पूंजीवाद बेहतर है?

    जनता को जो समझ में आया और उसके सामने करने के लिए जो विकल्प था, उसने कर दिखाया। सवाल तो “बिगड़े हुए वाम” से “उखड़े” हुए वाम बुद्धिजीवियों के लिए है कि जो वाम नवउदारवादी पूंजीवाद उनके लिए घृणा की चीज है, वही ममता के आंचल में बैठ कर कैसे सुहाना लगने लगता है? सुना है, संघर्ष और विकल्प पैदा करना वाम की ताकत रही है।

    इस बार की हार अगर अपने अहंकारों से टकराने का कारण बने तो ठीक, वरना इसे केवल माकपा की हार मान कर उस पर झूमना आखिरकार हमारे खत्म होने का भी सबब बनेगा। एक कविता मुझे बार-बार याद आती रहती है- “जब वे मुझे ले जाने आए तो मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं था…।“
    —————————————————————————————————-

    …और कुछ मज़ाक-मज़ाक में… (चूंकि दोस्त ईश्वर कॉमरेड भी हैं)

    – आम औरत कोई आम आदमी से बाहर की “वस्तु” नहीं है। आदमी का मतलब “इंसान” होता है, “मर्द” नहीं। सो, एक आम औरत भी आम आदमी, यानी इंसान ही है।
    – “ईश्वर” (भगवान) के “वरदान” के किस्से तो जरूर हमने पढ़े और सुने हैं, “वरदान के फेर” में खुद की “बलि” देने की हद तक तैयार रहने वाले निरंतर “तपस्या” में रत मुझ जैसे “भक्त” को “ईश्वर” मिलता ही नहीं कभी! डाइलेक्टिक्स की “कसम”, अगर कभी मिलेगा तो पहला ही “वरदान” यह मांगूंगा कि हे “ईश्वर”, मैं जब चाहूं, तुमसे तीन “वरदान” और मांग लूं…।
    – फिलहाल तो “पापमुक्त” होने के लिए किसी “पंडित” की तलाश में निकलता हूं…

