पिछला एक हफ्ता भारत के शैक्षणिक समुदाय के लिए, खासकर उनके लिए जो किसी न किसी रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से जुड़े रहे हैं, सामूहिक शर्म का समय रहा है. यह अकल्पनीय स्थिति है कि आयोग एक सार्वजनिक नोटिस जारी करके किसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में दाखिले की प्रक्रिया के बारे में निर्देश जारी करे. आयोग ने दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में दाखिले के सिलसिले में अभ्यर्थियों को कहा है कि वे विश्वविद्यालय द्वारा विज्ञापित चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश न लें. उसने विश्वविद्यालय प्रशासन को फौरन यह पाठ्यक्रम वापस लेने और 2013 के पहले के पाठ्यक्रम को बहाल करने का आदेश दिया है. उसने विश्वविद्यालय के सभी कॉलेजों को भी सीधे चेतावनी दी है कि उसका आदेश न मानने की सूरत में उन्हें अनुदान बंद किया जा सकता है. किसी विश्वविद्यालय को नज़रअंदाज कर उसकी इकाई से उससे सीधे बात करना अंतरसांस्थानिक व्यवहार के सारे स्वीकृत कायदों का उल्लंघन है. व्यावहारिक रूप से यह दिल्ली विश्वविद्यालय का अधिग्रहण है.यह भारत के विश्वविद्यालयीय शिक्षा के इतिहास में असाधारण घटना है और सांस्थानिक स्वायत्ता के संदर्भ में इसके अभिप्राय गंभीर हैं.
आयोग को किसी भी तरह यह अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वह विश्वविद्यालयों को यह बताए कि वे क्या और कैसे पढ़ाएं. माना जाता है कि ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से हर विश्वविद्यालय भिन्न होता है और इसलिए प्रत्येक विश्वविद्यालय का शैक्षणिक कार्यक्रम और योजना भी भिन्न होगी. इसी वजह से पाठ्यक्रम संबंधी आदेश या निर्देश जारी करने का अधिकार किसी केन्द्रीय संस्था को, हमारे मामले में, आयोग को नहीं है. पाठ्यक्रम संबंधी जो भी सुझाव वह विश्वविद्यालयों को देता है, उन्हें मानना उनके लिए अनिवार्य नहीं है. पाठ्यक्रम में सार्वदेशिक एकरूपता कोई अच्छा विचार नहीं है.अलग-अलग विश्वविद्यालय का अलग चरित्र होता है.पाठ्यक्रम बनाने का अधिकार पूरी तरह से शिक्षकों का है और इसी कारण विकेन्द्रित भी है.इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का यह निर्देश कि दिल्ली विश्वविद्यालय तीन वर्षीय ढाँचे में ही स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम चलाए, किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. आखिर दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्वत परिषद् ने तीन वर्षीय ढाँचे की जगह चार वर्ष के ढाँचे को मंजूर कर दिया है!
