नक्सलवाद के ख़िलाफ़ अभियान कि नाम पर

नक्सलवादियों के खिलाफ केंद्र का अभियान शुरू हो गया है. जनमत को अपने इस हिंसक अभियान के पक्ष में करने के लिए केंद्र ने अखबारों में पूरे पृष्ठ के विज्ञापन दिए  जिनमें ‘माओवादियों’ या ‘नक्सलवादियों’ के हाथों मारे गए लोगों की तसवीरें थीं. इनसे शायद यह साबित करने की कोशिश की गयी थी कि माओवादी हत्यारे  हैं, इसलिए उनके विरुद्ध चलने वाले अभियान में अगर राज्य की तरफ से हत्याएं होती हैं तो उन पर ऐतराज नहीं किया जाना चाहिए. इस विज्ञापन के फौरन बाद छतीसगढ़ में राज्य की कारवाई में साथ माओवादियों के मारे जाने का दावा किया गया.  छत्तीसगढ़ के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इसके प्रमाण पेश कर दिए कि मारे गए लोग  साधारण आदिवासी थे ,न कि माओवादी,  जैसा पुलिस का दावा था. केन्द्रीय गृहमंत्री ने इसी के आस-पास छत्तीसगढ़  में यह कहा कि माओवादियों के विरुद्ध राजकीय अभियान में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को रास्ते में नहीं आने दिया जाएगा. वे यह कहने की कोशिश कर रहे थे कि माओवादियों के खिलाफ चल रही जंग में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने अड़ंगा डाला है, अब यह बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. इस नए संकल्प पर हंसा भी नहीं जाता. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की अगर इतनी ताकत होती तो बिनायक सेन को दो साल तक जेल में न रहना पड़ता.

छत्तीसगढ़ जैसी जगह में मानवाधिकार की बात करना अपनी जान को जोखिम में डालना है , यह हिमांशु से पूछिए जिनके बीस साल पुराने आश्रम को गैर-कानूनी तरीके से बुलडोजर लगा कर ढाह दिया गया.हिमांशु कोई  माओवादी नहीं हैं, बल्कि वे तो माओवादियों के गुस्से के निशाने पर भी रहे हैं. फिर भी हिमांशु का न्याय-बोध डगमगाया नहीं और उन्होंने छत्तीससगढ़ में पुलिस और सलवा-जुडूम की कार्रवाई के बारे में हमेशा सच बताने की अपनी जिद बनाए रखी. हिमांशु इस धारणा के खिलाफ हैं कि छत्तीसगढ़ में सिर्फ दो पक्ष हैं, एक राज्य का और दूसरा माओवादियों का . वे वहां के आदिवासियों के अपने गावों में रहने , अपने जमीन पर खेती करने के हक की हिफाजत की लडाई में उनके साथ हैं. क्या यह सच नहीं और क्या इस पर बात नहीं की जानी चाहिए कि सलवा जुडूम   के दौरान गाँव  के गाँव जला दिए गए और आदिवासियों को मजबूर किया गया कि वे सरकारी शिविरों में रहें !क्या यह सवाल राज्य से नहीं पूछा जाना चाहिए कि तकरीबन साधे छः सौ गाँवों से विस्थापित कर दिए  गए दो लाख से ऊपर आदिवासी कहाँ लापता हो गए क्योंकि वे शिविरों में तो नहीं हैं! अगर शिविरों में अमानवीय परिस्थियों में रहने को मजबूर पचास हजार आदिवासियों के अलावा बाकी की खोज करें तो क्या इस पर बात न की जाए कि क्या वे बगल के आंध्रप्रदेश में विस्थापितों का जीवन जी रहे हैं और जो वहां नहीं भाग पाए वे छत्तीसगढ़ के जंगलों में छिपे हुए हैं। जंगलों मे छिपे,या बेहतर हो हम कहें कि जंगलों में फंसे आदिवासी क्या माओवादियों की सेना के सदस्य मान लिए गए हैं!
क्या यह सच नहीं है कि इनमें से अनेक बार-बार अपने गांव लौटने की कोशिश करते रहे हैं? क्या यह सच नहीं कि उनके जिन खेतों को सलवाजुडूम ने बार-बार जला दिया वे उन्हें फिर से हरा करने की कोशिश करते रहे हैं? और क्या यह भी सच नहीं कि राज्य की ओर से आदिवासियों को एक ही विकल्प दिया गया है कि वे सलवा-जुडूम के प्रति अपनी वफादारी बताएं ? ऐसा न करनेवाले आदिवासी अपने आप ही माओवादी मान लिए जाते हैं। इसके बाद किसी भी पुलिस कार्रवाई में मारे गए आदिवासियों को माओवादी कहना आसान हो जाता है। हममे से किसी का अंतःकरण इन हत्याओं पर कांपता हो इसके प्रमाण नहीं हैं। क्या हमें याद नहीं करना चाहिए कि दो साल से भी पहले अपनी जमीन पर अपने हक के लिए शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन कर रहे कलिंगनगर के आदिवासियों पर गोली चलायी गयी थी और बारह आदिवासी मार डाले गए थे? क्या हमें यह याद है कि मारे गए इन आदिवासियों की हथेलियां काट ली गयी थीं और ऐसा करनेवाले डॉक्टरों को इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगा था? सिर्फ उन्हें ही नहीं उड़ीसा भर के डॉक्टरों को भी अपने समुदाय के इन सदस्यों से सहानुभूति ही थी क्योंकि वे तो मात्र राज्य के आदेश का पालन कर रहे थे। समाज के सबसे अधिक पढ़े-लिखे तबके कितनी आसानी से राज्य के आगे आत्मसमर्पण कर देते हैं और अपने विवेक को स्थगित कर देते हैं! इसके कितने ही सबूत हैं ! सबसे ताजा सबूत तो कश्मीर के शोपियां में दो लड़कियों के कत्ल के मामले में पुलिस औऱ डॉक्टरों की भूमिका का है जो झूठ बोलते हुए पाए गए हैं। और गुजरात की बात कितनी बार करें जहां राजकीय झूठ को पूरे समाज ने आत्मसात कर लिया है और जिसे नरेन्द्र मोदी को अपना नायक बनाते जरा भी हिचक नहीं होती! अगर वह जमात हमारे मुल्क में न होती जिसे मानवाधिकार कार्यकर्ता के नाम से हम जानते हैं तो क्या कभी भी हम यह जान पाते कि राज्य और पुलिस की ओर से हमें जो बताया जाता रहा है वह झूठ है? राजस्थान,दिल्ली, महाराष्ट्र ,गुजरात, झारखंड,उड़ीसा,बंगाल,छत्तीसगढ़,कर्नाटक आदि में इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की जुनूनी जिद के चलते ही न्यायपालिका को हिलना पड़ा है और राज्य को बार-बार यह कबूल करने पर मजबूर होना पड़ा है कि वह अपने ही नागरिकों से झूठ बोलता रहा है।