    ईश्वर दोस्त को एक अच्छे विश्लेषण के लिए बधाई…

    शुक्रिया…

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  10. Prakash: thanks for your nice words.
    गौरव: तीनों ही सवाल खासे मुश्किल हैं, जिन पर बात होनी चाहिए. मेरी सोच फिलहाल कुछ इस तरह है:
    १. २०११ कौन जीतेगा, यह दोनों ही पक्षों के अगले क़दमों पर टिका हुआ है. ज्यादा संभावना यही लगती है कि वाम हार जाएगा– क्योंकि–
    वाम से ज्यादा शिकायते राज्य में उसकी जनविरोधी नीतियों को लेकर थी. लोकसभा की हार तो वैसे भी चेतावनी ज्यादा है. सीपीएम के अंहकार का एक स्रोत बंगाल का लाल किला था. वो अभी कहाँ ढहा? सीपीआइ को तो आत्म आलोचना की थोडी-बहुत प्रेक्टिस है, पर हमेशा सही रहनी वाली सीपीएम अचानक यह कर नहीं पायेगी. ममता, कांग्रेस, टाटा विरोधी उद्योगपतियों और सम्प्रदायवादी वाम विरोधी ताकतों का एक साथ मिल जाना, तीसरे मोर्चे की नाकामी जैसे ‘कारण’ उनके जेहन में रह-रह कर उभरेंगे. संकट आँखें खोलता ही नहीं है, कई बार बंद भी कर देता है. अब अगर इमानदारी से गलती मान भी ली तो उसका वो असर नहीं होगा जो चुनाव नतीजे के पहले गलती मानने से होता. हाँ नीतियों के स्तर पर जनपक्षी और अभिनव कदम उठाने से जरूर फर्क पड़ सकता है. पर उसका स्कोप कम है.
    लेकिन यह तभी होगा –अगर–
    ममता राष्ट्रपति शासन लगाने, हिंसा भड़काने, बदले की कार्रवाई करने जैसे टेम्प्टेशन से बच पाए. सिर्फ वाम विरोध के वोट पर सीमित नहीं रहे और कुछ ठोस वैकल्पिक नीतियों की तरफ जाने की छवि पेश कर पाए.
    २. अब ज्योति बासु की नीतियों की तरफ जाने भर से काम नहीं चलेगा. सामाजिक न्याय और मजदूर-किसान की बेहतरी में पूंजीवादी अंश हमेशा रहा है. फिर भी कांग्रेस और वाम में अंतर था, जो अब फिर हो सकता है! सामाजिक जनवादी और नवउदारवादी दोनों पोजीशन पूँजीवाद के ही भीतर संभव हैं. भूमि-सुधार, पंचायती राज, गरीबी हटाओ (रोजगार गारंटी…) आदि ऐसे प्रगतिशील पूंजीवादी कदम हैं, जिन्हें यदि जन-दबाव न हो तो कोई पूंजीवादी पार्टी उठाना नहीं चाहती. यहीं लोकतंत्र की सीमित भूमिका है. पूंजीवादी लोकतंत्र मे सत्तारूढ़ तबकों और जनता के शोषित-पीड़ित तबको मे लगातार रस्साकशी चलती रहती है. सार्विक मतदान जनता को कुछ ताकत देता है. एक वाम दल से उम्मीद होती है कि वह इस रस्साकशी मे पूंजीपतियों की तरफ से नहीं बल्कि आम जनता की तरफ से शामिल होए. , नीतियों को अवाम की तरफ झुकाती जाये, जनता पर राजकीय हिंसा न करे. जहाँ भी वाम विकल्प होगा (जरूरी नहीं कि उसे वाम पार्टी ही अभिव्यक्त करे), वहां धुर पूंजीवादी पार्टी को भी नीतियों पर वैधता हासिल करनी होगी. आपका यह आशय ठीक है कि वाम को कांग्रेस से अलग दिखने से लिए ज्यादा मेहनत करनी होगी, क्योंकि मंदी के वक्त तो वैसे भी कीन्सवाद का बोलबाला होता है. जब अमेरिकी सरकार तक सरकारीकरण, कल्याण योजनाओं जैसे कदम उठा रही है, तो मनमोहन सरकार मंदी के चलते सरकारी खर्च बढाने की योजनाये क्यों लागू नहीं करेगी.
    ३. बुश के राष्ट्रपति रहते भी आम जनता अमेरिका विरोधी नहीं थी. अगर आप बुद्धीजीवियों को ही जनता न मान लें. जो देश विदेशी हुकूमत का सामना कर रहे होते है, वहां साम्राज्यवाद विरोध राष्ट्रीय भावना और सम्मान के आधार पर हो सकता है. भारत एक आजाद और संप्रभु देश है. यहाँ इस दांव का सफल होना मुश्किल है. दुर्भाग्य से इंडिया मे वाम पार्टियां राष्ट्रवाद से परे नही जा पा रही हैं (आदित्य ने संधान मे इस बारे मे एक लम्बा लेख लिखा था). अमेरिका विरोध तभी जनता मे जा सकता है, जब अमेरिका भारत पर हमला करे, भारत पर हमले के समय हमलावर का खुला साथ दे, या फिर नवउदारवाद के खिलाफ देश मे जबरदस्त जनांदोलन खडा हो जाए.
    ओबामा की लोकप्रिय अपील जरूर है. पर जैसे के अमेरिका विरोध देश की राजनीति मे फेक्टर नहीं है, उसी तरह ओबामा का चेहरा भी नहीं है. फिलहाल इंडिया की जनता से नहीं, अफगान या मध्य-पूर्व की जनता से पूछिए ओबामा और बुश मे क्या बुनियादी अंतर है? ओबामा अचानक एक साम्राजी देश के भीतर की आम राय को बड़े स्तर पर नहीं बदल सकता. ओबामा क्या साम्राज्यवाद को मानवीय चेहरा दे पाएंगे, यह आने वाले वक्त मे और साफ़ होगा. मुझे यहाँ के वाम की अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी नीति मे गलत कुछ नहीं दिखाई देता, पर इसे चुनावी मुद्दा बनाना हास्यास्पद है.

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  11. ईशवर दोस्त को संक्षेप विशलेशन के लिये बधाई !

