बीच का रास्ता नहीं होता, कॉमरेड!: ईश्वर दोस्त

This is a guest post by ISHWAR DOST

ध्रुवीकरण की खासियत यह होती है कि वह बीच की जगह तेजी से खत्म करता जाता है। चाहे वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो या अस्मिता पर आधारित या किसी और मुद्दे पर। राज्य की दमनकारी हिंसा बनाम माओवादी हिंसा एक ऐसा ही ध्रुवीकरण है। इस सरलीकरण में छिपी राजनीति पर सवाल उठाना जरूरी हो गया है। युद्ध की भाषा बोलती और बंदूक को महिमामंडित करती इस राजनीति के निशाने पर क्या जनसंघर्षों की लोकतांत्रिक जगह नहीं है? माओवादियों के सबसे बड़े दल पीडब्ल्यूजी के नाम के साथ ही जनयुद्ध शब्द लगा हुआ है। छत्तीसगढ़ सरकार ने एक सरकारी जनयुद्ध को सलवा जुडूम के नाम से प्रायोजित किया हुआ है। केंद्र सरकार ने पहली बार माओवाद के खिलाफ युद्ध की शब्दावली का इस्तेमाल किया है, फिर उस पर सफाई भी दी है। अगर माओवाद लोकतंत्र के प्रति अपनी नफरत नहीं छिपाता तो उत्तर-पूर्व से लेकर गरीब आदिवासी इलाकों तक कई सरकारें भी राजनीतिक-सामाजिक गुत्थियों को महज सुरक्षा के सवाल में तब्दील कर बंदूक की नली पर टंगे विशेष सुरक्षा कानूनों के जरिए सुलझाना चाहती हैं।

अन्याय के खिलाफ जनलामबंदी, संघर्ष और प्रतिरोध की सुदीर्घ परंपरा को युद्ध के अतिरेक में ढांपने की कोशिश की जा रही है। युद्ध सीधा सवाल करता है कि तय करो किस ओर हो तुम? यह सवाल एक-दूसरे से युद्ध करता या उसके लिए पर तौलता कोई भी पक्ष किसी से भी पूछ सकता है।
जो लोग दोनों पक्षों से असहमत या किसी से कम किसी से ज्यादा असहमत होना चाहते हैं, वे स्वयं को दो पाटों के बीच पाते हैं। हरिशंकर परसाई ने लिखा था कि आज के जमाने में दोस्ती के लिए दिल मिलना जरूरी नहीं, दुश्मन का दुश्मन दोस्त हो जाता है। आज परसाई होते तो एक और नजारा देखते। जो हमारे साथ नहीं है वह दुश्मनों के साथ है! सरकारें घोषणा करती हैं कि जो आदिवासियों पर सलवा जुडूम जैसे अर्द्ध-कानूनी गिरोहों के दमन का विरोध करते हैं, वे माओवाद के हमदर्द हैं। माओवादी फरमाते हैं कि जो उनके साथ नहीं हैं वे बुर्जुआ वर्ग के दलाल, वर्ग-शत्रु और घृणित उदारवादी हैं। अहिंसा, मानवता, उदारता, सहिष्णुता जैसे शब्द सुन माओवादी को हंसी आ सकती है। इन्हें बोलने वालों को वह मूर्ख या सत्ता का एजेंट या दोनों एक साथ मान सकता है।

