सीसैट के जरिये सरकारी नौकरियों में दाखिले के खिलाफ एक आवाज के खिलाफ एक और आवाज – रविकांत

Guest post by RAVIKANT

‘निकम्‍मों व गये-गुजरों’ के लोक सेवा आयोग और सीसैट के जरिये सरकारी नौकरियों में दाखिले के खिलाफ एक आवाज के खिलाफ एक और आवाज

(टीप मेरी- इसका यह मतलब नहीं कि सीसैट के खिलाफ बोलने व आंदोलन करने वाले बेहतरीन के समर्थन में नहीं हैं. उन्‍हें बेहतरीन के साथ संवेदनशील के समर्थन में भी होना चाहिये.)

इस वक्‍त जब देश के एक हिस्‍से में कई युवा इस बात पर आंदोलनरत हैं कि लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित की परीक्षाओं में चुने जाने वाले व्‍यक्तियों की जांच भारतीय भाषाओं की जानी चाहिये, उस वक्‍त 27.07.14 के टाइम्‍स ऑफ इंडिया अखबार में श्रीवत्‍स कृष्‍णा का एक लेख छपा है, जो कि खुद भी प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी हैं. इस लेख का प्रमुख तर्क यह है कि भारत की एक राजभाषा अंग्रेजी को छोड़ कर तमाम भारतीय भाषायें (दूसरी राजभाषा हिंदी सहित), भारत में राजकाज चलाने वाले लोगों की क्षमताओं की जांच करने के लिहाज से नाकाबिल है. लिहाजा यह हक अंग्रेजी के पास ही रहना चाहिये.

लेख के नाम व उसके साथ दी गयी टीप का मतलब कुछ यों बनता है – ‘‘फालतू की बात के लिये इतना शोरशराबा- संघ लोक सेवा आयोग और सीसैट के जरिये निकम्‍मों व गये गुजरों का नहीं, बेहतरीन का चयन होना चाहिये.’’

लेख के शीर्षक में ही आंदोलन को फालतू का बता दिये जाने के बाद अगली ही पंक्ति में आंदोलनकारियों के लिये हिकारत की झलक मिलती है, जब लेखक यह संकेत देता है कि यह आंदोलन गये-गुजरों या निकम्‍मों की पैरवी कर रहा है. वैसे मुझे लगता है कि लेखक को लगता है कि यह शोरशराबा फालतू का नहीं है इसलिये उन्‍हें यह लेख लिखने की जरूरत पड़ी. अगर फालतू के शोर शराबे  के खिलाफ किसी को लेख लिखने की जहमत उठानी पड़े तो यकीनन वह इतना फालतू भी नहीं है कि उसकी सफाई देने की जरूरत आन पड़े.

शुरूआत में ही लेखक इस बात से निराशा जाहिर करते हैं कि देश व नेता एक गैर जरूरी मुद्दे पर वक्‍त बरबाद कर रहे हैं. फिर वे कहते हैं कि हमारा देश ऐसा अकेला देश होगा जिसमें परीक्षा देने वाले प्रत्‍याशी विरोध करें और यह चाहें कि वे नागरिक सेवा के लिये अभिक्षमता या सहज-रूझानों के परीक्षण कैसे लिये जायें. यहां पर यह सवाल उठता है कि क्‍या प्रत्‍याशी भारतीय नागरिक नहीं, क्‍या उन्‍हें भारतीय नागरिक सेवाओं में नागरिकों की भागीदारी हासिल करने के लिये विषमता से भरे समाज में न्‍यायपूर्ण परीक्षा प्रणाली का मांग करने का हक नहीं ? क्‍या लोकतंत्र में अपने व दूसरो के हितों के लिये आंदोलन करना गैरवाजिब बात है ? क्‍या अक्‍सर ऐसा नहीं होता कि किसी एक मुद्दे पर उससे मुद्दे से प्रभावित होने वाला समूह आंदोलन करता है, और बाद में दूसरे समूह भी उसके साथ शामिल हो जाते हैं.

साफ है कि लेखक प्रत्‍याशियों को भारतीय नागरिक के तौर पर देखने से गुरेज कर रहे हैं जो आज और आने वाली पीढ़ी के लिये बेहतर तरीके से परीक्षायें लिये जाने के लिये आंदोलनरत है. इसके साथ ही लेखक इस आंदोलन से जुड़े दूसरे समूहों जैसे पहले से ही परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं के लिये आंदोलन करने वालों, आम नागरिकों, जिन्‍हें शायद कभी खुद यह परीक्षा देने की जरूरत ही न पड़े, को भी काट कर अलग कर रहे हैं. असल में प्रत्‍याशियों के हकों में से नागरिक के हकों को अलग करते ही यह कहना आसान हो जाता है कि आंदोलनकारी अपने जाती फायदे के लिये व देश के बड़े वर्ग के नुकसान के लिये आंदोलन कर रहे हैं और उन्‍हें जनता का दुश्‍मन भी ठहराना आसान हो जाता है. जबकि बराबरी की भागीदारी की तरफ कदम बढाने लेकिन छोटे व दबंग तबके के की ताकत कम करने के लिये आंदोलन कर रहे होते हैं.

