जनसत्ता के 23 सितम्बर, 2012 के अंक में प्रकाशित कुलदीप कुमार के स्तंभ “निनाद” को हम थोड़े संशोधन के साथ छाप रहे हैं.
दक्षिण अफ्रीका के जोहान्स्बर्ग शहर में विश्व हिन्दी सम्मेलन हो रहा है। पहला सम्मेलन 1975 में नागपुर में हुआ था जिसमें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की ओर से एक प्रतिनिधिमंडल शामिल हुआ था। मैं उन दिनों विश्वविद्यालय की साहित्य सभा का सचिव था और पंकज सिंह उसके अध्यक्ष थे। कवि मनमोहन भी प्रतिनिधिमंडल में शामिल थे। तब तक इमरजेंसी नहीं लगी थी। अगर मेरी स्मृति धोखा नहीं दे रही तो वह जनवरी का महीना था। देश में जेपी आंदोलन ज़ोरों पर था और प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ख़ासी अलोकप्रिय हो चुकी थीं। हम इस सम्मेलन को तमाशा समझते थे और उसका विरोध करने ही नागपुर पहुंचे थे। दिल्ली से ही एक बयान साइक्लोस्टाइल कराके ले गए थे। जैसे ही इन्दिरा गांधी ने अपना उदघाटन भाषण देना शुरू किया, हम सबने उठकर विरोध में नारे लगाने शुरू कर दिये और उपस्थित प्रतिनिधियों के बीच विरोध-वक्तव्य की प्रतियाँ बांटने लगे। सुबह-सुबह कुछ प्रतिनिधियों के कमरों में दरवाजे के नीचे से हम अपने बयान की प्रतियाँ खिसका आए थे। जैसा कि होना था, बाद में हमें पुलिस ने धर लिया।
विश्व हिन्दी सम्मेलन का यह तमाशा आज तक जारी है। अब यह बाकायदा सरकारी अनुष्ठान की शक्ल ले चुका है और इसकी अपनी संस्थागत संरचना बन चुकी है। 1975 में हिन्दी को विश्व भाषा बनाने की लंबी-चौड़ी घोषणाएँ की गई थीं जिन्हें अभी तक मशीनी ढंग से दुहराया जा रहा है। इन 37 वर्षों में हिन्दी की दुर्गति हुई है या प्रगति, यह सबके सामने है। विश्व की बात तो जाने दीजिये, वह क्या अपने देश में ही स्वीकार्य हो सकी है? और, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि अपने वर्तमान रूप में क्या वह यह स्वीकार्यता पा सकती है?
सचाई यह है कि आज़ादी की बाद से अब तक हिन्दी के तथाकथित झंडाबरदारों और सरकार ने एक ऐसी हिन्दी गढ़ी है जिसका आम आदमी की भाषा से कोई विशेष संबंध नहीं है। यह एक कृत्रिम और नकली भाषा है और अगर कभी इसे आमजन के बीच स्वीकृति मिली तो वह दिन हिन्दी के लिए बहुत दुर्भाग्य का दिन होगा। भाषाएँ जनता बनाती है। वे राजभाषा समिति या केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय और अनुवाद ब्यूरो के कारखानों में नहीं ढाली जातीं। लेकिन आज़ादी के बाद “शुद्ध हिन्दी” की अवधारणा विकसित की गई है। “शुद्ध हिन्दी” यानि वह हिन्दी जो संस्कृत के तत्सम शब्दों से लदी-फदी हो और जो आम यानि अशुद्ध आदमी के पल्ले न पड़े। अक्सर आपको लोग यह कहते मिल जाएँगे कि फलां की हिन्दी बहुत “शुद्ध” है, यानि वह व्यक्ति तत्समबहुल भाषा बोलता और लिखता है। इस मानदंड को लागू करें तो निष्कर्ष निकलेगा कि प्रेमचंद और यशपाल सरीखे लेखक तो बहुत “अशुद्ध” हिन्दी लिखते थे।
