मृत्युहीन अमरता से बड़ा अभिशाप और कुछ नहीं, विजयदान देथा की एक कहानी में एक कौवा सिकंदर को सीख देता है. फिर भी मृत्यु से दुखी न होना मनुष्यता के विरुद्ध है,यह भी हम जानते हैं. इसलिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपनेआप ही ऐसी क्षमताओं और संभावनाओं का आगार है जो उसके अलावा और किसी के पास नहीं होतीं. हमें पता है कि उसके जाते ही वह सब कुछ चला जाता है जो उसने अर्जित किया, संग्रह किया और फिर उसके बल पर गढ़ा. वह संग्रह और गढ़ने की वह ख़ास कला भी उसके साथ चली जाती है.दुख इससे हमेशा के लिए वंचित हो जाने का होता है.विजयदान देथा के जाने से हुई तकलीफ और खालीपन दरअसल इस बात के अहसास से पैदा होता है कि जो प्रयत्न उनके द्वारा संभव हुआ और जिसने प्रसन्न कला का रूप ग्रहण किया, वह कितना विराट और दुष्कर था, इसका आभास हम सबको है.
विजयदान देथा हिंदी के अब तक के आख़िरी किस्सागो थे. हिंदी के या राजस्थानी के?इसलिए कि लिखना उन्होंने शुरू राजस्थानी में किया? लिखना या सुने हुए को ही फिर से कहना ?माध्यम भले ही वाचिक न होकर छापे का हो.
देथा क्या मौलिक कथाकार थे या लोकवार्ताकार थे? ‘बाताँ री फुलवाड़ी’ उनकी रचनाओं का संग्रह है या उनके द्वारा इकट्ठा की गई लोक कथाओं का संकलन? ये और इस तरह के और प्रश्न राजस्थानी के इस नायब किस्सागो के बारे में अकादमिक समस्या के रूप में उठाए जाते रहे हैं. राजस्थानी को भाषा के तौर पर संविधान पहचानता नहीं.वह गाँव-घर की बोली है और हिंदी की तरह सभाओं के योग्य नहीं मानी जाती. लेकिन विजयदान देथा के बाद उसके बारे में और किसी भी ‘बोली’ के बारे में ऐसा कहना संभव नहीं है. भाषा के बोली के प्रति अहंकारपूर्ण तिरस्कार के दिन अब चले गए.
बहुभाषिकता के सिद्धांत के भारत में लोकप्रिय होने के बहुत पहले देथा ने राजस्थान के लोक कंठ में बसी और पीढ़ी दर पीढ़ी सफ़र करती कथाओं को सुना. सुना उनके राजस्थानी कानों ने और तय किया कि इन्हें फिर से वे कहेंगे.कहेंगे भी राजस्थानी में ही. लेकिन ध्यान रहे कि ये कान बिलकुल नए थे. अपनी कथाएं सुनते समय वे न तो चेखव को भूल पाते थे जो दूर रूस का कहानीकार था और न प्रेमचंद को जो कुछ करीब का कथाकार था, भौगोलिक और कालिक दृष्टि से भी. यह भी ध्यान रहे कि कार्ल मार्क्स की काव्यात्मकता का स्वाद भी उसे मिल चुका था. फिर वह कैसे मात्र माध्यम हो सकता था, जो वही और सिर्फ वही फिर से सुना दे जो उसे सुनाया गया है? मौलिकता का दावा देथा का नहीं था. ख्यात लोकवार्ताकार कोमल कोठारी के साथ मिल कर जिसने लोकवार्ता के संग्रह का सांस्थानिक काम शुरू किया, वह यह दावा कर भी नहीं सकता था. फिर भी कहना होगा कि कहानियाँ भले ही सहस्रों वर्षों और कंठों से छन कर आई हों, इस बार उन्हें हमें सुनाने वाले स्वर की छाप उन पर साफ़ पहचानी जा सकती है. विजयदान देथा इस रूप में हिंदी की दुनिया के पहले लोकवार्ता संग्रहकर्ताओं से भिन्न थे . उनका उद्देश्य संग्रह और संरक्षण का था,अभिलेखागार बनाने का, जो आधुनिक चेतना के लिए एक प्रामाणिक स्मृतिकोश के निर्माण की परियोजना है.उनसे अलग भूमिका देथा की थी, उनकी रुचि प्रामाणिक राजस्थानी स्मृति को स्थापित करने से कहीं आगे बढ़कर खुद उन किस्सों को कहने की थी. इस तरह उनके किस्से संदर्भ बिंदु मात्र नहीं हैं, वे समकालीनता की रचना हैं और उसमें हस्तक्षेप भी करना चाहते हैं.यह महत्वाकांक्षा रचना की ही है. इस रूप में वे ,जैसा उनकी अनुवादक क्रिस्टी मेरिल लिखती हैं,यिद्दीस के इसाक बाशेविस सिंगर,इतालवी के इतालो काल्विनो और गिकूयु के न्गूगी वा-थ्योंगो की परंपरा के लेखक हैं.