‘बीच का रास्ता नहीं होता’! यह किसी क्रांतिकारी कविता का पोस्टर भर नहीं है। यही बात पूरे आत्मविश्वास से अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश कह रहे थे। यह पंक्ति रोमांचित करती है और दुस्साहस के लिए तैयार करती है। इस पंक्ति पर बुश और अतिवाम विचार, दोनों मोहित हैं। क्योंकि यह पंक्ति सरलीकरण भी करती है, जो नवउदारवाद और माओवाद दोनों की राजनीतिक परियोजना के माफिक है। यह उसी तरह की अंतर्निर्भरता है, जो एक-दूसरे से टकराती दो कट्टरताओं में एक-दूसरे के लिए होती है। माओवाद को फैलने के लिए एक निरंकुश राजसत्ता चाहिए। राजसत्ताओं को नागरिक अधिकारों के अपहरण के लिए, जनविरोधी कानून बनाने के लिए माओवाद जैसे दुश्मन चाहिए। एक दमनकारी सरकार माओवाद की हिंसा को आकर्षक बनाती है। एक हिंसक छापामार युद्ध राजसत्ता की हिंसा की वैधता बन जाता है। एक के पास संविधान की मनचाही व्याख्या और औपनिवेशिक कानूनों की विरासत है तो दूसरे के पास समाजवाद के उस अधिनायकवादी और सर्वसत्तावादी संस्करण की फंतासी है, जो चीन में सचमुच में नवउदारवाद में ही तब्दील हो गया है।

कांग्रेस और भाजपा में से किसका पक्ष लेंगे? इस प्रश्न पर वामपंथियों का काफी समय और ऊर्जा जाती है। जो दोनों को ही नहीं चुनना चाहते, वे क्या करें? जो वाम दलों का समर्थन करते हुए भी उनकी आलोचना करते रहना चाहते हैं, वे क्या करें? जो आदिवासियों के प्रति हो रहे अन्याय और माओवाद, दोनों के विरोध में हैं, वे क्या करें?  ऐसे लोगों के लिए भी कोई राजनीतिक वक्त ऐसा आ सकता है जब दो बड़े पक्षों में से किसी एक के खिलाफ ज्यादा बोलना पड़े। आपातकाल में इंदिरा गांधी की तानाशाही का विरोध करते हुए समाजवादियों के एक हिस्से ने संघ वालों को अपने साथ खड़ा होने दिया। राजीव गांधी के खिलाफ आंदोलन करते हुए वाम ने इस बात को नजरअंदाज कर दिया कि भाजपा भी इसी मुद्दे पर आंदोलन कर रही है। बाबरी मस्जिद गिरने या गुजरात दंगों के बाद उन सेकुलरवादियों को भी कांग्रेस से राहत मिली जो उसे सख्त नापसंद करते थे।

इसी तरह जब केंद्र सरकार ने आदिवासी इलाकों में माओवादियों के खिलाफ युद्ध करने की घोषणा की तो आदिवासी प्रश्न पर सोचने वालों के लिए यह साफ था कि इससे छापामारों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा, मगर आदिवासी इलाके तबाह हो जाएंगे। आंकड़े बताते हैं कि सलवा जुडूम के बाद से माओवादियों की ताकत और हिंसा बस्तर में कई गुना बढ़ गई है। कई हजार आदिवासी शिविरों में ले आए गए। कई हजार डर कर और बच कर पड़ोसी राज्यों की तरफ भाग खड़े हुए। कई हजार माओवादियों के तर्क या बंदूक के असर में आ गए या ले आए गए।
जिन लोगों ने सरकार के युद्ध के एलान का पुरजोर विरोध किया उनमें कई गांधीवादी, समाजवादी, सर्वोदयवादी हैं। ये देख चुके हैं कि कैसे उत्तर पूर्व में सेना की कार्रवाई और आतंकवाद एक दुश्चक्र बन चुका है। युद्ध के विरोध में भाकपा जैसे वे दल भी हैं जो माओवादियों का निशाना रहे हैं। जो किसी जंगल में कभी सिर्फ इसी कारण माओवादियों की गोली का शिकार हो सकते हैं कि वे भाकपा जैसी ‘संशोधनवादी’   कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं।
हाल में गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि हमने कभी युद्ध की बात नहीं की, यह मीडिया की उपज थी। उनका यह स्पष्टीकरण नागरिक समाज के दबाव का नतीजा है या झारखंड में आसन्न चुनावों की मजबूरी का? यह चिदंबरम की सदाशयता है या अधूरे बंगाल मिशन के चलते तृणमूल कांग्रेस का दबाव? इसका पता चलना फिलहाल मुश्किल है। तब तक बुद्धिजीवी चाहें तो खुशफहमी में रह सकते हैं।
सरकार के युद्ध-एलान के विरोध के दौरान ही कथित ‘जनयुद्ध’ के पक्ष में मिथक गढ़ने की कोशिश भी हुई। कहा गया आदिवासियों ने बंदूक उठा ली है। यह नहीं पूछा गया कि तो क्या आंध्र के आदिवासियों ने बंदूकें रख दी हैं। आदिवासियों के साथ हुआ अन्याय और पीडब्ल्यूजी की हिंसा आधारित राजनीतिक विचारधारा दो अलग बातें हैं। माओवादियों के कब्जे और दखल का जितना इलाका है, उससे कहीं ज्यादा बड़े इलाके में आदिवासियों के लोकतांत्रिक आंदोलन चल रहे हैं, जो न सिर्फ उनके शोषण और दमन बल्कि विरोध के हिंसावादी रास्ते के भी खिलाफ हैं, जिन्होंने कई बार बहादुरी से सरकारी गोलीबारी झेली है, जिन्होंने कई बार राजसत्ता की बंदूक को जन आंदोलन की ताकत से झुकाया है।