अक्सर आपने रास्ते में देखा होगा कि यदि सड़क पर कुछ मरम्मत आदि की जा रही है वहाँ एक बोर्ड लगा होता है जिस पर लिखा होता है: “सावधान, कार्य प्रगति पर है”। यह सीधे -सीधे अंग्रेज़ी वाक्य “वर्क इज़ इन प्रोग्रेस” का अनुवाद है। इसकी जगह क्या सिर्फ “सावधान, काम चल रहा है” से काम नहीं चलाया जा सकता। अगर आप नोएडा से वापस दिल्ली आ रहे हों तो नोएडा की सीमा समाप्त होने पर बने विशाल द्वार पर लिखा देखेंगे: “धन्यवाद, आपका पुनः आगमन प्रार्थनीय है”। यह भाषा कहाँ बोली जाती है? क्या यह हिन्दी है? देखते ही देखते रेलवे प्लेटफॉर्म पर “ठंडा पानी” की जगह “शीतल पेयजल” लिखा जाने लगा और “मुसाफिरखाना” “प्रतीक्षालय” में तब्दील हो गया। “अंदर” और “बाहर” के स्थान पर “आगम” और “निर्गम” लिखा जाने लगा। इस बारे में मैं पहले भी अन्यत्र एक-दो बार लिख चुका हूँ कि मैं हिन्दी में कोई भी सरकारी फॉर्म नहीं भर पाता क्योंकि मुझे वह समझ में ही नहीं आता। और मैं आम आदमी नहीं, मध्यवर्ग का शिक्षित व्यक्ति हूँ। जब मुझे ही यह हिन्दी समझ में नहीं आती, तो कम पढे-लिखे आदमी को कैसे आएगी?
उन्नीसवीं सदी में हिन्दी के पक्ष में जो आंदोलन चला था उसका कहना था कि अदालती कामकाज की भाषा फारसी या फारसीबहुल उर्दू आमजन की समझ से परे है। इसलिए अदालतों में हिन्दी का इस्तेमाल होना चाहिए और स्कूलों में शिक्षा भी उसी के माध्यम से दी जानी चाहिए। आज डेढ़ सौ साल बाद जिस हिन्दी को हम बरत रहे हैं, वह आमजन को कितनी समझ में आती है? “शुद्ध” हिन्दी के पक्षधर तर्क देते हैं कि हिन्दी-विरोधियों ने उसका मखौल (उनके शब्दों में कहें तो उपहास) उड़ाने के लिए “लौहपथगामिनी” जैसे शब्द गढ़े हैं। लेकिन वास्तविकता यही है कि सरकारी प्रश्रय में जिस प्रकार की हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया गया है, वह इसी तरह के शब्दों से भरी है। इंजीनियर शब्द बहुत लंबे अरसे से प्रचलित है और उसे बिना पढ़ा-लिखा मजदूर-किसान भी समझता है। लेकिन कितने लोग अभियंता का अर्थ जानते हैं? फिर इंजीनियर की जगह हर जगह अभियंता क्यों लिखा मिलता है? दिलचस्प बात यह है कि इन दिनों कंप्यूटर से संबन्धित शब्दावली को भी हिन्दी में गढ़ने का अभियान चलाया जा रहा है। अब कोई पूछे कि सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर या सीडी और डीवीडी या विंडोज़ जैसे प्रचलन में आ चुके शब्दों को हटाकर उनकी जगह संस्कृत से उधार लेकर बनाए गए अप्रचलित शब्दों को रखने का क्या औचित्य होगा?