फिर लेखक चुनौती देते हुये कहते हैं कि क्‍या ये व्‍यक्ति भारतीय प्रबंधन संस्‍थान या भारतीय प्रोद्योगिकी संस्‍थान आदि की परीक्षाओं का विरोध करने की हिम्‍मत करेंगे ? अजीब बात है जिस बात पर आंदोलन कर रहे हैं उस पर बात कहने के बजाय यह कहना कि पहले आपने किसी दूसरे मुद्दे पर आंदोलन नहीं किया इसलिये आपको इस बात पर आंदोलन को करने का हक नहीं है. इस तर्क से तो कोई भी इंसान इसलिये आंदोलन नहीं कर सकता क्‍योंकि उसने पहले कभी किसी दूसरे मुद्दे पर आंदोलन नहीं किया था और अगर उसने किसी दूसरे मुद्दे पर आंदोलन कर दिया तो वहां वाले भी यही बात कहेंगे कि आपने तीसरे मुद्दे पर आंदोलन नहीं किया. लेखक से भी कहा जा सकता है कि अगर आपने नर्मदा बचाओ आंदोलन, नक्‍सलबाड़ी आंदोलन, आदिवासी आंदोलन आदि पर कुछ नहीं लिखा है तो आप इस मुद्दे पर लिखने के हकदार नहीं है. यह निहायत ही गैर लोकतांत्रिक बात है और लोकतंत्र में निरर्थक है. इस तर्क से तो कोई भी व्‍यक्ति या समूह दूसरे व्‍यक्ति या समूह से जुड़े मुद्दों पर आंदोलन नहीं कर सकता. वैसे यह अंग्रेजी भाषी लेखक के अज्ञान का ही एक उदाहरण है कि उन्‍हें न तो नागरिक सेवाओं की परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को शामिल किये जाने के लिये सालों से चल रहे आंदोलन और भारतीय प्रौद्योगि‍की संस्‍थान की प्रवेश परीक्षाओं व शोध प्रबंधों को भारतीय भाषाओं में लिये या किये जाने के विरोधों की जानकारी नहीं है.

लेकिन इस निरर्थक तर्क को सहारा देने के लिये लेखक एक सुझाव (पढ़ें – अगर आप इसे लेखक के सरकारी पद से जोड़ कर पढ़े तो धमकी, नहीं तो सिर्फ सुझाव) सरकार को देते हैं कि उसे इन हिंसारत आंदोलनकारियों के टी वी फुटेज देख कर इनमें से असली बदमाशों को पहचान कर उन्‍हें सजा देनी चाहिये और सरकारी नौकरी हासिल करने पर रोक लगा देनी चाहिये. यह बात सही है कि किसी भी हिंसा में शामिल होने वाले व्‍यक्ति को उसके द्वारा की गयी हिंसा की कानूनन न्‍यानपूर्ण तरीके से खोजबीन, सुनवाई आदि करके सजा मिलनी चाहिये. लेकिन लेखक यहां दोहरा रवैया अपनाते हैं सड़क पर कुछ हिंसारत आंदोलनकारियों के कड़ी कार्रवाई की मांग करते हैं(और इसी बहाने पूरे आंदोलन के प्रति अपनी हिकारत दर्शाते हैं) लेकिन पूरे लेख में भारतीय अफसरशाही(असल में बाबूशाही) के ‘’लायक’’ बाबुओं और चाहे वे छोटे हों या बड़े और संस्‍थानों के खिलाफ कड़ी तो छोड़ि‍ये कोई नरम कार्रवाई करने का सुझाव देने का हौसला भी नहीं जुटा पाते, जिनके कारनामों की वजह से लेखक की नजर में देश के युवा नागरिकों को अपना कीमती वक्‍त सड़कों पर जाया करना पड़ रहा है. वैसे देश के राजकाज पर से एक भाषाई तबके का कब्‍जा घटा कर उसमें सभी भाषाई तबकों को शामिल करने के लिये किया जाने वाले आंदोलन में वक्‍त लगाना अपने वक्‍त का सही इस्तेमाल करना है. यह देश के प्रशासन को ज्‍यादा लोकतांत्रिक बनाने की दिशा में बढ़ने वाले कई छोटे छोटे कदमों में से एक है.

