भारत की कोरोना नीति के चंद नुक्सानदेह पहलू: राजेन्द्र चौधरी

Guest post by RAJINDER CHAUDHARY

कोरोना से हमारा वास्ता अभी लम्बे समय तक चलने वाला है. काफिला पर छपे पिछले आलेखों में (यहाँ एवं यहाँ) में हम ने इस के सही और गलत, दोनों तरह के सबकों की चर्चा की थी पर भारत की करोना नीति की समीक्षा नहीं की थी.  आपदा और युद्ध काल में एक कहा-अनकहा दबाव रहता है कि सरकार को पूरा समर्थन दिया जाए और उस की आलोचना न की जाय पर कोरोना के मुकाबले के लिए भारत में अपनाई गई रणनीति की समीक्षा ज़रूरी है; यह समीक्षा लम्बे समय तक चलने वाली इस आपदा में रणनीति में सुधार का मौका दे सकती है. कोरोना से कैसे निपटना चाहिए इस में निश्चित तौर पर सब से बड़ी भूमिका तो कोरोना वायरस की प्रकृति की है- ये गर्मी में मरेगा या सर्दी में या नहीं ही मरेगा; बूढों को ज्यादा मारेगा या बच्चों को, इन तथ्यों का इस से निपटने की रणनीति तय करने में सब से बड़ी भूमिका है. इस लिए भारत में कोरोना की लड़ाई के मूल्यांकन से पहले हमें वायरस की प्रकृति के बारे में उपलब्ध जानकारी को रेखांकित करना होगा.

कोरोना वायरस के नए स्वरूप की बुनियादी प्रकृति

कोरोना किस्म के वायरस वैज्ञानिकों के लिए नए नहीं हैं. ये पहले भी उभरते रहे हैं और वैज्ञानिक इन का लगातार अध्ययन करते रहे हैं. परन्तु हाल में कोरोना किस्म के वायरस का एक नया स्वरूप सामने आया है, जिस से उत्पन्न होने वाली नयी बीमारी को कोविड नाम दिया गया है.  इस लिए कोरोना के इस नए वायरस के बारे में अभी सब कुछ पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता. अभी इस की पड़ताल चल रही है.  फिर भी दुनिया भर के वैज्ञानिकों के मिले जुले काम से और कोरोना के पहले से उपलब्ध वायरसों के जीवन चक्र को ध्यान में रखते हुए कुछ बाते काफी हद तक स्पष्ट हैं.  इन के बारे में आम तौर पर वैज्ञानिकों में सर्वानुमति है. हालाँकि विश्व स्वास्थ्य संगठन को सर्वज्ञानी तो नहीं माना जा सकता परन्तु काफी हद तक इस द्वारा प्रदत जानकारी पर भरोसा किया जा सकता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रदत जानकारी उस की अपनी खोज न हो कर दुनिया भर में हो रहे काम का विशेषज्ञों द्वारा निकाला गया निचोड़ है. और वो निचोड़ निम्नलिखित है: कोरोना वायरस खांसी/छींक या बोलते हुए सांस के साथ निकली बूंदों/वाष्प कणों के माध्यम से ही फैलता है.  जब वाष्प कणों की नमी सूख जाती है तो उस के साथ निकला ये वायरस प्रभावी नहीं रहता. वायरस वाली बूंदे दो तरह से कोरोना को फैला सकती हैं. कोरोना संक्रमित व्यक्ति द्वारा खांसने/छींकने पर उस के सांस के साथ निकला वायरस सीधे बिना मास्क पहने उस के पास खड़े व्यक्ति में सांस के माध्यम से अन्दर जा सकता है या ये वाष्प कण किसी सतह पर पड़ जाते हैं और जब हम इस संक्रमित जगह को छूने के बाद, बिना हाथ साफ़ किये, अपने मुहं, नाक या आँख को छूते हैं, तो यह हमारे अन्दर जा सकता है.  यह वायरस सजीव नहीं है; न यह स्वयं प्रजनन कर सकता है; न यह चमड़ी के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर सकता और न यह अपने आप चल फिर सकता. जिन्दा रहने और संख्या वृद्धि के लिए यह किसी अन्य जीव पर ही निर्भर है. कोरोना वायरस औसतन 2 से 14 दिन के अन्दर या तो आदमी को गंभीर रूप से संक्रमित और बीमार कर देता है या यह ख़त्म हो जाता है.