    ठीक कहा कि बंगाल में वाम रुझान नहीं हारा, सवाल ये है कि क्या वाम रुझान पूरे देश में कहीं भी हारा है? या फिर वाम (मारक्सवादी नहीं )की भुमिका के अभाव में सत्ता में बैठे दल नव ऊदारवादी आर्थिक नीति के घोडे पर सवार हो कर जीते हें एवं स्वछ परशासन व विकास के मंत्र से नव ऊदारवादी आर्थिक नीतियों की जय जय कार कर रहे हैं।

    बंगाल का चुनाव नतीजा जनता के बीच खडे होकर संघर्ष करने वाले संगठनों का होंसला बढाता है। संदेश भी देता है कि संघर्षशील परगतिशील लोकतानत्रिक संगठन व आंदोलन नव ऊदारवादी आर्थिक ढांचे के विरोध में डट कर लडें तो जनता राष्ट्रीयता का नेत्रत्व उन्हें सोंपने का मन बना सकती है।

    नंदिगराम व सिंगूर के सामने कलिंनगनगर को रखने पर, स्थानीय स्तर पर राजनैतीक समाज व संघर्ष का महत्व भी रेखांकित होता है।

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  12. ek krantikari vaampaksh samay ki jurorat hey, nahi to mamta aur congress sab sametlegi aur garib kisan mazdoor peechey dhekel diya jayyega. vaampanth ki galtiyon ne inhi vaargon ka sabsey bada nuksaan kiyahey. samay khushiyan mananey ka nahi , ek vikalp bananey ka hey. jab chiriya chuggayi khet jaisi mansikta nirashawadi hey.

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  13. ईश्‍वर भाई, इस असाधारण बहस का श्रेय आपको दूँ या माकपा को? आपकी सेकुलरिज़्म के गँगाजल वाली बात बहुत सटीक है। जिन तमाम बातों के लिए ममता बनर्जी और त्रिणमूल काँग्रेस की आलोचना की जा रही है, वो सारी की सारी बाक़ी भूतपूर्व राजग घटकों पर भी वैसे ही लागू होती है जैसे ममता पर। लेकिन उनका शुमार तो दोस्‍तों में हो सकता है, ममता का नहीं। अद्‍भुत तर्क है।
    इधर टिप्‍पणी करने वालों में ख़ासकर अरविंद भाई और साधारण साहब की चिंताओं को पूरी तरह समझते हुए भी एक बात समझने में नाकाम हूँ। उनकी यह उम्‍मीद और अपेक्षा कि ज़माने से दहशत और अत्याचार झेल रहे लोग आपके बताई हुई शर्तों के तहत ही आपकी बनाई गई तमाम मर्यादाओं की भीतर रहकर ही प्रितवाद करेंगे, और ऐसा ही उन्हें करना चाहिए – ऐसा आग्रह वाक़ई हैरतँगेज़ है। जब सारी कोशिशें नाकाम हो जाती हैँ, जब तीन दशकों से (शुरुआत मरिच्‍झाँपी से गिनिए) सीने में धधकता ग़ुस्सा एक ऐसे मुकाम पर पहुँचता है जहाँ एकबारगी उस शासन से मुक्‍ति मिलने की उम्मीद दिखाई देती है, तब यह नहीं देखा जाता है कि कोई वामपँथी मसीहा आसपास तो नहीँ है जिसके कँधे पर सवार होकर इस दोज़ख से बाहर निकला जाए। तब जो भी मसीहा सामने होता है उसी की शरण ली जाती है। हम पर चाहे यह कितना ही नागवार ग़ुज़रे।
    याद रखने लायक बात है कि माकपा ने पिछले तीस सालों में कोई वामपँथी विकल्‍प बनने ही नहीं दिया। हर एक को साम्राज्यवादी दलाल कहकर लाँछित किया जैसा अरविँद के कॉमेंट में भी किया गया है। पिछले कई बरसों से पँचायत, छात्र संघ आदि के चुनावों मे विरोधियों को नामाँकन तक नहीँ भरने दिया जाता रहा है। सन् 2000 के बाद से तो अनगिनत नौजवानों को माओवादी कहकर दमन का शिकार बनाया जा रहा है। ऐसी सूरत में लाखों लाख नौजवान इस निज़ाम से नजात का कोई रास्ता तो ढूँढेँगे – ठीक वैसे ही जैसे ज़मीन छिनने की स्‍थिति मे किसान ढूँढ़ेगे।