फिर क्या वजह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोग के इस निर्देश के खिलाफ क्षोभ नहीं बल्कि उल्लास भरी प्रतिक्रिया है? क्यों आम तौर पर शिक्षक और छात्र अपने विश्वविद्यालय की स्वायत्ता के इस अपहरण पर उत्तेजित नहीं हैं? उसी तरह इस प्रश्न का उत्तर खोजने की आवश्यकता भी है कि क्यों विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के इस निर्देश को उस आदर से नहीं देखा जा रहा है जो देश की उच्च शिक्षा की सर्वोच्च नियामक संस्था के निर्णय के लिए सहज ही होना चाहिए था,बल्कि इसे उसकी दयनीय अवसरवादिता और रीढ़ विहीनता का एक नमूना माना जा रहा है.आखिर जिन आधारों पर आयोग आज इस चार-वर्षीय पाठ्यक्रम को अवैध घोषित कर रहा है, वे आज से डेढ़ साल पहले भी मौजूद थे और आयोग का ध्यान बार-बार, बाहरी लोगों के अलावा स्वयं उसके सदस्यों भी ने इस ओर दिलाया था कि दिल्ली विश्वविद्यालय किस प्रकार स्थापित और मान्य जनतांत्रिक प्रक्रियाओं का, राष्ट्रीय शिक्षा नीति का और आयोग के नियमों का उल्लंघन कर रहा है. उस समय तो आयोग के अध्यक्ष ने यह कहकर इस पर चर्चा से भी इनकार कर दिया था कि दिल्ली विश्वविद्यालय अकादमिक कार्यक्रम निर्माण के मामले में स्वायत्त है! बहुत दबाव के बाद आयोग ने चार वर्षीय पाठ्यक्रम की निगरानी के लिए एक समिति बना दी थी जो पूरी अवधि में निष्क्रिय पड़ी रही. फिर आखिर अभी स्थिति में कौन सी तबदीली आ गई कि आयोग को इस पाठ्यक्रम में सारी गड़बड़ियां दिखलाई पड़ने लगीं. क्या यह इस कारण है कि पिछली केन्द्रीय सरकार का समर्थन दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रशासन को था और आयोग सरकार की निगाह भांपकर चुप था?
इन प्रश्नों का उत्तर शैक्षणिक संस्थाओं में स्वायत्ता की संरचना की जटिलता को समझे बिना देना संभव नहीं और बिना यह समझे भी नहीं कि आखिर दिल्ली विश्वविद्यालय में और आयोग के स्तर पर इस अवधारणा के साथ क्या दुर्घटना हुई है.
विश्वविद्यालय की स्वायत्तता का अर्थ है उसकी हर इकाई की स्वायत्ता, यानी शिक्षकों,विभागों,संकायों की स्वायत्तता. कोई भी अकादमिक प्रस्ताव बिना इन सभी चरणों से गुजरे और उनसे स्वीकृति लिए सबसे आख़िरी वैधानिक निकाय, यानी विद्वत परिषद् या कार्य परिषद् में नहीं ले जाया जा सकता. उसी तरह कोई प्रस्ताव सीधे इन अंतिम निकायों से पारित कर पूर्ववर्ती निकायों को लागू करने के आदेश के साथ नहीं भेजा जा सकता.
चार वर्षीय पाठ्यक्रम पर सबसे बड़ी आपत्ति यह थी कि तीन वर्षीय ढाँचे से चार वर्ष में संक्रमण के प्रश्न पर कॉलेजों, विभागों,संकायों के स्तर पर कोई चर्चा नहीं की गई.यह कुलपति की ओर से आदेश की शक्ल में इनके पास पहुँचा और उन्हें इस ढांचे में अपने विषयों के पाठ्यक्रम भर बनाने को कहा गया. किन कारणों से तीन वर्षीय पाठ्यक्रम को निरस्त करके चार वर्षीय ढांचा अपनाया जा रहा है? इसका कोई उत्तर नहीं था.कहा गया कि तीन वर्षीय ढाँचे में युवाओं में कारोबारी योग्यता नहीं आ पाती. कारोबारी योग्यता(एम्प्लोयाबिलिटी) से क्या आशय है? क्या कारोबारी योग्यता सामान्य स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम का सबसे बड़ा लक्ष्य है? तीन वर्ष में यह योग्यता अगर नहीं आ पाती है(यह भी कैसे मालूम हुआ?) तो क्या एक साल बढ़ा देने भर से आ जाएगी? इन प्रश्नों का कोई भी उत्तर देने से विश्वविद्यालय प्रशासन ने इनकार कर दिया.उसकी जिद थी और अभी भी है कि उसका प्रस्ताव अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है और इसलिए मान लिया जाना चाहिए.