हालाँकि कोरोना वायरस के बारे में लगातार नयी जानकारियाँ मिल रही हैं पर इस के बारे में ये बुनियादी जानकारियां बहुत जल्द ही सामने आ गई थी. इस लिए वायरस की इस मूल प्रकृति को ध्यान में रख कर शुरू से ही पूरी दुनिया में इस से बचने के लिए लगभग एक से नियम बनाए गए थे (हालाँकि इन्हें लागू करने की रणनीति और उस में मिली सफलता में ज़रूर देशो के बीच विविधता रही है) जो अब तक जारी हैं. मुख्य बात यह है कि अगर सार्वजानिक स्थान पर (1) सब लोग मास्क लगा कर रहें, (2) खांसते-छींकते वक्त मुहं/नाक को ढंके, और (3) जहाँ तक हो सके बाहर की चीज़ों को छूने से बचे, और क्योंकि कि बाहर रहते हुए पूरी तरह से अनजान सतह को छूने से बच नहीं सकते, इस लिए (4) हाथों को बार बार साबुन से धोएं एवं (5) मुंह, नाक और आँख को छूने से बचे. ये सावधानियां बरती जाएँ तो फिर हम कोरोना से बच सकते हैं. कोरोना के जीवन काल को ध्यान में रख कर ही संक्रमित व्यक्ति के एकांतवास की समय सीमा 14 दिन रखी गई है, क्योंकि इतने समय में इस का संक्रमण स्पष्ट तौर पर सामने आ जाता है या यह वायरस ख़त्म हो जाता है. अतिरिक्त सावधानी के तौर पर ही कहीं कहीं एकांतवास को थोडा बढ़ा दिया जाता है.

कोरोना के नए वायरस की इस बुनियादी प्रकृति के आधार पर ही दुनियाभर में आम तौर पर 3 से 4 हफ़्तों की तालाबंदी की गई है. स्वीडन जैसे कई देशों ने ने तो बड़े पैमाने पर तालाबंदी न कर के भीड़भाड़ से बचने भर के उपाय किये हैं.  तालाबंदी का उद्देश्य व्यक्ति को वास्तव में घर में बंद करना नहीं है क्योंकि उस की ज़रूरत ही नहीं है. तालाबंदी का मकसद भीड़भाड़ से बचाना भर है. यह भी याद रखना ज़रूरी है कि कोरोना फैलता भले ही तेज़ी से है पर यह बहुत घातक नहीं है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अधिकाँश मामलों में, लगभग 80% मामलों में, तो अपने आप, बिना संक्रमित व्यक्ति को पता चले, संक्रमण ख़त्म हो जाता है.  इस लिए कोरोना से बचने के लिए सावधानी ज़रूर बरती जानी चाहिए पर कोरोना का हव्वा भी नहीं बनाना चाहिए.

 ‘जहाँ हो, वहीँ रहो’ नीति की समीक्षा

कोरोना के नए वायरस के बारे में उपलब्ध इन तथ्यों के आधार पर आइये अब भारत में इस के रोकथाम के लिए किये गए उपायों की समीक्षा करें. सब से पहली बात तो यह है कि अगर भारत सरकार समय रहते करवाई करती, विदेश से आने वाले सभी लोगों की संक्रमण पड़ताल करती और केवल उन के लिए एकांतवास लागू कर देती, तो देश में तालाबंदी की नौबत ही नहीं आती. अगर विदेश यात्रा बंद/नियंत्रित हो जाती, तो देश के अन्दर कोई भी रोक लगाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता. दूसरा बड़ा निर्विवाद तथ्य यह है कि कोरोना के लिए तालाबंदी बिना पूर्व तैयारी और चेतावनी के, एकायक की गई. कोरोना भूकंप की तरह एकायक भारत में नहीं आया था; कम से कम इटली और यूरोप में लागू होने के बाद तो यह आईने की तरह साफ़ था कि देर-सवेर तालाबंदी हमारे देश में भी लागू होगी.  इस लिए इसको एकदम से लागू करने की बजाय घोषणा के 3-4 दिन बाद और कदम दर कदम लागू किया जाना चाहिए था.  पहले बाकी दफ्तर इत्यादि बंद होते और फिर कुछ दिन बाद यातायात बंद होता. निश्चित तौर पर ऐसे करने से लोगों की आवाजाही बढ़ जाती। पर दो कारणों से इस से कोई विशेष परेशानी नहीं होनी थी.  पहला, तो उस समय तक देश में कोरोना का बड़े पैमाने पर फैलाव नहीं हुआ था और दूसरा अगर कोई अ-चिन्हित परन्तु संक्रमित व्यक्ति था भी तो वह तालाबंदी से पहले भी घूम-फिर रहा ही था और लोगों को संक्रमित कर रहा था, फर्क इतना ही पड़ना था कि वो अब यह संक्रमण एक स्थान पर न फैला कर दूसरे स्थान पर फैलाता. सब से बड़ी बात यह है कि लोगों को अपने घर-ठिकाने पर जाने देने का कोई विकल्प नहीं है. पहले तो आप लोगों की ‘जहां हैं वहां’ रोकने की पूरी व्यवस्था कीजिए, उन को विश्वास दिलाएं कि उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी. तालाबंदी लागू करने से पहले खाली पड़े स्कूल-स्टेडियमों में इस की व्यवस्था करना संभव था। और अगर इस पूरी तैयारी और आश्वासन के बावजूद, किसी भी कारण से, कोई अपने घर जाना चाहता है तो उन्हें अपने ठिकाने पर पहुंचने का मौका देना चाहिए था (जो तालाबंदी के दूसरे दौर के अंतिम समय में शुरू किया गया है). पर ऐसा न कर के, बिना किसी पूर्व तैयारी, व्यवस्था एवं चेतावनी के, तालाबंदी एकायक लागू कर दी गई.  जब लाखों लोग सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलने का खतरा मोल ले कर भी घर से निकल पड़े तो प्रशासन के हाथ पाँव फूल गए.  फिर उतनी ही कठोरता से उन के चलने पर भी रोक लगा दी गई और जो जहाँ था उस को वहीँ रोक दिया गया. सरकारी घोषणाओं के अनुसार ऐसे प्रवासी मजदूरों के रहने, खाने पीने की पर्याप्त व्यवस्था कर दी गई थी. रहने खाने की बिलकुल चाकचौबंद व्यवस्था के दावों के साथ साथ कुछ ‘बिगडैल’ लोगों द्वारा नखरे करने, बिरयानी की मांग करने की और स्वास्थ्य कर्मियों पर हमले करने की खबरे भी आती रही.