भाषा वही विकसित होती है जिसका हाजमा दुरुस्त हो, जो अन्य भाषाओं के शब्दों को अपने भीतर शामिल करके उन्हें पचा सके और अपना बना सके। अंग्रेज़ी का इस मामले में कोई सानी नहीं। कोई भाषा ऐसी नहीं जिससे उसने शब्द न लिए हों। और हिन्दी में भी अनेक शब्द ऐसे हैं जिनके विदेशी स्रोत का हमें पता ही नहीं। “शुद्ध” हिन्दी वाले भले ही कक्ष कहें पर आम आदमी तो कमरा ही कहता है और कमरा विदेशी शब्द है। संभवतः पुर्तगाल से हमारे यहाँ आया है। हिन्दी का हाजमा खराब नहीं है। उसके ठेकेदारों की नीयत खराब है। संविधान में हिन्दी के लिए संस्कृत शब्दभंडार से शब्द लेकर नए शब्द बनाने की अनिवार्यता इन ठेकेदारों की ज़िद पर ही रखी गई है, और इसे समाप्त करने का कोई तरीका खोजा जाना चाहिए।
हिन्दी-उर्दू-हिंदवी मुख्य रूप से दिल्ली और उसके आसपास की भाषा है। हिन्दी यानि खड़ीबोली हिन्दी के बारे में यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि इसके गद्य को बनारस और इलाहाबाद में उन साहित्यकारों द्वारा गढ़ा गया जिनकी मातृभाषा खड़ीबोली नहीं थी। यह भी दिलचस्प है कि जिस समय आधुनिक हिन्दी गद्य के ये संस्थापक तुतलाती हुई भाषा लिख रहे थे, उस समय तक गालिब अपने खतों में हिन्दी-उर्दू का ऐसा परिष्कृत गद्य लिख चुके थे जो आजतक बेमिसाल बना हुआ है। लेकिन हिन्दी गद्य के इतिहास में कभी इस बात का उल्लेख भी नहीं किया जाता। और भी बहुत-सी बातों को छिपाया जाता है—मसलन मलिक मुहम्मद जायसी का “पद्मावत” किस लिपि में लिखा गया था? उसकी सबसे पुरानी पाण्डुलिपि किस लिपि में मिलती है?
हिन्दी को विश्व भाषा बनाने का दावा करने वालों को इस सवाल से दो-चार होना ही पड़ेगा कि स्वयं अपने देश में हिन्दी का क्या हाल है? क्या हिन्दी के प्रति हिन्दीवालों और सरकार का रवैया सही रहा है? मुझे याद है कि तीसरा विश्व हिन्दी सम्मेलन दिल्ली में हुआ था। शायद 1983 में। उसमें मॉरीशस और फिजी से आए प्रतिनिधियों का कहना था कि हिन्दी तो उन्होने अमिताभ बच्चन से सीखी है, यानि हिन्दी उन्हें फिल्मों ने सिखाई है। इसमें शक नहीं कि हिन्दी फिल्मों ने देश और विदेश में हिन्दी फैलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जिसे अक्सर स्वीकार नहीं किया जाता। लेकिन यह हिन्दी नकली और सरकारी हिन्दी नहीं, आम आदमी द्वारा समझी जा सकने वाली हिन्दी है।
इसके साथ ही यह भी सही है कि विचारों की भाषा वही नहीं हो सकती जो बाज़ार में बोली जाती है। दर्शनशास्त्र की किताब आमफहम भाषा में नहीं लिखी जा सकती। लेकिन रोज़मर्रा के व्यवहार में काम आने वाली भाषा को तो ऐसा होना ही चाहिए कि उसे अधिक से अधिक लोग समझ और बरत सकें। हिन्दी के झंडाबरदार जितनी जल्दी इस सचाई को समझेंगे, हिन्दी का उतना ही भला होगा। वरना विश्व हिन्दी सम्मेलन होते रहेंगे, संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक और बार हिन्दी में भाषण हो जाएगा और हिंदीवाले अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे। लेकिन हिन्दी की हालत नहीं सुधरेगी।
Samsya ye nahi hai Sri Maan ke hindi me kitni klishthta milai gai , samsya ye hai ki kin ke vishisht prabhao se Sudh ya ashudh hindi ka majak banaya ja raha hai . Pramukh roop se Videshi Shayata Prapt ya unse prerit vidyaylayo me ye kewal hansi- thahake ya kisi ka majak udane me hota. Ye aur bhi chaunka dene wale tathya hai ki swayam Bhartiya hi inko isi roop me swikaar kar rahe hain . Sambhawta unhe apni bhasha , apni shaili ya apne itihas ka samman , ewam srijan ka abash nahi raha . Aaj jarorat in lekho kihi nahi hai apitu mu tod jawab dene ka hai . Hume bhi seekhna hoga ki kis prakar se anya bhashae swyum ka prabhutwa badhane hetu saam daam dand bhed apnate hain,, hume bhi kuch aisa karna hoga. Kyuki ye bhi ek prakar ka yudh hai swarakcha ke liye.