ऊपर से देखें तो विजयदान देथा की राजस्थानी कहानियों पर चेखव या प्रेमचंद का प्रभाव सीधे पता नहीं चलता. पर गौर से पढ़ें तो देथा ने इन लोक कथाओं को विडंबना का जो हल्का-सा स्पर्श दिया है, वह ठेठ आधुनिक संवेदना के चलते ही है. उनका एक उद्देश्य भी है जो इस अनुकथन को निर्देशित करता है: वे ईश्वर, धर्म और पूंजी के खिलाफ हैं. इस प्रकार एक स्पष्ट लेखकीय विचार है जो अंतर्धारा की तरह उनकी सारी कहानियों में प्रवाहित रहता है. साथ ही यह भी कि यह सारा उपक्रम परंपरा के अन्वेषण और उसकी व्याख्या का है जो कि विद्वत्ता का क्षेत्र है.
विद्वत्ता को पेशा नहीं बनाया देथा ने,कथा कहने का काम ही अपनाया. पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशक में यह काम इस लिहाज से दिलचस्प हो उठता है कि वह पहचानों की राजनीति से अभी दस साल से भी अधिक पहले का है.एक मार्क्सवादी के द्वारा बीत गए उत्पादन संबंधों और सामाजिक संबंधों के दौर की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को अभिलेखागारीय महत्त्व से आगे बढ़कर रचनात्मकता के दायरे में लाना भी दिलचस्प राजनीतिक निर्णय है. लेकिन लगभग इसी समय एक दूसरे रचनाकार हबीब तनवीर भी कुछ-कुछ यही रंगमंच पर कर रहे थे. ठीक इन दोनों की तरह मार्क्सवादी नहीं, लेकिन गहरी राजनीतिक दृष्टि से युक्त बी.व.कारंथ रंग संगीत में और अन्यथा भी यह काम कर रहे थे. संगीत के क्षेत्र में कुमार गन्धर्व का नाम इस प्रसंग में याद आता है.लोक इन सबके लिए एक बीता हुआ समय नहीं था. इस अर्थ में इन सबने मार्क्सवादी सौन्दर्य चेतना को एक नया स्तर प्रदान किया , वह सिद्धांत की शक्ल काफी बाद में ले पाया हो,यह बात दीगर है.
विजय दान देथा ने रंगमंच और सिनेमा को अपनी ओर खींचा. एक अच्छी खासी आबादी है जो उन्हें चरण दास चोर के माध्यम से ही जानती है.अमोल पालेकर,मणि कौल,प्रकाश झा,श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों ने उनकी कहानियों पर फिल्में बनाईं.हबीब तनवीर उनकी कहानी को अपनाने वाले रंग निर्देशकों में सबसे प्रसिद्ध हैं लेकिन देश भर में उनकी जाने कितनी कहानियों को मंच पर खेला गया, इसका कोई हिसाब नहीं है.
देथा ने कविताएँ भी लिखीं और उपन्यास भी. वे कलात्मक दृष्टि से उतने सफल नहीं नहीं हो सके. संभवतः उनकी रचनात्मक क्षमता खिल पाई लोक कथाओं के साथ उनके अपने काम में. इतालो काल्विनो ने लिखा है कि हम अपने भीतर की भाषा को बदल नहीं सकते और जीवन भर वह हमारे साथ रहती है. रहती वह हम सबके भीतर है, लेकिन उसकी पुकार सुनने वाले कान पाने के लिए विजयदान देथा होना पड़ता है जिसके पास उसका जवाब देने की जुबान भी हो. हम जानते हैं कि पुकार तब तक सुनी गई मानी नहीं जाती जब तक उसका उत्तर न दिया जाए. उत्तर देने वाली वह एक आवाज़ अब खामोश हो गई है.
First carried by The BBC Hindi Service on 11 November,2013