इस व्यवस्था की हकीकत क्या थी? जब स्वास्थ्य कर्मियों को आवश्यक जीवन रक्षक सुविधाएँ न मिलने की ख़बरें, बल्कि डाक्टरों/स्वास्थ्य कर्मियों की हड़ताल तक की खबरे आती रही हैं, तो गरीब प्रवासी मजदूरों के लिए की गई व्यवस्था का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है.  फिर भी भारत एक विशाल देश है और सब जगह एक जैसी व्यवस्था नहीं रही होगी. इस लिए यह कहा जा सकता है कि व्यवस्था अच्छी ही थी पर कहीं कहीं छोटी मोटी गड़बड़ रह गई होगी.  पर अगर हम एक तुलनात्मक बेहतर व्यवस्था की पड़ताल करें तो लोगों को जहाँ हैं वहां बंद करने की व्यवस्था एवं इस की उपयोगिता का एक ठोस अंदाजा हमें मिल सकता है. गुरूद्वारे अपनी व्यवस्था और सेवा भाव के लिए जाने जाते हैं. विशेष तौर पर सेवाभाव से निशुल्क एवं बड़े गुरुद्वारों में नियमित चलाई जाने वाली उन की लंगर व्यवस्था, जगत प्रसिद्ध है. सिक्ख धर्म के जो पांच तख़्त साहिब गुरूद्वारे हैं वो तो काफी साधन संपन्न और सुसंचालित हैं. जब देश में तालाबंदी लागू हुई तो महाराष्ट्र के नांदेड साहिब गुरूद्वारे में, जो इन पांच तख़्त साहिब गुरद्वारों में से एक है, 4000 के करीब तीर्थ यात्री फंस गए थे. उन में से कई लोग अपने स्तर पर वापिस पंजाब आने के लिए बहुत महंगी व्यवस्था कर के निकल भी पड़े थे पर उन्हें रास्ते से वापिस भेज दिया गया. अब अप्रैल के आखिर में, तालाबंदी के बीच में ही, उन्हें वहां से वापिस पंजाब लाया गया है.  इन में से बहुत से कोरोना वायरस से पीड़ित पाए गए हैं और अब फिर उन्हें 14 दिन के लिए एकांतवास में रखा गया है.

इस अनुभव से दो बाते स्पष्ट होती हैं. एक तो इन तीर्थयात्रियों को नांदेड़ में रोक कर रख तो लिया गया पर वहां कोरोना के संक्रमण को रोकने लायक व्यवस्था नहीं थी. अगर वहां कि व्यवस्था ठीक होती तो 30-35 दिन की नज़रबंदी के बावजूद वो लोग कोरोना संक्रमित नहीं पाए जाते. और अगर तीर्थयात्रियों के लिए ऐसी व्यवस्था थी, और वो भी साधन संपन्न गुरुद्वारों में, तो भले ही कुछ अपवाद हों, गरीब प्रवासी मजदूरों के लिए की गई व्यवस्था का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. दूसरा सवाल यह उठता है कि जब तालाबंदी की अवधि के दौरान ही उन्हें वहां से निकाल कर अपने घर लाना पड़ा तो ‘शुरू में जो जहाँ है वहां बंद रहे’ की नीति अपनाने की क्या ज़रूरत थी? ये तो भला हो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का जिस ने केन्द्रीय सरकार के दिशा निर्देशों की अवहेलना करते हुए तालाबंदी के दूसरे चरण में कोटा से छात्रों को निकाल कर घरों को भेजने की शुरुआत की. इस के बाद ही मजदूरों को अपने घर ठिकाने भेजने की शुरुआत हुई है. क्योंकि उत्तर प्रदेश में बीजेपी के योगी की सरकार थी इस लिए वो ये जुर्रत कर पाई और केंद्र ने न केवल अपनी अवहेलना को नज़रंदाज़ किया अपितु इस के लिए बाद में अपनी औपचारिक अनुमति भी प्रदान की (हालाँकि उस से कुछ दिन पहले ही केरल सरकार को आँख दिखा कर यह कहा गया था कि केंद्र के दिशा निर्देशों में राज्य अपने स्तर पर कोई छूट नहीं दे सकता).