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  14. अरविन्द: आपने बात ख़त्म मजाक से की, में शुरू कर रहा हूँ. अवाम वाम को दोस्त समझती थी, पर एक समय वाम ने अवाम का ईश्वर बनना चाहा। यहीं से दिक्कत शुरू हुई। :-)
    आप एक तरफ मान रहे हैं कि वाम रास्ता ‘भटक’ गया था, ‘बिगड़’ गया था और ‘नंदीग्राम में वाम सरकार नैतिक -राजनैतिक- प्रशासनिक सभी स्तरों पर हारी है.’ ‘वाम की मूल प्रकृति’ से भटका या बिगड़ा वाम को आप रास्ते पर कैसे लाना चाहेंगे?
    तब तक आप इसे जनता के सिर पर क्यों ठेलना चाहते हैं। जनता ने ‘अध्ययन कक्ष’ से बाहर बैठ कर जो किया है, उसे समझने की कोशिश क्यों न की जाए। भटके-बिगड़े वाम के पक्ष में भी यही है।
    वाम पार्टियों से मार खाई बंगाल की जनता को क्या वाम मोर्चे को फिर सिर पर बैठा लेना था? जब अब तक सीपीएम की (और जो सीपीएम में नहीं हैं, उन वाम समर्थकों तक की) ऐंठन नहीं जा पा रही है, तो फिर उसी को जनादेश देने का नतीजा क्या होता? जनता ने वाम को सोचने का, अपने भीतर झांकने का शानदार मौका दिया है, क्या वाम अपनी गलतियों को खुले रूप से मान कर अपनी नैतिक जमीन पाने की कोशिश में मुब्तिला होगा या असहमति को खारिज करने और गाली देने का वही पुराना अहंकार दिखाता रहेगा? वाम बुद्धिजीवी की कोई पक्षधरता मजदूर-किसान और अवाम के दूसरे हिस्सों के साथ भी होना चाहिए या महज पार्टी और उस पर कब्जा जमाए नेताओं पर।
    ऊपर आदित्य निगम ने ठीक ही लिखा है. ममता के कभी पहले भाजपा और अब कांग्रेस के साथ जाने की दुहाई हाल तक कांग्रेस को वाम समर्थन और तीसरे मोर्चे के नवीन पटनायक, नायडू, जयललिता के संदर्भ में अब महज हास्य और करूणा उपजाती है।
    क्या आप मानते हैं कि बंगाल की जनता ने इस बार दक्षिणपंथी एजेंडे पर वोट दिया है?
    आपका यह वाक्य व्यथित कर देता है कि ‘अगर सच्चर समिति ने सच्चाई नहीं बताई होती तो पश्चिम बंगाल के मुसलमानों को राज्य के सरकारी सच के बारे में बताने वाला कौन था?’ वाम के खिलाफ काम करने वाले एजेंटों की सूची में क्या सच्चर समिति का नाम भी होगा, क्या सच्चाई बताने वालों का भी नाम होगा? इसी तरह एनजीओ से अगर आपका आशय महाश्वेता देवी से है तो दुखद है।

    राजीव गोदारा: बंगाल में वाम रूझान के जमने के ऐतिहासिक कारण थे, पर यही बात पूरे देश के संदर्भ में नहीं कही जा सकती। आपने सही कहा कि देश में व्यापक वाम रुझान( जिसमें तीखे मतभेदों के बावजूद गांधीवादी, समाजवादी, नारी, दलित और आदिवासी मुद्दों पर काम करने वाले भी शामिल हैं) के कमजोर होने के कारण नवउदारवादी राजनीति केंद्र में काफी समय से हावी है। पिछली बार वाम समर्थन के बावजूद यूपीए सरकार नवउदारवादी ही मानी जाएगी। जिन नीतियों को वाम को हासिल करने का संतोष है उसमें सूचना अधिकार और वनाधिकार एक्ट तो उस क्षेत्र से शुरू हुआ था, जिसे वाम जब मन आए, एनजीओ की एक बड़ी गाली के तहत रख देता है। रोजगार गारंटी बंगाल के नहीं बल्कि महाराष्ट्र के अनुभव से निकली थी। इन प्रगतिशील और सामाजिक जनवादी कदमों के बावजूद अर्थतंत्र की नवउदारवादी दिशा कहां मुड़ी थी। नवउदारवाद के खिलाफ किसी बड़े जनआंदोलन की संभावना को स्वयं वाम पार्टियां खत्म करती गईं थीं। पिछले समय में ज्यादातर नवउदारवादी जनआंदोलन मुख्य धारा के वाम के बाहर क्यों हुए? पता नहीं अब भी वाम बुद्धदेव और पिनराई की बाधाओं को लांघते हुए नवउदारवाद के खिलाफ जा पाएगा या नहीं!!