इसके बाद लेखक नौकरी पाने के व्‍यक्तिगत इतिहास में यह बताना जरूरी समझते हैं कि उन्‍होंने कई परीक्षायें बेहतरीनतम दर्जे में पास की है(गूगल बताता है कि वे भाप्रसे. के टापर रह चुके हैं.) एक सार्वजनिक बहस के मुद्दे पर व्‍यक्तिगत इतिहास की जरूरत नहीं थी लेकिन वे इसे देने की वजह यह बताते हैं कि उन्‍हें कहीं बैठे-ठाले सिद्धांतकार न समझ लिया जाये. चूंकि उन्‍होंने अपने व्‍यक्तिगत इतिहास को देना जरूरी समझा है इसलिये यह सवाल उठना लाजमी है कि क्‍या लेखक यह कह रहे हैं कि जिसने इन परीक्षाओं को अच्‍छी तरह से पास नहीं किया है या इनमें हिस्‍सा नहीं लिया है वे बैठे-ठाले सिद्धांतकार हैं. और इस मामले पर उन्‍हीं के तर्क को वजन दिया जाये जिन्‍होंने इन परीक्षाओं में हिस्‍सा लिया है. इस लिहाज से तो सभी पत्रकारों और अखबारों को अपना अपना बोरिया बिस्‍तर समेट कर घर बैठ जाना चाहिये क्‍योंकि वे तो ज्‍यादातर लिखते ही उसके बारे में है जो दूसरों से जुड़ी घटनायें होती हैं.

आपको इस बात से हैरत हो सकती है कि जिस मुद्दे पर विचलित हो कर लेखक एक नागरिक की हैसियत और हक से लेख लिखते हैं, जो कि एकदम जायज बात है, वही लेखक नागरिक सेवा के प्रत्‍याशियों को भारतीय नागरिक के तौर पर आंदोलन करने का हक देने के लिये तैयार तो नहीं ही है इसके साथ साथ उसे हिकारत की नजर से भी देखते हैं. और बहुसंख्‍यक भाषाई तबकों के प्रति दबंग अल्‍पसंख्‍यक भाषाई तबके में भरी हिकारत की इस गंध लेख के आरंभ व अंत में ही नहीं पूरे लेख में सूंघी जा सकती है.

लेखक भारतीय भाषाओं में से हिंदी की अलग से निशानदेही करके उसे केन्‍द्रीय सेवाओं में नहीं शामिल करने के लिये पांच तर्क देते हैं. इसकी एक वजह शायद यह है कि इससे भारतीय भाषाओं बनाम अंग्रेजी के मुद्दे को मोड़ कर उसे हिंदी बनाम बाकी भारतीय भाषाओं में तब्‍दील करके हिंदी को उनके खिलाफ खड़ा करना आसान हो जाता है. मेरे मुताबिक पांचों तर्कों में जबरदस्‍त खामियां हैं. ये सभी निहायत ही लचर तर्क हैं. उनके बोदेपने को समझने के लिये हमें बारी बारी से पांचों तर्कों की जांच करनी चाहिये.

पहले तर्क में लेखक कहते हैं कि तेजी से होते वैश्‍वीकरण और संस्‍थानों की वृद्धि के दौर में हमें नागरिक सेवाओं में बेहतरीन दिमाग चाहिये. वे कहते हैं कि सीसैट तार्किक क्षमता, समस्‍या समाधान, विश्‍लेषण क्षमताओं, बुनियादी संख्‍यात्‍मक या गणनात्‍मक योग्‍यता और अंग्रेजी के कौशलों की जांच करता है और दुनिया में करीब करीब सभी गंभीर परीक्षाओं(टीप मेरी – यानी सभी देशों) में इनकी जांच की जाती है.

तो पहले तर्क की बुनियाद यह है कि कुछ अन्‍य कौशलों के साथ अंग्रेजी के कौशलों की दुनिया की करीब सभी गंभीर परीक्षाओं में जांच होती है. सो भारत में भी होनी चाहिये.

यहां पर सबसे पहले यह साफ करना जरूरी है कि अगर वैश्‍वीकरण नहीं हो रहा होता और संस्‍थान पूरे विकसित हो चुके होते तो भी सिर्फ हमारे तो क्‍या किसी भी देश के राजकाज को चलाने के लिये सिर्फ बेहतरीन ही नहीं बेहद संवेदनशील दिमाग व दिल दोनों ही रखने वाले व्‍यक्तियों की जरूरत होनी चाहिये.