‘जहाँ हो, वहीँ रहो’का दूसरा चरण

तालाबंदी के दूसरे चरण में शुरू की गई मजदूरों, छात्रों इत्यादि की इस आवाजाही से यह बिलकुल स्पष्ट हो गया है कि शुरू में अपनाई गई ‘जहाँ हो, वहीँ रहो’ की नीति गलत थी. पर दुर्भाग्य से अटके हुए लोगों को अपने घरों को भेजने की देर-आयद दुरुस्त आयद कवायद शुरू होने के साथ ही बिलकुल उल्टा काम भी शुरू हो गया है. आपदा काल में जारी आवश्यक सेवाओं में काम करने वालों पर भी जगह जगह एक राज्य/जिले से दूसरे राज्य/जिले में आने जाने पर अब कड़ाई से रोक लगाईं जा रही है, पास होने के बावजूद रोक लगाई जा रही है. अधिकारी बेहद लापरवाही से कह रहे हैं ‘हम नहीं जानते पर आप रोज़ आ जा नहीं सकते, चाहे जो करो, चाहे छुट्टी लो या अपने रहने की वहीँ व्यवस्था करो’.  इस के चलते न केवल कुछ कर्मचारियों को समस्या का सामना करना पड़ रहा है अपितु आवश्यक सेवाओं को जारी रखने में भी समस्या आ रही है. क्योंकि दूसरे दौर की तालाबंदी के दौर में ऐसे आने जाने की ज़रूरत तो उन्हें ही पड़ रही थी जो आवश्यक सेवाओं में कार्यरत हैं. तीसरे दौर की तालाबंदी में भी यह नीति जारी है.

एक मिनट के लिए कर्मचारियों की समस्या या आवश्यक सेवाओं को जारी रखने में होने वाली परेशानी को नज़रंदाज़ भी कर दें, क्या राज्य या जिलों के बीच आवाजाही पर रोक लगाना कोरोना संक्रमण रोकने के लिए उपयोगी भी है? अगर कोई व्यक्ति संक्रमित है तो उसे हस्पताल या घर में बंद रहना चाहिए.  अगर किसी व्यक्ति को शहर के अन्दर घूमने की छूट है, तो वो छूट शहर की सीमा पर आ कर ख़त्म नहीं होनी चाहिए; क्योंकि अगर कोई व्यक्ति संक्रमित है और हस्पताल या घर में बंद नहीं है और लापरवाह भी है, तो वो जहाँ भी रहेगा संक्रमण फैलाएगा, चाहे इस राज्य/जिले में रहे या किसी और में. और अगर कोई व्यक्ति संक्रमित नहीं है और पूरा परहेज़ बरतता है, तो वो चाहे कहीं भी रहे क्या फर्क पड़ता है? इस लिए अंतर राज्य या अंतर जिला आवाजाही पर रोक लगाने का मकसद कोरोना के फैलाव पर रोक लगाना नहीं है अपितु इस के पीछे इतना भावना भर है कि मेरी गली साफ़ रहे, बाकी चाहे कहीं कूड़ा फैंको.

एक प्रशासक के नजरिये से ऐसा करने का लालच समझ में आ सकता है. निश्चित तौर पर हर व्यक्ति चाहेगा कि उस की ज़िम्मेदारी के क्षेत्र में कोरोना के मामले न बढ़ें, वो संतरी, लाल या बंद क्षेत्र में न बदले, पर सवाल यह है कि वो सीमा रेखा देश की सीमा पर हो, राज्य की सीमा पर हो, जिले की सीमा पर हो या खंड और गाँव की सीमा पर हो, और यह कैसे और कौन तय करे. हर गाँव का स्वास्थ्य अधिकारी तो यह चाहेगा कि गाँव के बाहर आना जाना बिलकुल न हो पर क्या यह सब गाँव वालों के हित में है? क्या ऐसा हो सकता है? 21वीं सदी में जब देशों के बीच की आवाजाही ही बहुत बढ़ चुकी है, तो देश/राज्य के अन्दर का दैनिक जीवन तो उस से कहीं अधिक गुंथा हुआ है, एकायक उस को तोड़ कर अलग नहीं किया जा सकता.  उदहारण के लिए दिल्ली, गुरुग्राम, फरीदाबाद और नॉएडा भले ही प्रशासनिक तौर अलग अलग इकाई हों पर वस्तुत: परस्पर गुथे हुए हैं और ऐसी ही स्थिति पूरे देश में है. इस लिए अंतर राज्य/जिले में कम से कम स्वीकृति गतिविधियों के लिए आवाजाही पर रोक न लगा कर तालाबंदी के पीछे की मूल भावना समझें; वह है भीड़ से बचना, असुरक्षित व्यवहार से बचना. तालाबंदी का यांत्रिक अर्थ ले कर, पर्याप्त दूरी बना कर गली में सैर करने पर रोक लगाने का कोई औचित्य नहीं है (हो सकता हो आप को हैरानी हो पर उच्च न्ययालय में इस पर रोक लगाने के लिए भी केस दायर हुआ है और घर के बाहर मोटर साईकिल धोने पर भी हथकड़ी पहनाई गई है).