    साधारण: वाकई, एक क्रांतिकारी वामपक्ष समय की जरूरत है। वक्त खुशियां मनाने का भले न हो, लेकिन नंदीग्राम और बंगाल की जनता को चुनाव नतीजों से मिली राहत और खुशी की गहरी पड़ताल करने का है। जब-जब जनता और वाम की पीड़ा और खुशी अलग-अलग होने लगें तो वाम को ठहर कर जनता के किसी साजिश का शिकार हो जाने जैसी बातों से मन न बहला कर अपनी और देखना चाहिए। कुछ ‘निराश’ होना चाहिए। सिर्फ अपनी चुनावी नाकामी पर नहीं, बल्कि अपने पतन पर पछताना चाहिए। तब जाकर शायद कोई विकल्प उभरे।

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  15. शुक्रिया आदित्य दा। सचमुच अद्भुत तर्क सामने आ रहे हैं। वाम आंदोलन में एक अरसा बिताने के बाद यह बहुत अजीब लगता है कि किस तरह नंदीग्राम की पीड़ा और जनता का गुस्सा कितने ही कामरेडों को छू तक नहीं पाता। उन्हें अपने पांवों के नीचे से तेजी से खिसकती जमीन नहीं दिखती। यह पार्टी संगठन के विचार की असफलता है या विचार के पार्टी संगठन की? यह पार्टी संगठन की नैतिकता की नाकामी है या नैतिकता के पार्टी संगठन की?? लगता है जो देश और दुनिया की राजनीति में किसी वाम विकल्प के बारे में सोचते हैं, उन्हें सबसे पहले वाम दलों की आत्मरति, अहंकार का सामना ही करना पड़ेगा। आप, अपूर्वा और दूसरे कई साथी काफी दिनों से इन सब बातों पर सक्रिय हैं। इस बहस का सबक भी यही है कि सोचविचार की इस जद्दोजहद से अब बचा नहीं जा सकता।

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  16. मु्क्तिबोध ने न जाने किस संदर्भ में लिखा होगा जिसे कॉमरडजन दोहराते नहीं थकते:
    ‘अब अभिव्‍यक्‍ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे
    तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब…’

    मुझे तो एक अरसे से ऐसा लगने लगा है कि शायद आज इन लाइनों का सबसे माकूल संदर्भ कॉमरेडों का मायालोक ही है। इन्हीं मठों और गढ़ों तो तोड़ने की सबसे ज्यादा ज़रूरत है, वरना आज ‘चिड़िया चुग गई खेत’ की जगह पर यही कहना होगा कि: ‘न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी’। आज के अखबार में तूफ़ानज़दा सुन्‍दरबन की कहानी पढ़ें तो पाएँगे अवाम का ग़ुस्सा मौके पाते ही कैसे हर तरफ़ फूट पड़ रहा है। हे मेरे अज़ीज़ कॉमरडजनों, यह किसी फोर्ड फाँडेशन की भड़काई आग नहीं है, न ही कोई साम्राज्यवादी साज़िश। यह आग तुम्हें निगलने पर उतारू है और तुम हो कि अब भी छलावे में जीए जा रहे हो। आखिरकार, आप के झूठ से कोई कभी छलावे में नहीं आता। यह जाल तो आप अपने और अपने मासूम ‘काडर’ के लिए बुनते हैं। आपने सुना ही होगा कि जनाब बिमान बसु ने कुछ अरसा पहले इल्‍ज़ाम लगाया था कि विकास रोकने के लिए विदेशों से पैसा आ रहा है। यह भी कहा गया था कि सिँगूर और नंदीग्राम मे ‘बाहरी’ तत्वों ने आग भड़का दी थी। अब क्या कहूँ, सत्ता की यह सिफ़त है कि वह अपने इर्द-गिर्द ऐसा जाल बुन डालती है कि आख़िरकार उसकी बरबादी अनिवर्य बन जाती है। पहले: “हम वहाँ हैं जहाँ हमें ख़ुद अपनी कुछ ख़बर नहीं आती” का आलम होता है और फिर: “सबकुछ लुटा के होश मे आए तो क्या किया”।