अब इस तर्क को देखें. इस तर्क में दो स्‍तर पर खोट हैं, पहली, जिन क्षमताओं की सूची उन्‍होंने दी है, उसमें सिर्फ अंग्रेजी को शामिल करना इसलिये ठीक नहीं हैं क्‍योंकि अंग्रेजी दुनिया में पाई जाने वाली दूसरी सैकड़ों भाषाओं में से एक भाषा  हैं, लेकिन ऐसी सैकड़ों गणितें(यहां पर वैदिक गणित का बात न करने लगियेगा, जो कुछ तेज गति से गणना करने के नुस्‍खों का संकलन मात्र है), सैकड़ों तार्किक क्षमतायें आदि नहीं है. यानी सूची में अंग्रेजी कौशल की जगह भाषाई क्षमतायें होना चाहिये. क्‍योंकि दुनिया का हर व्‍यक्ति ओर हर देश अंग्रेजी जानता बोलता हो न हो लेकिन किसी न किसी भाषाई क्षमताओं का इस्तेमाल जरूर करता है. दूसरा भाषा की एक खासियत है कि वह इस सूची के अंदर भी रहेगी और बाहर भी. क्‍योंकि बाकी सभी क्षमताओं में कभी कभार को छोड़ कर अक्‍सर भाषा की जरूरत पड़ती है, जैसे समस्‍या को किसी भाषा में लिख कर दर्शाना पड़ सकता है. यहां तक कि गणित में भी भाषा की जरूरत पड़ सकती है. यानी भाषा, भाषाई क्षमताओं में तो काम आती ही है बल्कि बाकी सभी क्षमताओं या विषय की जांच में भी काम में भी अक्‍सर काम आती है. यानी भाषा के पास दोहरी ताकत है जिसकी वजह से वह सिर्फ सूची के एक क्षेत्र पर ही नहीं सभी क्षेत्रों पर असर डालने की ताकत रखती है. असल में आप चाहें तो सूची में दी गयी क्षमताओं को सिर्फ दो हिस्‍सों में बांट सकते हैं – भाषाई क्षमतायें और तार्किक क्षमताएं. तार्किक संबंध गणित की बुनियाद होते हैं.

लेकिन ये दोनों तो थोड़ा गौर से देखने पर ऊपर से दिखाई पड़ जाते हैं, असली खोट तो इससे ज्‍यादा गहरी है. चूंकि भाषा इंसान के पास एकमात्र ऐसा औजार है जिसकी मदद से वह बाकी सभी की क्षमताओं – तार्किक और गणित दोनों भी शामिल है, को उच्‍चतम स्‍तर त‍क हासिल कर पाता है, जिसमें उसकी भावनायें, इंसानी संबंध व्‍यक्‍त होते हैं, समुदाय के साथ जुड़ाव होता है. और हर व्‍यक्ति अपनी क्षमताओं उच्‍चतम अभिव्‍यक्ति उसी भाषा में कर सकता है जो उसने शुरूआती बचपन में माता-पिता-पड़ोस से सीखी हो. हम जानते हैं कि हमारे सांस्‍कृतिक व भाषाई बहुल देश में एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों ऐसी भाषायें(जिनमें से कुछ आठवीं अनुसूची में दाखिल हो चुकी हैं)  हैं जो जिनमें बच्‍चे स्‍कूल में आने से पहले ही माहिर हो चुके होते हैं. शिक्षाशास्‍त्र के मुताबिक ऐसे बच्‍चे बड़े होकर अपनी क्षमताओं का बेहतरीन प्रदर्शन अपनी भाषा(ओं) में ही कर सकते हैं. नागरिक व अन्य सेवाओं के लिये उन्‍हें उनकी अपनी भाषा में उनकी क्षमताओं की जांच का मौका न देना, उन्‍हें संविधान में दिये गये अवसरों की बराबरी के अधिकार का एक अन्‍य संवैधानिक संस्‍था लोकसेवा आयोग द्वारा उल्‍लंघन करना है, जो कि आजादी के बाद से आज तक जारी है. असल में यह एक किस्‍म का भाषायी भेदभाव है, जिसका शिकार देश का बहुसंख्‍यक व बहुभाषाई तबका सालों से हो रहा है.

इसी तर्क के पीछे एक मान्‍यता यह भी छुपी हुई है कि कुछ खास क्षमताओं की जांच एक खास भाषा और भारत में औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी में ही हो सकती है. यह भाषा वैज्ञानिक नजरिये से और अनुभव के आधार पर भी गलत ठहरती है. दुनिया की हर भाषा हर तरह के ज्ञान का उत्‍पादन व उसे अभिव्‍यक्‍त करने व क्षमताओं का विकास करने के काबिल होती है, बशर्ते उनके बेटे/बेटियां उन्‍हें शैशवकाल से लेकर युवा होने तक भूख प्‍यास से बिलखने व मरने के लिये सड़क पर न छोड़ दें, जैसा कि हमारे देश की जनता व सरकार दोनों ने भारतीय भाषाओं के साथ कर रखा है. भाषा को भी विकास के लिये श्रम, समय, मेहनत आदि संसाधनों की जरूरत होती है. जो कि इस वक्‍त एक दबंग भाषाई तबके के कब्‍जे में है. असल में इस तर्क में एक दबंग भाषा के बरक्‍स बाकी भाषाओं को कमतर आंकने और उसकी आड़ में उन भाषाओं को बोलने वाले इंसानों को कमतर आंकने की दलील भी छुपी हुई है.