चार वर्ष और तीन वर्ष में लगता है कि बस एक साल भर का झगड़ा है. आयोग का यह तर्क कि तीन वर्ष के बदले चार वर्ष का स्नातक कार्यक्रम राष्ट्रीय शिक्षा नीति का उल्लंघन है, इसलिए कमजोर पड़ जाता है कि चार वर्षीय पाठ्यक्रम पहले से कुछ और शिक्षा संस्थानों में चल रहे हैं और उन पर आपत्ति नहीं की गई है. इसलिए बहस साल को लेकर नहीं. पाठ्यक्रम तीन साल का भी संतुलित हो सकता है और चार साल का भी.
विश्वविद्यालय ने कहा कि उसने ग्यारह अनिवार्य आधार पाठ्यक्रम शामिल करके,जो गणित से लेकर साहित्य तक के हैं,छात्रों की दृष्टि का दायरा विस्तृत करने का इंतजाम किया है. आधार पाठ्यक्रम का विचार अमरीकी स्नातक-पाठ्यक्रमों से लिया गया है. अमरीका का होने के कारण त्याज्य हो, ऐसा नहीं.लेकिन नक़ल करते वक्त अकल का इस्तेमाल न करने पर जो अधकचरापन आ जाता है, वही दिल्ली विश्वविद्यालय के इस प्रयोग के साथ हुआ. ये आधार-कार्यक्रम माध्यमिक स्तर के भी नहीं साबित हुए . स्नातक स्तर पर ऐसे बचकाने कार्यक्रम में शामिल होने की बाध्यता से छात्रों को अपमान का अनुभव हुआ.अमरीका में एक ही आधार पाठ्यक्रम सारे विषयों के छात्रों के लिए अनिवार्य नहीं होते. अलग-अलग विषय का आधार अलग-अलग कार्यक्रमों से तैयार होता है. इस बात पर ध्यान न देने के कारण इन ग्यारह आधार-पाठ्यक्रमों से लाभ की जगह साल भर के वक्त की फिजूलखर्ची ही हो रही है.
दूसरी बड़ी समस्या है चार वर्ष में तीन निकास का होना. दो साल में डिप्लोमा, तीन साल में साधारण स्नातक और चार साल में प्रतिष्ठा, एक साथ स्नातक के तीन भिन्न लक्ष्यों को एक ही पाठ्यक्रम-योजना से कैसे हासिल किया जा सकता है? लेकिन चार वर्षीय पाठ्यक्रम यही दावा करता है. वह मूलतः एक ही पाठ्यक्रम योजना है जिसका एक टुकड़ा डिप्लोमा और दूसरा टुकड़ा साधारण स्नातक कहा जा रहा है. अलग-अलग शैक्षिक उद्देश्य एक ही पाठ्यक्रम योजना पूरे नहीं कर सकती. साफ है कि किसी न किसी छात्र के साथ अन्याय हो रहा है. कोई विश्वविद्यालय यह क्यों करे?
दिल्ली विश्वविद्यालय का प्रशासन अगर इन प्रश्नों पर विचार करने को तैयार न था, तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को इनकी ओर औपचारिक रूप से उसका ध्यान दिलाना चाहिए था और पिछले साल, इस पाठ्यक्रम के आरंभ के पहले उसे इन शंकाओं का निराकरण करने को प्रेरित करना चाहिए था. ऐसा करने की जगह आयोग के अध्यक्ष ने पूरी तरह खुद को अलग कर लिया और एक तरह से दिल्ली विश्वविद्यालय के इस कार्यक्रम का औचित्य ठहराने की ही कोशिश की.
आयोग की गत वर्ष की निष्क्रियता, या दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रति उसके सक्रिय समर्थन ने आज के उसके निर्देश की विश्वसनीयता को संदिग्ध बना दिया है. इससे कुछ बड़े प्रश्न उठ खड़े हुए हैं: विश्वविद्यालय की स्वयाय्त्तता क्या सिर्फ उसके मुखिया की है? अगर नहीं तो वह किसके प्रति और कैसे जवाबदेह बनाया जा सकता है?दूसरे, अकादेमिक या विद्वत परिषद के सदस्य क्यों खुद को स्वतंत्र अनुभव नहीं करते?यह प्रश्न विश्वविद्यालय के अकादमिक और अन्य प्रशासनिक ढाँचे से जुड़ा हुआ है.अगर विश्वविद्यालय का प्रमुख, विजिटर, सर्वोच्च है तो वह हमेशा शानदार खामोशी क्यों बनाए रखता है?