जो लोग ‘चिदंबरम के युद्ध’ का या किसी ऑपरेशन ग्रीनहंट का विरोध कर रहे हैं और एकदम सही विरोध कर रहे हैं, वे ऐसा राजसत्ता की गोद में बैठ कर तो शायद नहीं कर रहे होंगे! वे किसी युद्धक्षेत्र में नहीं, बल्कि लोकतंत्र की उसी जगह पर बैठ कर विरोध कर रहे हैं, जो जनता ने अनवरत संघर्षों के बाद हासिल की है, जिसकी आजादी के बाद से लगातार हिफाजत की है और जो व्यवस्था परिवर्तन के उनके संघर्ष की बुनियाद है।
लोकतंत्र और असहमति की जगह जितनी आज है उससे बड़ी होनी चाहिए। यह है कानून का रस्सा तुड़ा कर भागती राजकीय हिंसा और न्याय के नाम पर की जा रही दुस्साहसवादी हिंसा के बीच की जगह। दोनों तरह की हिंसाएं जनवाद, न्याय, शांति जैसे मूल्यों को उनसे जुड़ी विडंबनाओं का हवाला देकर अपने अस्त्रागार में शामिल करती चलती हैं। जिस तरह आदिवासियों ने भारतीय राजसत्ता के बांध, खदान, कारखाने और अभयारण्य के लिए ‘जरूरी’ विस्थापन वाले उस विकास को नहीं चुना, जो निरंतर उनकी जमीन और जंगलों पर कब्जा करता गया, उसी तरह उन्होंने माओवादियों और उनकी बंदूक को नहीं चुना। क्या बंदूक चुनने का मौका देती है?
केंद्र सरकार कहती है कि माओवादी न हों तो आदिवासियों का विकास कर दें। ऐसा है, तो पहले बुंदेलखंड में और तमाम शहरों की गंदी बस्तियों में क्यों नहीं विकास कर देते? सरकार कहती है कि हम जमीन, जंगल के सवाल पर माओवादियों से बात करने को तैयार हैं। सरकार को आज बस्तर में सरकार के खिलाफ निहत्थे खड़े मनीष कुंजाम और रामनाथ सरफे से, ओडीशा, नर्मदा घाटी, विदर्भ के शांतिपूर्ण जन आंदोलनों से बात करने से किसने रोका है? चंबल में रह रहे और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भुखमरी का सामना कर रहे सहरिया आदिवासियों के साथ क्या तब बात करेंगे जब कोई जागरूक डकैत उनके मुद्दे को उठाएगा? सरकार आज तक मेधा पाटकर, बीडी शर्मा, सुनील या बिजय भाई से आदिवासियों की स्थिति की समझ क्यों नहीं ले पाई। क्या बातचीत की मेज तक एकमात्र रास्ता हथियारों से होकर जाता है?
बंगाल में माओवादियों के हाथों मरते माकपा के कार्यकर्ता मानव अधिकार के विमर्श से बाहर हैं। उनके परिवारों के आर्तनाद मीडिया से, ‘क्रांतिकारी’ बहसों से बाहर हैं। उनकी चीखें ‘बुद्धि’-जीवियों के हृदय को नहीं जगातीं। वे बंगाल के सत्ता परिवर्तन की जरूरी कीमत चुकाने के लिए पैदा हुए थे। वे एक हारती हुई, पिटती हुई पार्टी के सदस्य हैं। यह सही है कि माकपा अपनी नवउदारवादी फिसलन के चलते बंगाल में लगातार चुनाव हार रही है। मगर क्या किसी हारती हुई पार्टी के कार्यकर्ताओं को इस तरह खत्म किया जाना चाहिए? लोकतंत्र में कौन नहीं हारता? और हाशिए के आंदोलन तो चुनावी राजनीति में जगह ही नहीं बना पाते।