संक्रमण से बचने के लिए किये गए अन्य उपाय

हर वस्तु, हर उपाय की एक कीमत भी चुकानी पड़ती है और कई बार होता यह है कि लाभ किसी को होता है और कीमत किसी और को चुकानी पड़ती है. इस लिए कोरोना रोकने के लिए किये गए हर उपाय की कीमत का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए. इस के कुछ उदहारण देने ज़रूरी हैं. लम्बे समय तक भीड़ से पूरी तरह बचना भी संभव नहीं है; इसे कम किया जा सकता है और ज़रूर किया जाना चाहिए पर एकायक न तो स्कूल/कालेज के कमरों की संख्या दुगनी हो सकती है, न उन का क्षेत्रफल बढाया जा सकता है और न स्कूल कालेज की जगह आन लाइन पढाई ले सकती है. हाल ही में केंद्र सरकार ने, यह भूल कर की हमारे यहाँ आम तौर पर सीट पर बैठे लोगों से ज्यादा लोग खड़े हो कर या छत पर चढ़ कर सफ़र करते हैं, न केवल बसों में यात्रियों की संख्या आधी करने के आदेश दिए हैं अपितु बसों की संख्या भी आधी करने के आदेश दिए हैं. अब बसों की संख्या आधी करने से क्या फायदा होगा, यह समझ से परे है पर यह साफ़ है कि बसों में यात्रियों की संख्या आधी करने का अर्थ है कि निश्चित तौर पर बसों के किराये कम से कम दो गुने करने पड़ेंगे. ऑटो में दो यात्रियों की सीमा करने का अर्थ है (मेरे शहर में) भाड़ा 15 रुपये सवारी से बढ़ कर 50-60 रुपये सवारी करना पडेगा. रोहतक में हरियाणा में थोक/मुख्य सब्जी मंडी की भीड़ से बचने के लिए प्रशासन ने सब्जी मंडी को अपने वर्तमान स्थल पर बंद कर के दो अन्य जगहों पर मंडी लगाने के आदेश दिए हैं. अब क्या एकायक एक स्थान से उजड़ कर दूसरे ही दिन कहीं पर कोई व्यापार या उद्योग शुरू हो सकता है? और ये भी तब जब इसी प्रशासन द्वारा दो दिन पहले दिए गए फुटकर सब्ज़ी बिक्री के स्थान परिवर्तन का आदेश असफल हुआ और वापिस लेना पड़ा.  तालाबंदी के तीसरे दौर में किसी वस्तु की दुकानों के खुलने का समय 9 बजे रखा है और किसी का 10 बजे तो किसी का 7 बजे. ऐसा नहीं है कि केवल रोहतक प्रशासन ही ऐसे तुगलकी फरमान दे रहा है.  निश्चित तौर पर कई और जगह भी प्रशासन ऐसे आदेश दे रहा होगा रोज़-रोज़ बदलते आदेशों, दुकानों के समय और अवधि के बारे में अनिश्चितता के चलते ही काफी हद तक भीड़ की स्थिति बनती है. अगर दुकानों के खुलने के बारे में निश्चितता हो तो काफी हद तक भीड़ पर रोक लग जायेगी.

अगर तालाबंदी को सही तरीके से लागू किया जाए तो यह निश्चित तौर पर यह उपयोगी है. समाचार पत्रों के अनुसार इराक, आस्ट्रिया, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड समेत 6 देशों में मात्र 25 दिनों में संक्रमित व्यक्तियों की संख्या में 90% की कमी हो गई है यानी चार हफ़्तों से कम समय में कोरोना को लगभग ख़त्म कर दिया है. इस के उलट, अगर तालाबंदी सही तरीके से लागू न किया जाए तो भले ही कितने दिन इस को जारी रख लो, समस्या से निजात नहीं मिलेगी.