आयोग के आचरण से आयोग के अधिकारियों की व्यक्तिगत गुणवत्ता पर सवाल तो खड़ा हुआ ही है, आयोग की पूरी कार्य पद्धति और शैली की परीक्षा की आवश्यकता भी उठ खड़ी हुई है. छह बरस पहले यशपाल समिति इस नतीजे पर पहुँची थी कि अपने वर्तमान स्वरूप में आयोग अपनी उपयोगिता खो बैठा है. यशपाल समिति ने कहा था कि विश्वविद्यालयों को आज़ादी देकर अपना काम करने का माहौल बनाने में मदद करना न कि उसका नियंत्रण करना ऐसी संस्था का मकसद होता है.किसी भी सर्वोच्च नियामक संस्था का काम शिक्षा में नवीनतम शोध के आधार पर अन्तरराष्ट्रीय वातावरण में काम करने के लिए उच्च शिक्षा के संस्थानों को उत्साहित करना होना चाहिए.
चार वर्षीय पाठ्यक्रम पर आयोग के हस्तक्षेप का समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन अगर व्यापक शिक्षक और छात्र समुदाय इसकी आलोचना नहीं कर पा रहा तो इसका कारण है विश्वविद्यालय के आतंरिक जीवन में जनतांत्रिक विचार-विमर्श के अवसर और स्थान का अभाव. इसके चलते छात्र और अध्यापक स्वयं को अशक्त अनुभव करते हैं. यह भी सही है कि उनके और प्रशासन के बीच निरंतर तनाव और अविश्वास का संबंध है. कोई कुलपति इसे लेकर आशवस्त नहीं कि उसकी किसी भी पहलकदमी का स्वागत होगा. दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति दीपक पेंटल को गिफ्तार करने से लेकर फांसी देने तक का नारा शिक्षक नेता लगा चुके हैं. ऐसी स्थिति में किसी भी कुलपति का प्रशासनिक जीवन अपने अध्यापक समुदाय के प्रति संदेह से ही शुरू होता है.प्रशासन और अध्यापक समुदाय के बीच विरोधात्मक संबंध की अनिवार्यता के अंदेशे से जोड़-तोड़ और गुट बनाना शुरू हो जाता है.फिर राजनीतिक सम्बद्धता अपनी भूमिका निभाने लगती है. चार वर्षीय पाठ्यक्रम के आलोचकों को वामपंथी कह कर बाकी अध्यापक समुदाय से अलग-थलग करने की कोशिश प्रशासन ने की. अब यह कहा जा रहा है कि वामपंथी और दक्षिणपंथी अनैतिक रूप से गंठजोड़ कर इसका विरोध कर रहे हैं. इसका अर्थ यह है कि विश्वविद्यालय में कोई भी निर्णय अकादमिक कारण या तर्क से लेना सम्भव नहीं रह गया है.
दिल्ली विश्वविद्यालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और मानव संसाधन मंत्रालय के सामने जो संकट अभी है वह मात्र उनका नहीं , देश के पूरे आक्दमिक समुदाय का संकट है. अगर उन्होंने इस अवसर पर भी आत्ममंथन न किया तो मानलेना चाहिए कि उनमें एक आत्मघाती प्रवृत्ति है और उनका विनाश निश्चित है.
जहां तक हम दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों का प्रश्न है, हमारे सामने चुनाव शायद इस विश्वविद्यालय की स्वायत्तता को नष्ट होते देखने और इसे खँडहर बनते देखने के बीच है. न चुनने का विकल्प नहीं है. अगर बाकी संस्थान इसे अपवाद मान रहे हैं तो यह भी उनकी ख़ामख़याली है!
( First published in Jansatta on 24 June,2014)
Finally a sensible intervention!