बंगाल में कार्यकर्ता कांग्रेस या तृणमूल के नहीं, माकपा के मारे जा रहे हैं। पर चिदंबरम उलटे माकपा पर बरसते हैं। अजीब नजारा है। माओवादी ममता के बाएं बाजू खड़े हैं। मनमोहन और चिदंबरम दाएं बाजू खड़े हैं। मीडिया लगातार बेचैनी के साथ पुलिस की बंदूक और माओवादी के कंधे पर टंगी बंदूक के बीच पैन शॉट निकाल रहा है। अतिरेक बिकता है। भाकपा, नर्मदा बचाओ आंदोलन, आदिवासी मुक्ति मोर्चा, समाजवादी जनपरिषद, माले (दीपंकर) आदि के पक्षों से टीआरपी नहीं बनेगी।
बुर्जुआ लोकतंत्र को ठीक करने के दो तरीके हो सकते हैं। एक तो यह कि इसे ज्यादा जनवादी और पुख्ता बनाया जाए। दूसरा यह कि इसे खत्म कर, इस पर कब्जा कर तानाशाही के रास्ते पर जाया जाए, जो रास्ता अनवरत कुर्बानियों को किसी सेना या किसी गुट के हवाले कर देता है। मगर समाजवादी लोकतंत्र का रास्ता कहां है? इक्कीसवीं सदी के समाजवाद का यह प्रश्न मुंह बाए खड़ा है, जिसका मुकाबला वाम विचार को करना है। माकपा को यह सोचना होगा कि वह स्तालिनवादी तानाशाही के खिलाफ नहीं बोलेगी तो माओवाद से विचारधारा का संघर्ष कैसे कर पाएगी? जैसे स्टालिन ने समाजवाद के लिए हजारों ‘संदिग्ध’ कम्युनिस्टों को मरवा दिया, माओवादी क्या ठीक वैसे ही संशोधनवादी माकपा कार्यकर्ता को मरवा रहे हैं? वाम मोर्चे के दल समाजवादी लोकतंत्र के सवाल को रणनीति के सवाल के रूप में छोड़ नहीं सकते। उन्हें ‘समाजवाद में मानवाधिकार’ को लेकर अपना रुख साफ करना होगा। वरना उनके लिए भी ‘बुर्जुआ’ मानवाधिकार रणनीति का एक औजार मात्र रहेगा, जिस वैचारिक स्थिति के चलते बहुत से मानवाधिकारवादी माकपा के मरते लोगों से मुंह फेर लेते हैं।

4 thoughts on “बीच का रास्ता नहीं होता, कॉमरेड!: ईश्वर दोस्त”

  1. रास्ते बदलने से
    गिरने से, संभलने से
    बचके निकलने से
    होता है कुछ कहाँ
    रास्ते आते हैं जहाँ से
    जाते हैं वहाँ

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  2. प्यारे दोस्त,आप की कमेंट्री बहुत भाव्पुर्त और समय की जरूरत के मुआफ़्क हैं.मैं इसे पंजाबी में उपलभ्ध कराऊंगा.

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  3. When nationalism died, they resurrected its corpse. When ideology died, they resurrected its syntax. When community died, they replaced it with a facade of togetherness. Now, they ask whom to die for? Dear Ishwar bhai, itni dukhti rag par haath rakha hai ki rone ko jee karta hai?

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