लेखक इस बात की तरफ से भी अपनी आंखें मूंदे रहते हैं कि दुनिया के कई देशों की राजभाषा अंग्रेजी नहीं है और वे प्रशासनिक सेवाओं के चयन के लिये अपनी राजभाषाई कौशलों की जांच व बाकी क्षमताओं की जांच के लिये भी  राजभाषा का इस्‍तेमाल करते हैं.

यानी पहले तर्क के लिये चुनी गयी क्षमताओं की सूची में तो खोट है ही उसके समर्थन में दी गई बात भी कम खोटी नहीं है.

दूसरा तर्क यह है कि भारत हरेक बोर्ड दूसरी भाषा के तौर पर अंग्रेजी सिखाता है. तो इसमें हिंदी भाषा के प्रति पूर्वाग्रह कहां आता है.

इस बात की तथ्‍यात्‍मक सत्‍यता तो मैं नहीं जानता लेकिन कुछ देर के लिये तर्क के लिये यह मान भी लें कि तो यहां पर यह बात जानबूझ कर नजरअंदाज की दी गयी है कि दूसरी भाषा के तौर पर अंग्रेजी सिखाने वाले सभी बोर्ड भाषा व साहित्‍य के तौर पर अंग्रेजी सिखाते होंगे, न कि विज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्‍त्र आदि के के तौर पर. तार्किक क्षमताओं का सबसे ज्‍यादा विकास गणित में होता है लेकिन दूसरे विषय भी तार्किक क्षमताओं के विकास में योगदान नहीं करते, ऐसा नहीं है. तो यहां पर एक पेंच है, वह यह कि क्षमताओं का विकास तो उनकी पहली या माता-पिता-पड़ोस की भाषा में किया जा रहा है लेकिन जांच के वक्‍त उनकी जांच उन बच्‍चों को सिखाई जाने वाली दूसरी भाषा में की जा रही है.

कितनी अजीब बात है दसियों साल से संघ लोकसेवा आयोग द्वारा चुनी गयी भारतीय अफसरशाही(असल में बाबूशाही) दस साल तक देश के करोड़ों बच्‍चों की जिन क्षमताओं को जिन भारतीय भाषाओं के सहारे सरकारी स्‍कूलों में विकसित करने की (अ)/सफल कोशिश करती है, राजकाज चलाने के लिये उसी भाषा में उन क्षमताओं की जांच की मांग करने वालों पर ‘’गये गुजरों और निकम्‍मों’’ की नागरिक सेवाओं में दाखिले के पैरोकार होने का तमगा लगाया जा रहा है. आखिर लेखक ने लेख का शीर्षक यूं ही नहीं चुना है. आप देख सकते है कि पहले तर्क की खोट दूसरे तर्क को भी खराब किये दे रही है.

तीसरा तर्क यह दिया गया है कि अगर चुनिंदा प्रत्‍याशी भारतीय विदेश सेवा के लिये चुन लिये गये तो क्‍या वे विदेशी भाषा सीखने से इंकार कर देंगे ? वे विदेश में बगैर अंग्रेजी और विदेशी भाषा के देश की नुमाइंदगी नहीं कर पायेंगे.

इसी तरह जिस राज्‍य में उनकी नियुक्ति होगी क्‍या वे वहां की भाषा सीखने से इंकार कर देंगे ?

जब किसी के तरकश में तर्क के तीर खत्‍म हो जाते हैं तो वह इस तरह के तर्क देने लगता है. अब आप देख सकते हैं कि लेखक को पहले तर्क में दुनिया में सिर्फ अंग्रेजी के कौशल नजर आ रहे थे लेकिन यहां आते आते उन्‍हें अन्‍य विदेशी भाषायें भी नजर आने लगीं. लेखक को इतना भी ख्‍याल नहीं रहा कि बहस में सवाल यह है कि चयन के लिये किस भाषा को क्षमताओं की जांच करने का आधार बनाया जाये न कि चयन के बाद की कौन कौनसी व कितनी भाषाएं सिखायी या सीखी जाये. इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है अगर सभी अंग्रेजीदाओं के लिये यह शर्त लगा दी जाये कि उन्‍हें नौकरी के लिये पहले राज्‍य चुनना होगा और उस राज्‍य की भाषा में सीसैट ही क्‍यों तमाम पर्चे देने होंगे तो उन सभी के  हाथों के तोते उड़ जायेंगे और मुझे पूरा यकीन है कि अंग्रेजी माध्‍यमों में परीक्षा देने वालों में से पास होने वालों का प्रतिशत 2-5 प्रतिशत के करीब पहुंच जायेगा.

चौथा तर्क यह है कि कुछ लोगों का तर्क यह है कि ये कौशल गैरजरूरी है. यह बात हंसी उड़ाने लायक है. ये प्रत्‍याशी कौन होते हैं कि परीक्षा में क्‍या जांचा जाये और क्‍या नहीं. ये तो सिर्फ लोकसेवा आयोग का काम है.