इस लिए, संक्रमण रोकने के लिए बाल कटाने या शेव कराने के लिए अपने घर से तोलिया, कपड़ा और सेविंग ब्रश लाने या  दोपहिया वाहन पर केवल एक ही व्यक्ति चल सकता है और कार में अधिकतम 3 लोग, जैसे भीड़भाड़ से बचने के उपायों को भी रद्द करना होगा. अब जब बड़े पैमाने पर इस की जानकारी लोगों को हो चुकी है, इस लिए कुछ हद तक, हमें लोगों के विवेक पर भी भरोसा करना चाहिए. छूट मिलने के बावज़ूद, अगर लोगों के लिए संभव हुआ, तो बिना सरकारी आदेशों के भी लोग भीड़ भाड़ वाली जगह से दूर रहेंगे. हाँ, सावधानी के तौर पर कोरोना पीड़ित व्यक्ति के लिए एकांतवास की कानूनी अनिवार्यता जारी रह सकती है. इस के साथ ही यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि किसी को भी उस की मर्ज़ी के खिलाफ़ ऐसी भीड़ भरी जगह में काम न करना पड़ें जहाँ वह अपने आप को कोरोना से न बचा पाए. इस के लिए वैकल्पिक इंतजाम की व्यवस्था होनी चाहिए. जैसे पागल कुत्ते के काटने पर, रेबिस एवं हैजा जैसे छूत के मामलों में सवैतनिक छुट्टी के प्रावधान हैं (कम से कम हरियाणा/पंजाब में यह प्रावधान है), ऐसी ही व्यवस्था करोना संक्रमित व्यक्ति के लिए भी की जानी चाहिए. समाज के सभी वर्गों के लिए- सरकारी, गैर सरकारी एवं निजी व्यवसाय में लगे हर व्यक्ति के लिए न्यूनतम भरपाई के साथ इसे लागू किया जाना चाहिए.

भारत सरकार की सफलता या जाँच में ढील

 एक ओर यह दावा किया जा रहा है कि मोदी सरकार की कड़ी करवाई के चलते भारत में कोरोना काफी हद तक नियंत्रित रहा है, तो दूसरी ओर यह कहा जा रहा है कि कोरोना के संक्रमण के आंकड़े भारत में इस लिए कम है क्योंकि कोरोना जांच बहुत कम हो रही है. ये दोनों ही बाते गलत हैं. भले ही सीमित जांच के चलते संक्रमण के आंकड़े वास्तविक संक्रमण को न दर्शा पा रहे हों पर जांच की कमी के चलते कोरोना के कारण हुई मौत के आंकड़े तो कम नहीं हो सकते. हालाँकि मौत के आंकड़ों को भी बिलकुल सटीक नहीं माना जा सकता, अमरीका और चीन में भी इन आंकड़ों को बाद में बदला गया है, पर अगर कोरोना के चलते भारत में मौत की घटनाएं बहुत अधिक होती तो वो छुपी नहीं रह सकती थी. संक्रमण छुपा रह सकता है क्योंकि इस कोरोना का प्रभाव कई बार सामान्य फ़्लू जैसा ही होता है पर कोरोना से होने वाली मौत तो नहीं छुप सकती. इस लिए कोरोना से मौत के आंकड़ों को मोटे तौर पर विश्वसनीय माना जा सकता है. बल्कि यह उचित होगा कि संक्रमण के आंकड़ों के स्थान पर कोरोना से होने वाली मौतों पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए.  इन मौतों के दुगने होने की रफ़्तार कोरोना से हमारी लड़ाई का ज्यादा सटीक आंकलन कर सकती है.

हालाँकि भारत में तुलनात्मक रूप से संक्रमण के कम फैलाव या घातक होने के कारणों बाबत अभी निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है, पर कई वैज्ञानिकों ने इस के लिए प्राकृतिक कारणों को ज़िम्मेदार माना है (जैसे एक दावा यह है कि जहाँ मलेरिया फैलता है वहां कोरोना कम प्रभावी होता है, दूसरा दावा है जहाँ खसरे का टीका लगता है वहां यह कम फैलता है). परन्तु निश्चित रूप से इस बारे में अभी कुछ कहना ज़ल्दबाजी होगी. जहाँ तक भारत सरकार की करवाई के मूल्यांकन का प्रश्न है, कई बाते पहले आ गई हैं पर उन के अलावा भी सरकार ने कई बड़ी चूक की हैं. मसलन, जिस उपाय को लागू राज्य सरकारों को करना हो, उस आदेश को बिना राज्य सरकार की सलाह मशविरे के जारी करना कहाँ की समझदारी है? और जब देर से ही राज्य सरकारों से सलाह मश्विरा शुरू भी किया गया तो भी कई मुख्यमंत्रियों की यह शिकायत रही कि उन को बोलने का मौका ही नहीं दिया गया.  ये कैसा विचार-विमर्श है जिस में राज्य सरकारों तक को बोलने का मौका नहीं दिया जाता? और जहाँ राज्य सरकारों को बोलने का मौका न मिले, वहां आम जनता की कैसी सुनवाई होती होगी, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. काफी समय से देश-दुनिया में यह प्रथा बनी हुई है कि सरकार कोई नयी नीति लागू करने से पहले उस का मसविदा सार्वजानिक कर के आम जनता से सुझाव मांगती है और उस के आलोक में उस नीति/निर्णय को अंतिम रूप दिया जाता है. वर्तमान भारत सरकार भी हमेशा तो नहीं पर यदाकदा ऐसा करती है. फिर क्यों नहीं कोरोना/तालाबंदी संबंधी निर्णय लागू होने से पहले प्रारूप के तौर पर सार्वजानिक किये जा सकते ताकि देश की जनता को भी अपनी राय रखने का मौका मिले? निरंकुशता के अलावा इस का कोई कारण समझ नहीं आता.  आम जनता की छोड़ों, राज्य सरकारों, जिन को ये निर्णय लागू करने होते हैं हैं, उन को पहली बार 4 मई से लागू होने वाले बदलावों की सूचना 2-3 दिन पहले मिली है.  इस से पहले, विशेष तौर पर 20 अप्रेल से हुए केंद्र के निर्देशों में बदलावों की सूचना, जिन को अंतिम रूप राज्य सरकारों को देना होता है, तो राज्यों को पूर्व संध्या पर ही मिली. इस के चलते अगले दिन, 20 अप्रैल को जगह जगह झगडे होते रहे और दिल्ली में तो अंतत राज्य सरकार को कहना पड़ा कि उन के पास केंद्र के दिशा निर्देशों को ज्यों का त्यों लागू करने के अलावा अपने विवेक के प्रयोग का विकल्प ही नहीं बचा.