    ख़ैर नरेन्द्र कुमार की इस कविता का लुत्फ़ लीजीए:
    नंदीग्राम की कसम

    मैं लाल झंडे की कसम खाता हूं
    नंदीग्राम के बारे में मैं कोई बहस नहीं करुंगा
    क्योंकि कामरेडों ने नंदीग्राम पर बहस पर रोक लगा दी है।

    आज मैं मुक्तिबोध पर बहस करुंगा
    जिन्होंने लिखा था कि अभिव्यक्ति की रक्षा के लिए
    उठाने ही होंगे खतरे तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब

    आज मैं सफदर हाशमी की हत्या के बारे में बहस करुंगा
    जो मार दिये गये उस समय,
    जब वे बोल रहे थे साम्राज्य की शक्तियों के खिलाफ।

    आज मैं गुजरात के बारे में बहस करुंगा
    जहां राजसत्ता और हिंदूवादी गुंडों ने
    गोधरा के बहाने मचाया था कत्लेआम।

    आज मैं जालियांवाला बाग के बारे में बहस करुंगा
    जहाँ देश के लोग मारे गये थे विदेशी राजसत्ता की गोलियों से जब वे उनकी गुलामी स्वीकार करने से
    मना करने लगे थे।

    आज मैं भगत के बारे में बहस करुंगा
    जिन्होंने इन तमाम तरह की फासीवादी ताकतों के खिलाफ
    लड़ने का आह्वान किया था।

    लेकिन मैं नंदीग्राम के बारे में कोई बहस नहीं करुंगा
    क्योंकि नंदीग्राम में मैंने
    जालियांवाला बाग, गुजरात और सफदर की हत्या का दृश्य
    एक साथ देखा है।

    नंदीग्राम के बारे में बहस करना
    अब बेमानी है
    नंदीग्राम के बाद सिर्फ पक्ष चुनना बाकी है
    कि तुम किसकी तरफ से लड़ोगे।

    और मैंने अपना पक्ष चुन लिया है।
    इसलिए नंदीग्राम के बारे में मैं कोई बहस नहीं करुंगा।

    और भी कई ऐसी कविताएँ इधर पढ़ें

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  17. “आपका यह वाक्य व्यथित कर देता है कि ‘अगर सच्चर समिति ने सच्चाई नहीं बताई होती तो पश्चिम बंगाल के मुसलमानों को राज्य के सरकारी सच के बारे में बताने वाला कौन था?’ वाम के खिलाफ काम करने वाले एजेंटों की सूची में क्या सच्चर समिति का नाम भी होगा, क्या सच्चाई बताने वालों का भी नाम होगा? इसी तरह एनजीओ से अगर आपका आशय महाश्वेता देवी से है तो दुखद है।”

    ईश्वरः …आपकी व्यथा का तो मैं कुछ नहीं कर सकता। पता नहीं माकपा अब भी यह स्वीकार करने को तैयार है या नहीं कि उसकी दशा क्यों हुई। लेकिन आपका (या आपलोगों का) का रवैया मुझे उससे कुछ कम नहीं लगता। मैं दोबारा कहता हूं कि “अगर सच्चर समिति ने सच्चाई नहीं बताई होती को पश्चिम बंगाल के मुसलमानों को राज्य के सरकारी सच के बारे में बताने वाला कौन था?” वाम के खिलाफ अभियान चलाने वाले वामपंथी बुद्धि जीवी इतने साल क्या दुर्दशा को देख कर केवल व्यथित होते रहे, लेख लिखते रहे। सच्चर समिति तो हाल की बात है (जिसका इन चुनाव में क्या असर पड़ा, यह बताने की जरूरत नहीं है।), क्या वाम बुद्धिजीवी खुद को “ईश्वर” समझ बैठे वाम के बरक्स ममता जैसी किसी दूसरी “ईश्वर” या “अवतार” का इंतजार करते रहे। सच्चर समिति ने तो बताया कि वाम का नाम ओढ़े लोगों की सच्चाई क्या है और वह वाम के खिलाफ काम करने वाली एजेंट नहीं थी, लेकिन उस पर कूदने वाले लोग क्या अपनी सीमा समझ रहे हैं।
    जहां तक महाश्वेता देवी और एनजीओ की बात पर दुखी होने का सवाल है, तो ममता-चालीसा गाती हुई और ममता के प्रति चारण हो जाने की हद तक चली गई महाश्वेता के बारे में इतना दुखी होने से ज्यादा अच्छा है कि मेरी बात पर गौर नहीं कर सिर्फ उनका लिखा ही पढ़ लिया जाए। वे वही हजार चौरासीवें की मां हैं, जिन्हें आज ममता का “हवाई चप्पल” लुभाने लगा है। एक साक्षात्कार में किशन जी की कुछ तल्ख स्वीकारोक्तियों के बावजूद।
    एक और सवाल फिर दोहराता हूं जो मेरे एक दोस्त ने मुझसे किया था, जिससे मैं बार-बार मुंह चुराता फिरता हूं। उसने कहा कि सामाजिक न्याय महज पांच-छह साल पहले वाम के लिए कोई मुद्दा बना है। और वाम बुद्धिजीवियों के माकपा या वाममोर्चे से किसी भी “कारण” से मुंह मोड़ने का भी यही दौर है। इसके क्या कारण हो सकते हैं?