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विश्व हिंदी सम्मेलन पर कुलदीप कुमार का लेख ‘हिंदी का संकट’ और इसके पहले जनसत्ता में ही पुष्परंजन का लेख ‘सम्मेलन या सैर सपाटा’ शीर्षक से छपा था। कुलदीप के लेख में विश्व हिंदी सम्मेलन की सार्थकता पर सवाल उठाते हुए हिंदी आंदोलन (नागरी प्रचारिणी सभा और बिहार में हिंदी आंदोलन की पृष्ठभूमि का ज़िक्र किए बिना) और आज़ादी के बाद हिंदी के नाम पर जिस संस्कृतनिष्ठ हिंदी के बनने की कहानी पर ध्यान खींचा है वह अहम है। लेकिन यह कहानी हमें यह नहीं समझाती कि जब आम लोगों ने तत्सम जनित हिंदी को अस्वीकार कर दिया तब फिर कैसे हिंदी के नाम पर यह विश्व हिंदी सम्मेलन चल रहा है? वास्तव में इसकी जड़ें कहीं और हैं। मेरी अपनी राय मुख़तलिफ़ है।
यह गद्दी पर बैठे वर्तमान अंग्रेज़ीदां राजनेता हैं जिन्हें स्वंय संस्कृतनिष्ठ हिंदी समझ नहीं आती और आम लोगों की हिंदी की उन्हें ज़रूरत नहीं है। क्योंकि वह अपनी अंग्रेज़ी के बल पर (जिनमें कुछेक कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड में पढ़ें हैं) मुल्क के अहम पदों पर बैठे हैं। उनके नीचे मंत्रालयों में बैठे दूसरे दर्जे के अधिकारी जो हिंदी सम्मेलन और उन जैसे अन्य विभागों को चलाते हैं उनके लिए विदेश यात्रा के ये गिने-चुने मौके होते हैं जिन्हें वह छोड़ना नहीं चाहते हैं। अधिकारियों का यह ऐसा वर्ग है जो ख़ुद भी हिंदी की बदलती तस्वीर के बारे में संजीदा नहीं है। वह ख़ुद भी हिंदी उर्दू के दायरे में घटने वाली बातों के प्रति जिज्ञासा नहीं दिखाता। उसके लिए अपने पदों पर बैठकर एक घिसी पिटी हिंदी की वक़ालत करना ही मजबूरी है। विश्व हिंदी सम्मेलन को चलाने वाले कोई और नहीं विदेश मंत्रालयों में हिंदी विभाग के कुछ गिने चुने कुख्यात हैं जो महज़ विदेश यात्रा का मज़ा उठाना चाहते हैं। इनका हिंदी-उर्दू या आम लोगों की ज़बान से कुछ लेना देना नहीं है। इन हिंदी के महानुभावों पर लगाम लगाना सत्ताधारी बल के अंग्रेज़ीदां नेताओं की चिंता का विषय नहीं है। क्योंकि उन्हें ख़ुद भी इस संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ज़रूरत है, ख़ासतौर से 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे मौकों पर देश के नाम सम्बोधन के भाषणों की भाषा से सांकेतिक लाभ भी कमाना ज़रूरी है। सत्ता पक्ष और उसके ऊंचे कद के अधिकारी आम जनता की भाषा को कभी भी मुख्य धारा की ज़बान नहीं बनने देना चाहते। उनका हित इसी में है कि हिंदी उर्दू अलग अलग ज़बानों के अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहें। आम लोगों की ज़बान पढ़ने लिखने और सोचने की भाषा कभी न बन सके। कभी लिपि की दीवार खड़ी करके हिंदी उर्दू को अलग किया गया तो कभी शब्द या लफ्ज़ के नाम पर विचारों को निम्न दर्जे का मान लिया गया। लिहाज़ा, आवश्यकता है कि विश्व हिंदी सम्मेलन के गिने चुने अधिकारियों के कुकर्मों को उजागर किया जाए। इसके बदले, भाषा के दायरे में काम करने वाले दिलचस्प और ईमानदार लोगों को भाषा के कार्यक्रम बनाने और उनको चलाने का ज़िम्मा दिया जाए।
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मामला भाषा का है ही नहीं ! मामला है राज्य और काम का !