मैं पहले ही कह चुका हूं कि लेखक के तरकश में तीर दूसरे तर्क के बाद ही खत्‍म हो गये थे. चौथा तर्क इसका फिर से सबूत देता है. पहला तो वे कौशलों की सूची में घालमेल करते हैं. अंग्रेजी के कौशल और अंग्रेजी के माध्‍यम से सभी क्षमताओं की जांच करने को गैरजरूरी बता कर विरोध करने वालों के लिये यह कहते है कि वे सभी कौशलों का विरोध कर रहे हैं. फिर लेखक विरोध करने वालों की बात को मजाक उड़ाने लायक बताते हैं. यानी विरोध करने वालों की बात में खामी दर्शाने वाला कोई तर्क लेखक के पास नहीं बचा. यहां पर लेखक एक चतुराईभरी तकनीक काम में ले रहे हैं. वे विरोध के मुद्दों की सूची को फैला कर उसमें उन चीजों को शामिल किये दे रहे हैं जो कि वाजिब है. ताकि यह कहा जा सके कि देखो ‘’निकम्‍मे या गये-गुजरे’’ आंदोलनकारी या उनके समर्थक हैं जो उपयुक्‍त क्षमताओं की जांच की बात का भी विरोध कर रहे हैं. और इसके साथ ही वे विरोध करने वालों के समूह को बाकी समूहों से काट कर सिर्फ परीक्षा प्रत्‍याशियों तक ही सीमित कर रहे हैं ताकि यह कहा जा सके कि फलां समूह अपने जाती फायदे के लिये विरोध या आंदोलन कर रहा है.

आखिर मे वे देश के नागरिकों को सिर्फ प्रत्‍याशियों में तब्‍दील कर यह तय करने का जिम्‍मा लोक सेवा आयोग को सौंप देने की अपील करते है. इस दलील की जड़ें भारतीय अफसरशाही की एक जबरदस्‍त प्रवृति में है. जब आपके पास कोई दलील न बचे तो ऊपर वाले अफसर यानी बड़े बाबू या किसी दूसरी संस्‍था के सिर पर सोचने का जिम्‍मा डाल दो. लेखक इस बात से भी निगाहें फेरे रहता है कि ये सब आखिरकार किया धरा तो इसी लोकसेवा आयोग का तो है. इस तर्क पर तो सुदर्शन फाकिर का लिखा और जगजीत की गायी गजल का यह मिसरा एकदम सटीक बैठता है.

मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है

क्‍या(क्‍यों) मेरे हक में फैसला देगा.

पांचवा तर्क यह है कि असली मुद्दा बेहद आसान है काबिल अनुवादकों से अनुवाद करवाना चाहिये. अंग्रेजी से हिंदी में घटिया अनुवाद किसी गैर कल्‍पनाशील बाबू का काम है. जो शायद खुद भी घिसापिटा किसी ऐसे कुटुंब का हिस्‍सा है जो कि इस मुद्दे पर की गयी हिंसा में शामिल रहा है.

आखिरी तर्क तक आते आते लेखक तर्कों के अभाव में यह भी भूल जाते हैं कि वे किस मुद्दे पर तर्क कर रहे हैं. जिस घटना की वजह से इस आंदोलन व बहस की शुरूआत हुई उसकी जिम्‍मेदारी लेखक भारतीय अफसरशाही के किसी एक निचले दर्जे के बाबू पर डाल देते हैं. लेख में बगैर कोई सबूत दिये उस बाबू को आंदोलन के दौरान भड़की हिंसा में शामिल करार दे देते हैं. वैसे तो इस बात का प्रमुख मुद्दे – भारत में राजकाज के लिये काबिल लोगों के चुनाव की परीक्षायें भारतीय भाषाओं में होना चाहिये, से कुछ भी लेना देना नहीं है. क्‍योंकि अगर लोकतंत्र में अपनी जिम्‍मेदारी ठीक से निभाने और दूसरों को उनकी जिम्‍मेदारी निभाने के लिये मजबूर करने के लिये मुंह में जबान तथा दिल और दिमाग में अपनी भाषा के प्रति लगाव को जिंदा रखना एक जरूरी शर्त है तो सवाल यह उठना चाहिये कि क्‍यों दसियों सालों से देश का नेतृत्‍व, नौकरशाही से यह काम करवाने में नाकाम रहा.