    दरअसल, हम सब लोग वही हैं जो खुद वातानुकूलित कमरों में बैठ कर बाजार का लुत्फ उठाते हुए भी वातानुकूलित कमरों में बैठे बाजार के वाहक बन चुके वाम को गरिया कर सुख प्राप्त करते हैं। हम बहुत ईमानदार हो सकते हैं, अगर मोबाइल या कंप्यूटर जैसे बाजारू चीजों को त्याग कर जंगल में जाकर काम करें!

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  18. माफ कीजिएगा, एक और बात। वहां एक स्थापित पार्टी से बाहर होकर ममता ने अकेले अपना सफर शुरू किया था और आज यहां तक पहुंच चुकी हैं।
    वाम से व्यथित होने वाले वाम बुद्धिजीवी क्या अपने सामने “लड़ते” ममता से भी नहीं सीख सकते थे?

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  19. क्या समझे ईश्वर भाई! हम न कहते थे, इसलाम में इज्तहाद हो या नहीं मैं नहीं कह सकता, मगर एक बात तय है: मार्क्सवाद में कोई इज्तहाद मुमकिन नहीं हैं।
    तुम नाहक़ टुकड़े चुन चुन कर दामन में छुपाए जाते हो
    यहाँ शीशों का मसीहा कोई नहीं/ क्या आस लगाए बैठे हो?

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  20. sawal cpi(m) ka nahi . tees saal sarkar mein rehkar jab janta ke liye kuch nahi kiya to jaana to hoga hi. jis raah par jallandhar ke baad se woh log chal rahe the uska yahi hashr hona tha. lekin ab kya .hamney kya banaya. bengal mein to woh rok rahey they mulk ke baaki hisson me hum kaha hein. baaki mamta ho ya lalu garib rath to chal hi raha hey ya to is mein sawar ho jaaye aur waqtan fawaqtan shor machatey rahey ya phir cpm ka rona rotey rahey ,unhoney bahut nuksan kiya.