भारत सरकार ने और भी कई निर्णय ऐसे लिए हैं जो समझ से परे हैं. आरोग्य सेतू नामक एप्प को अनिवार्य बना दिया गया है. आरोग्य एप्प हर कर्मचारी चाहे वह सरकारी हो या निजी क्षेत्र का, बल्कि बंद छावनी क्षेत्र के हर व्यक्ति के लिए (एवं रोहतक में तो हर दुकानदार और उस के हर ग्राहक के लिए भी) अनिवार्य कर दिया गया है. आरोग्य एप्प को केवल फोन में डाल लेने मात्र से काम नहीं चलेगा, इस के लिए फोन और इन्टरनेट 24 घंटे खुला रखना होगा. यह न केवल कानूनी रूप से ज़रूरी है अपितु संक्रमण रोकथाम का इस का तथाकथित फायदा भी तभी होगा जब फ़ोन, एप्प और इन्टरनेट 24 घंटे खुला रखा जाए और सभी ऐसा रखें. आरोग्य एप्प से जुड़े डाटा सुरक्षा के अत्यंत गंभीर मुद्दे को भी एक मिनट के लिए नज़रंदाज़ कर दें, तो उन का क्या होगा जिन के पास स्मार्ट फोन (या फोन) ही नहीं है (हाल में सरकार ने बिना मोबाईल फोन के लैंड लाईन पर भी आरोग्य सेतू पंजीकरण की सुविधा उपलब्ध कराई है पर यह नाममात्र की है और इस का नाम ही सामान है वरना इस की मोबाईल पर उपलब्ध एप्प से कोई समानता नहीं है)? या समार्ट फोन है भी तो उन के पास लगातार इस एप्प को खुला रखने लायक पर्याप्त बैलंस या पावर बैक अप ही नहीं है? शहरी मध्यम वर्ग को ये दिक्कत न आती हो पर ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत से लोग इस लिए इन्टरनेट बंद कर देते हैं कि बैटरी बची रहे. किसी भी वस्तु को अनिवार्य करने से पहले उस की उपलब्धता तो सुनिश्चित की जानी चाहिए.

उपरी तौर पर देखने में यह कहना ठीक लगता है कि जिलों –हरा, संतरी, लाल या पूरी तरह बंद क्षेत्र का वर्गीकरण हर सप्ताह बदलता रहेगा, पर अनिश्चितता की स्थिति में कोई उद्योगपति कैसे अपना काम धंधा शुरू करने का खतरा मोल ले सकता है? सड़क पर ट्रक चालकों की स्क्रीनिंग या पड़ताल करने का क्या अर्थ है. अगर उस का तापमान ज्यादा मिला तो क्या करोगे? दूसरा चालक उपलब्ध कराओगे या ऐसे वाहनों को नाके पर खड़ा कर के भीड़ बढाओगे और आवश्यक उत्पादों की उपलब्धता को बाधित करोगे? यह सीमित स्वास्थ्य कर्मियों का दुरूपयोग नहीं तो क्या है? आवश्यक सेवाओं वालो को छोड़ कर शाम 7 बजे से लेकर सुबह 7 बजे तक पूरे देश में घर से बाहर निकलना बंद कर दिया है और वो भी गर्मियों के दिनों में जब लोग भोर सुबह से काम शुरू कर देते हैं और देर रात तक बाहर रहते हैं. इस का क्या फायदा होगा यह तो पता नहीं पर इस से किसी बेपरवाह पुलिस वाले को किसी गरीब पर डंडा फटकारने का, किसी भ्रष्ट अफसर को जेब भरने का और सरकार को विरोधी को परेशान करने का मौका ज़रूर मिल जाएगा