फिर से यहां तक आते आते लेखक एक बार फिर भारतीय अफसरशाही असल में बाबूशाही की एक और प्रवृति का सबूत देने से नहीं चूकते – वह यह कि कोई मुश्किल आने पर जिम्‍मेदारी कभी मत लो, उसे किसी निचले दर्जे के बाबू के सिर मढ़ दो और जरूरत पड़ने पर उसका सिर कलम कर दो यानी उसे बर्खास्‍त कर दो. अगर पूरे देश के लिये काबिल व्‍यक्तियों के चुनाव के लिये भारत के संविधान में दी गयी दो राजभाषाओं में से एक में ठीक से पर्चे बनवाने का काम भारत की महान अफसरशाही नहीं कर सकती है तो बहुभाषी बहुसांस्‍कृतिक नागरिकों का उस पर सवाल उठाना फालतू का शोर शराबा कैसे हो गया. क्‍यों नहीं इसे भारतीय भाषाओं के लोकतांत्रिक हकों को हासिल करने की आवाज समझा जाये, जो एक ताकतवर अंदाज में आजादी के छह दशकों बाद पहली बार इतने जोर शोर से उठ रही है. वरना यहीं की लोकतांत्रिक सरकारें भारतीय भाषाओं के लिये किये जाने वाले आंदोलनों के तंबू अपनी कुंभकर्णी नींद और वक्‍त जरूरत पुलिसिया जोर के बूते उखाड़ती रही है.

यहां तक पहुंचते पहुंचते शायद लेखक को भी यह पता चल जाता है कि उनके तर्कों का जखीरा खाली हो चुका है इसलिये वे तर्कों पर नंबर डालना तो बंद कर देते हैं लेकिन तर्क देना जारी रखते हैं. पहले वे निराशा जाहिर करते हैं कि आजकल नागरिक सेवा में कुछ तो बेहतरीन और ज्‍यादा प्‍यादे या पैदल चलने वाले आने लगे हैं, इससे इसका स्‍तर गिरा है. फिर वे तर्क देते हैं कि तार्किक दिमाग और विश्‍लेषण क्षमता, सांख्यिकी की समझ आदि की जरूरत इस सेवा में होती है. इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि इन क्षमताओं की जरूरत कम ज्‍यादा हर काम में पड़ती है. लेकिन इस बात के समर्थन में वे जो अकेला उदाहरण चुनते हैं वह हैरान-परेशान करने वाला है. वे कहते हैं कि आजकल सरकारी नौकरों को बैलेंस शीटें भी पढ़नी पड़ती है, निजीकरण की जाने वाली सरकारी कंपनियों(पढ़ें- मुनाफा देने वाली सरकारी कंपनियों को कौड़ि‍यों के भाव बेच कर जनता की गाढ़ी कमाई लुटाने) की कीमत तय करनी पड़ती है. इस तर्क को पढ़ कर लगता है कि लेखक नागरिक सेवा में सरकारी नौकरों की भर्ती के मामले में नहीं बल्कि कारपोरेट के मुंशियों की भर्ती के लिये तर्क कर रहे हैं. क्‍या नागरिक सेवा में भर्ती किये जाने वाले लोगों का अहम मकसद देश के कुछ ताकतवर लोगों/लाबियों/घरानों आदि के हित में काम करना होना चाहिये या उनका मकसद यह होना चाहिये कि वे अपनी तमाम तार्किक व विश्‍लेषण क्षमता आदि का इस्‍तेमाल देश के नागरिकों के हित में करें.(वैसे संवेदनशीलता की काबिलियत का जिक्र लेखक ने कहीं किया नहीं है). नहीं तो लेखक को यह उदाहरण देना क्‍यों नहीं सूझा कि इन क्षमताओं की जरूरत देश की जनता, यहां के आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, अल्‍पसंख्‍यकों, औरतों, बूढ़ों, बच्‍चों व युवाओं की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिये है, देश के सभी नागरिकों को साफ पानी व शौचालय मुहैया करवाने, देश के सभी बच्‍चों के लिये अच्‍छी व मुफ्त शिक्षा मुहैया करवाने व सभी के लिये स्‍वास्‍थ्‍य के लिये मौजूदा संसाधनों को ठीक से इस्‍तेमाल करने ओर नये संसाधन जुगाड़ने से है.

आखिर में लेखक फिर से इस बात को याद दिलाते हैं कि नागरिक सेवाओं को दूसरे पेशों के निकम्‍मों या गये गुजरों के लिये आखिरी पनाह के तौर पर नहीं बन जाना चाहिये.

पूरे लेख में इस बात का कहीं भी जवाब देने की कोशिश नहीं की गयी है कि पिछले तीन साल से संघ लोकसेवा आयोग में भारतीय भाषायें और खास तौर पर हिंदी माध्‍यम से आने वालों का प्रतिशत गिर कर करीब करीब नगण्‍य तक क्‍यों पहुंच गया है. क्‍यों दो टके से भी कम लोगों द्वारा ठीक से बोली समझी जाने वाली भाषा तो बाकी अठानवे टका लोगों पर राजकाज चलाने के लिये व्‍यक्तियों के चयन के लिये उपयुक्‍त है और करोड़ों लोगों द्वारा बरती जाने वाली भारतीय भाषाओं में ऐसी कौन कौनसी खामियां हैं जो राजकाज करने के लिये उपयुक्‍त कौशलों के विकास व जांच के लिहाज से नाकारा है और इस सवाल से भी बचा गया है कि क्‍या संघ लोक सेवा आयोग के द्वारा तय किया गया चयन का तरीका भारत जैसे सांस्‍कृतिक बहुल देश के लिये उपयुक्‍त है. और कुछ हो न हो लेकिन इस लेख से एक बात फिर से शीशे की तरह साफ हो जाती है कि हमारे पास अंग्रेजी भाषा का एक ऐसा तबका व उसके नुमाइंदे हैं, जिनके पास दबंग भाषा के जरिये हासिल की गयी कुर्सी की ताकत भी है, और जो खाली तरकश से तीर चलाने में उस्‍ताद हैं.