जब देश का गृहमंत्री मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के विरुद्ध वक्तव्य देता है तो दरअसल वह पुलिस को यह संदेश दे रहा होता है कि वह इनके विरुद्ध भी जंग छेड़ सकती है। ‘नक्सलवादियों’ या ‘माओवादियों’ के विरुद्ध राजकीय अभियान की योजना में समाज में इनके समर्थन के आधार को नष्ट कर देना शामिल है। समझ यह है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता बदले हुए भेस में माओवादी ही हैं। इससे गलत और खतरनाक समझ कुछ और नहीं हो सकती। जिस समय सरकारें बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी के हितार्थ गरीब जनता के पारंपरिक संसाधनों को अर्पित करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपना रही हो और जिस समय पढ़े-लिखे मध्यवर्ग को आत्मोत्थान के आगे कुछ और न सूझ रहा हो, उस समय प्रायः इसी मध्यवर्ग से निकले कुछ सिरफिरे लोगों का मूल्य कितना है जो विराट राजकीय असत्य के सामने मात्र अपने अंतःकरण की शक्ति के सहारे खड़े रहते हैं।अगर हम इनकी कीमत न पहचानें तो समाज के अंतःकरण को ही खो बैठेंगे। ‘माओवादी’ या ‘नक्सलवादी’ विरोधी अभियान में राज्य हमसे इस अंतःकरण की बलि चाहता है। क्या हम सब खामोश रहेंगे?

3 thoughts on “नक्सलवाद के ख़िलाफ़ अभियान कि नाम पर”

  1. Hi apoorv
    Indian state is definitely a class instrument seen in this context but I think this kind of hegemony derives its strength from the politics of exclusivity that has much larger dimension than even class. I think that right to life (in presence of death) becomes a very plastic kind of right which can be moulded into any kind of ideology. You can be a maoist inside the capitalist side and vice-versa too. There are certain modernist archetypes which are responsible for this violence where victims can be dalits, kashmiris, women, naxalites or even silent valleys of Narmada. I think that putting naxal question into a class dimension may be strategically correct but philosophically not appropriate.

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  2. A question to Kafila editors: will any article in any of the non-Hindi vernacular languages be published in Kafila?

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  3. By the way, miao, there are no editors in Kafila – only team members. And from the very start we all know that we are in principle a multilingual blog – that has been our ambition. We started off with only English and now we have a little Hindi and inshallah, one day we will really be multilingual and our contributors will be writing in any Indian language they please.

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