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  21. ईश्वर और आदित्य ने जो प्रश्न खड़े किए हैं, वे जरूरी हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां दबी जुबान कह रही हैं कि स्थितियों के विश्लेषण में चूक हुई। प्रश्न यह है कि आखिर हर बार ऐसी चूक क्यों होती है और हो जाने के बाद ही क्यों समझ पड़ती है? कोई दूसरी पार्टी विज्ञानसम्मत होने का वैसा दावा नहीं करतीं, जैसा कि कम्युनिस्ट पार्टियों में है। अगर अब भी कुछ सोचना चाहें तो शुरूआत वैचारिक फ्रेमवर्क से करनी होगी। हालांकि समस्या यह है कि जिस फ्रेमवर्क के बारे में जांच करनी है, वही फ्रेमवर्क दिमागों पर हावी है। वही किसी ईमानदार जांच-पड़ताल में रोड़ा अटका देता है। मार्क्सवाद के नाम पर पार्टियों के भीतर जो कुछ प्रचलित है, उसका कितना संबंध मार्क्स से रह गया है? मार्क्स में जो कुछ जोड़ना होगा, उसे पोलिट ब्यूरो ही क्यों पारित करेगा? आज की बदलती दुनिया को समझने में पार्टीयों का मार्क्सवाद लेनिनवाद कितनी मदद कर पाता है? मार्क्सवाद के नाम पर पकाई जा रही खिचड़ी की जांच होनी चाहिए। वामपंथ की नाकामी का कोई भी ईमानदार विश्लेशण सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के कथित समाजवाद के पतन की वजहों को समझने से ही शुरू हो सकता है। अफसोस यह है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों में इसके लिए किसी तरह का मंथन शुरू ही नहीं हो सका। सोवियत विघटन के बाद के दार्शनिक प्रश्नों से बचा जाता है। पार्टी में ब्यूरोक्रेटिक सेटअप जब तक रहेगा, विश्लेषण या मंथन की कोई संभावना नहीं दिखती। धर्मों और कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच आस्था की मानसिक संरचनाओं पर बहुत सी समानताएं दिख सकती हैं। सोवियत संघ के अनुभव पर काम पार्टियों के बाहर के वाम हिस्से में भी नहीं दिखाई देता।

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  22. excelent analysis”wam ke khilaf awam”.I still remember a portrait of praveen atluri showing Marx throwing Stones over communist party`s office for derailment from spirit of communism.

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  23. अवाम तो वाम की तरफ़ झुक रहा है लेकिन वाम ही खुद आपने खिलाफ मालूम पड़ता है.आतम्मन्थन का जो हाल नज़र आ रहा है उस से कोई उमीद नज़र नहीं आती.अब बर्धन साहिब को माकपा के खिलाफ़ बोलने का सही अवसर नज़र आया है.मार्क्स के दुश्मनो की लंबी कतार नज़र आती है.बेदारी के इजाफे से क्या मार्क्स को सही तौर पर जानने वाले कम हो गये हैं?आखर कहाँ है वो लोग जो इन सन्कीरन दलों ने धकेल दिये .लगता है बो आपनी होंद ब्चाने के लिए काँग्रेस के साथ जा चुके हैं.वाम दलों का काडर आज गहिन निरासा के आलम मे डूबा नज़र आ रहा है. ऊपर से पूरण दिशाहीनता की गर्दिश में निरंतर भटकन.ईमानदारी की राजनीती का सब से बढ़ा दस्ता वाम संकीरणता की भेंट चढ़ चुका है.मुझे लगता है वाम को अब,सथानीय हालात के हिसाब आपनी परसांगिकता के लिए खुले नज़रीय से एन जी ओ नुमा संगठन बनाने होंगे.

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  24. Eishwar Dost ka vam ko Kosna Usme bhee CPM ko Kosna artcle pad kar kal ke Vam ke sahanubhutisheel Buddhijivi khush ho rahe hain, Sabse jyada khush ho raha hai America, shhayad Dost ko koi award bhi dila de, Manmohan ke nawudarwadi chamche, par Ishawar ne baat itani satahi kee hai, isase vam panthi aandolan ka koi bhala nahi hone wala hai, Lok sabha chunao me haar se kahi pahale vaam panthi vichardhara ko ham apni maxism kee padhai aur andolan dwara disha nahi de paya, Ishwar ke saath AISF me maine bhi kaam kiya hai ve ise sweekar karenge, CPI CPM ke party programme ko phir se likhne kee jarurat hai, phir se maxism ke prati apki asthea kai ya nahi commit karne kee zarurat hai, Koi fark nahi padta ke Bengal, Keral me Left ka shashan rahe ya nahi, fark s baat se padta hai ke vam ne congress kee sarkar ko samarthan kyo diya , Somnath chatterjee ab tak kyo bolte hain ke jyoti basu ko PM banane n dena aitihasik bhool thee, Kyo Indrajeet gupta ne home minister banaa seekar kiya ? Bharat ke varg sandharsha ko samjhe bina age kee sochna ……….Ishwar ka article bahuthee satahi alochana hai . Vam kee haar ka n to singur se rishta hai aur n to Mamata keVampanthi tewar se. Ye to acchha hua ke Vam haar gai, varna ham sab buddhijivi phuunch dum me dabaye AC me so rahe the, aur ab iswar ke nam per kuchh stimulate ho rahe han.

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