 

3 thoughts on “सीसैट के जरिये सरकारी नौकरियों में दाखिले के खिलाफ एक आवाज के खिलाफ एक और आवाज – रविकांत”

  1. आपने बिलकुल सही पहचाना है। यह वही मानसिकता है जो चाहती है कि ऊँचे ओहदों पर बस समाज के कुलीनजन ही आसीन रहें। वही जिमखाना क्लब में दाखिल हों। वास्तव में यह ज़रूरी है कि ऐसे तर्क देने वालों की पहचान अच्छी तरह कर ली जाए जो अंग्रेज़ी के बल पर अपने ब्राह्मणवाद को छोड़ना नहीं चाहते और दूसरे सभी उन्हें निकम्मे नज़र आते हैं। आपका लेख पढ़कर बेहद खुशी हुई।

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  2. Very logically the writer has destroyed the arguments raised by the pompous brown sahib in support of his tribe. These civil servants(or is it masters of the state) have taken Indias administration over the ages to pathetic levels such that they cannot provide basic services to citizens. These self seeking bureaucrats have had the early advantage of English which they have monopolised to get jobs and created the IAS into a elite/ premier service far removed from the people they serve.And now they want to monopolise the civil service for their ilk. The CSAT is being opposed because it makes the logical/ analytical reasoning in English because probably if these same are in other language they would be too simplistic to solve. I would go a step further and ask for logical / reasoning tests in regional languages in CAT test for management also. Because nowhere is it proved that an MBA can be good one only in the English language. Thus the govt. which has utilised resources in creating the IIM must not confine them to the English speaking and thinking in english elites.

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  3. श्रीवत्स कृष्ण ने बहुत कुछ लिखा, बड़े आवेश में लिखा,चिंता के साथ लिखा , डर के साथ लिखा, पर क्यों ? अगर सिविल सेवा में उनकी परिभाषा अंतर्गत गए गूजरों का चयन 24 % तक पहुँच जाय तो उनको क्यों डरना चाहिए ? डर कर क्यों पाठ्यक्रम ही बदल देना चाहिए ? अगर ग्रामीण और साधारण लोग प्रवेश पाने लगे तो क्यों डर कर पूरी परीक्षा प्रणाली ही बदल देनी चाहिए ? लाख इसे सुधार कहें पर है तो ये एक रुझान ही .डर का रुझान .साजिस का रुझान ,लेखन में इतनी बेचैनी तो कुछ और इशारा करती है .
    मंगल ग्रहवासी श्रीवत्स कृष्ण की मुद्दे के प्रति समझ{ COMPREHENSION } और रुझान{APTITUDE} को देख कर मैं भारत की वर्त्तमान दशा के कुछ कारणों के प्रति आश्वस्त हो गया . यह जरा ठहर कर सोचने का समय है कि कितना कीमती सलाह दिया है .भारत की स्थाई कार्यपालिका जो भारत की जनता के लिए नीतियां बनाने में सक्रिय योगदान देती है और उसे लागू करती है , जो भारत की जनता को राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करने का काम करती है , उसके चयन प्रक्रिया का मामला उसके लिए एक “गैर मुद्दा” है . राष्ट्र को उसपे अपना कीमती समय जाया नहीं करना चाहिए . हाँ उसकी की बेचैनी जरूर जरुरी है .
    यह मुद्दे के प्रति हमारे और उसके समझ के फर्क का मसला नहीं है . यह एक साजिस का मसला है . यह उस जैसे कुछ लोगों के अपने हितों के लिए स्वयं के निर्माण किये गए समझ और रुझान के आतंक का मसला है . मसला है उस समझ और रुझान का जिसे भारत की बहुसंख्यक आबादी की समस्या एक गैर मुद्दा लगती है . उस समझ का जिसे ये फर्क नहीं पड़ता की कैसे नक्सलवाद अपने ही लोगों के बीच में एक साहसपूर्ण युद्ध में तब्दील हो गया है . उसके जैसों के लिए मुद्दा है कि अगर सब्सिडी ख़त्म कर दें तो जीडीपी बढ़ जाएगी . नरेगा में पैसा देने से किसान आलसी हो गया है .२६ रुपये में लोग अय्यासी कर रहें हैं .

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