लोगों ने इस बात के लिए ज़रूर जीने-मरने की बात उठाई और जानें दीं
और लीं कि दफ्तर, न्यायालय, जेल, कर-विभाग, सेना, संसद, संविधान,
तकनीक, कला, साहित्य और दुकानों के साइन बोर्ड कि भाषा क्या हो ? राज्य और
बाज़ार की भाषा क्या हो ?
न कि राज्य और बाज़ार हो ही क्यों ?
हमारी और आनेवाली पीढ़ियों के श्रम के भंडार पर अनंत कब्जे के आधार पर चल रही इन मशीनों से
छुटकारा कैसे पाएं इसकी जगह आचार्य रघुबीर, पंडित सुन्दरलाल (?) और अब्दुल हक और वैसी एक-दो
पीढियां आधुनिक यूरोप और दक्षिणी एशिया में इसी खोज में लगी रहीं कि ऐसी मशोनों के कल-पुर्जों के
संचालन की `भाषा` क्या हो ?
ऐसे विद्वान जीवन-पर्यंत इसी में लगे रहे कि परिभाषा कोष बना कर मानव समुदायों और प्रकृति की मौत की मशीनें अर्थात राज्य, बाज़ार और काम के अन्य पिरामिडों को और
अधिक सुचारू रूप से और और अधिक तेज़ी से कैसे चलाया जा सकता है ?
सच्चाई तो यह है कि या तो हम कमकर बने रहेंगे या मानव समुदायों का प्रकृति के साथ
फिर से तालमेल बढेगा.
बगैर काम, करियर और सभ्यता के उन्मूलन के हमारा, मानव जीवन का विकास नहीं हो सकता है.
सवाल यह नहीं है हमको थर्ड डिग्री देनेवाला जेलर या थानेदार संस्कृत-मिश्रित हिंदी बोलता है,
या अरबी-मिश्रित उर्दू बोलता है या लोक-बोली बोलता है. एक आदर्श हिंदुत्ववादी श्रम शिविर में
जेलर संस्कृत बोले इस से ज़्यादा ज़रूरी बात यह है कि थानेदार या जेलर हो ही क्यों ? श्रम-शिविर
का उन्मूलन कैसे हो यही असली सवाल है ना कि श्रम-शिविर की भाषा क्या हो ?
ऐसे भी हमारे जीवन के असली क्षण तो शब्दहीन ही होते हैं. भाषा की उपस्थिति खलल ही
डालती है.
गंगादीन लोहार, विलास सुखदेवे, चौधरी, अलकनंदा, अनदा, गोलामार और रंजन आनंद
http://www.anhilaal.com
Our Texts at Kafila.org
1. On Toba Tek Singh of Saadat Hasan Manto
http://kafila.org/2012/09/16/%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%8B-%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B2-%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B9/
2. On Mutant Modernities
http://kafila.org/2012/08/09/mutant-modernities-socialist-futures-by-ravi-sinha/
3. On Molecular Socialism
http://kafila.org/2012/08/03/molecular-socialism-a-possible-future-for-left-politics/
4. On Maruti-Suzuki Struggle:
http://kafila.org/2011/10/16/appeal-from-the-maruti-suzuki-employees-union-guest-post-by-shiv-kumar-gen-sec-mseu-courtesy-rakhi-sehgal-new-trade-union-initiative-ntui/
5. On Anna Hazare Movement and Increasingly Non-Hijackable Discontent ( IND):
http://kafila.org/2011/09/10/which-populism-saroj-giri/
http://kafila.org/2011/08/27/are-we-talking-to-the-people-who-are-out-on-the-streets-kavita-krishnan/
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