इसी तरह जगह जगह पूरे शरीर को अ-संक्रमित करने के लिए गुफा रूपी व्यवस्था की गई जिस में गुजरना अनिवार्य कर दिया गया और उस में घुसते ही अ-संक्रमित करने के लिए व्यक्ति पर दवाई का छिड़काव हो जाता है.  भले ही बरेली में सड़क पर लोगों पर किये जा रहे ऐसे छिड़काव के फोटो छपने पर आलोचना हुई हो, पर उत्साही लोगों ने इस के नए नए तरीके ईजाद कर के जगह जगह सरकारी दफ्तरों, हस्पतालों में घुसने से पहले पूरे शरीर पर छिड़काव की व्यवस्था कर भी दी है. यह इस के बावजूद है कि ऐसे पूरे शरीर पर छिड़काव करना स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ है. स्वास्थ्य मंत्रालय तक ने ऐसा करने के खिलाफ दिशा निर्देश जारी किये हैं. कोरोना को नियंत्रित करने की हडबडाहट में हमें बुनियादी वैज्ञानिक सिद्धांतों को नहीं भूलना चाहिए. इसलिए सरकार बिना पर्याप्त और स्वतंत्र पड़ताल के नए नए उपाय न लागू करें. यह ध्यान रहे कि आने वाले दिनों में वैक्सीन जारी करते हुए ऐसी लापरवाही न की जाए जैसी त्वरित टेस्ट प्रणाली लागू करने में की गई थी. इस को लागू करते ही तुरन्त वापिस करना पड़ा (चीन से लगभग 12 करोड़ में खरीदी गई ये किट सरकार को 30 करोड़ में देने का समझौता हुआ था, इस आशय की खबरे भी हैं).

कोरोना से निपटने की रणनीति का सब से चिंताजनक पक्ष यह है कि इस के विरोध की कोई गुंजाईश नहीं छोडी गई है. सड़क पर निकल कर विरोध करने पर रोक है और अदालते भी लगभग बंद हैं. सवाल उठता है कि जब शादी के लिए 50 व्यक्तियों को इकट्ठे होने की छूट दी गई है, तो अन्य सामजिक कामों के लिए क्यों नहीं? कोरोना की वर्तमान स्थिति की समीक्षा के लिए 50 लोग क्यों नहीं इकट्ठा हो सकते? न इंसान बिना मिले जुले रह सकता (इस लिए ही इंसान को सामजिक जीव कहते हैं) और न जनतंत्र बिना सामूहिक, आमने सामने के विचारविमर्श के बिना संभव है. और जिस तरह से देश में बड़े पैमाने पर कोरोना की आपदा के लिए निजामुदीन में हुई एक बैठक को ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है (भले ही सरकार द्वारा औपचारिक तौर पर ऐसा न किया गया हो, पर विशेष तौर पर शासक दल से जुड़ें संगठनों और उस के नेताओं द्वारा तो यही किया गया), वहां कोरोना से पार पाना बड़ा मुश्किल ही होगा.  किसी भी आपदा का प्रभाव केवल आपदा की प्रकृति पर पर निर्भर नहीं होता, यह इस पर भी निर्भर करता है कि इस का मुकाबला कैसे किया जाता है. इस मामले में हमारी सरकार का रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं है.

पुनश्च: हरियाणा सरकार के दिशा निर्देशों के अनुसार बिना स्वास्थ्य विभाग की अनुमति के कोरोना/कोविड के बारे में कोई भी सूचना छापना अवैध एवं दंडनीय है. क्योंकि यह लेख बिना सरकार की अनुमति के छापा जा रहा है इस लिए यह अवैध है पर संभवत अभी तक इस का पढ़ना अवैध नहीं है.

(लेखक अर्थशास्त्र विभाग, म.द. विश्वविद्यालय, रोहतक, हरियाणा से सेवानिवृत प्रोफेसर हैं. rajinderc@gmail.com)

3 thoughts on “भारत की कोरोना नीति के चंद नुक्सानदेह पहलू: राजेन्द्र चौधरी”

  1. Continue file does not get opened. Any problem. Last post has the same problem Chhaya Datar

    On Wed, May 20, 2020 at 8:57 AM KAFILA – 12 YEARS OF A COMMON JOURNEY wrote:

    > Aditya Nigam posted: “Guest post by RAJINDER CHAUDHARY कोरोना से हमारा > वास्ता अभी लम्बे समय तक चलने वाला है. काफिला पर छपे पिछले आलेखों में (यहाँ > एवं यहाँ) में हम ने इस के सही और गलत, दोनों तरह के सबकों की चर्चा की थी पर > भारत की करोना नीति की समीक्षा नहीं की थी. आपदा और यु” >

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    1. Can’t figure out why because it is opening on my computer/ browser. Actually I also tried on my phone and it is opening. Try deleting your browsing history with cookies. It should work. Some cookies have got downloaded on your browser perhaps that might be preventing it from opening.

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