कितनी कठिन है न्याय्य मैत्री!  

मुक्तिबोध शृंखला:4

“जगत और जीवन में अंतर इतना! मनुष्य की अपनी आतंरिक मौलिक प्यास क्या यों ही अँधेरे में रह जाए सिसकती सी?”

“मानव जीवन-स्रोत की मनोवैज्ञानिक तह में” नामक निबंध में मुक्तिबोध मनुष्य की ‘अपनी आतंरिक मौलिक प्यास’ के न बुझ पाने का सवाल उठाते हैं. उन्होंने निश्चय ही कार्ल मार्क्स की “1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपि” नहीं देखी है. लेकिन जगत और जीवन में जो अंतर वे कर रहे हैं, वह वही है जिसे मार्क्स हमारे वक्त की सारी व्याधियों की जड़ मानते हैं. यह अंतर एक अलगाव पैदा करता है. अजनबीयत. यह दुनिया पराई-सी जान पड़ती है और अपनी खुदी भी अलग हो गई मालूम होती है. एक समय के बाद मैं खुद को नहीं पहचान पाता.

जगत जाहिरा तौर पर मुझसे बाहर और अलग, मेरी इच्छाओं से स्वतंत्र बल्कि कई बार उनसे कतई बेखबर और बेपरवाह जगत व्यापार है जिससे अलग रहने की सुविधा शायद किसी को नहीं. क्या इस जगत को बनाने में मेरा कोई योगदान है या यही मुझे बनाता और तोड़ता है? क्या कभी ऐसा क्षण आएगा जब जीवन और जगत का यह अंतर, जो सिर्फ अंतर नहीं रहता, विरोध में बदल जाता है?

“यह सच है कि जीवन की कुछ ऐसी गहरी अनुभूतियाँ होती हैं जो कभी भी प्रकाश में नहीं आ पातीं. आ नहीं सकतीं.”

मुक्तिबोध के अनुसार ये अनुभूतियाँ इसलिए नहीं प्रकट हो पाती हैं कि व्यावहारिक संसार उन्हें शोभन नहीं मानता. संसार यानी बाह्य और जीवन यानी आतंरिक. वह क्या है जो घुटकर रह जाता है और कौन है वह?

“हमारे समाज में पुरुष स्त्री से कुछ स्वतंत्र होने के कारण अपने हृदय को मुक्त रखने में अधिक सफल होता है, परंतु स्त्री कौटुम्बिक सामाजिक बन्धनों और संसारात्मक व्यक्तिगत रुकावटों की चट्टानों से टकराकर अपनी बेबसी के अँधेरे में बिलख पड़ती है, रो पड़ती है.”

यह प्राथमिक विभाजन है. स्त्री सबसे अधिक अपने आपको दमित करने के लिए बाध्य है. वह अपने ‘अनुभूतियों के कोष’ को, जीवन के उदग्र प्रवाह की अभिव्यक्ति की लालसा को दबा देती है या दबाने को मजबूर होती है. पुरुष ‘मूर्तिमान बाह्य’ है. वह स्त्री की भीतरी वास्तव से परिचित नहीं होता, प्रायः होने की आवश्यकता महसूस नहीं करता. क्या उसमें भी सोचने की क्षमता है, क्या वह भी कुछ ऐसा महसूस करती है जो उसका ही है और जिसे व्यक्त होना चाहिए? हिंदी में इस त्रासदी की पहली सर्वाधिक सशक्त अभिव्यक्ति “रोज़” या गैंग्रीन मानी जाती है. अज्ञेय की इस कहानी की याद इस प्रसंग में अनायास आना स्वाभाविक है. मुक्तिबोध की कहानी “मैत्री की माँग” का आरम्भ:

“सुशीला ने मोरी पर पड़ा हुआ नीला गीला लुगड़ा उठाया और कुँए पर चल दी.

…..बाहर, ज़रा दूर चलकर कुँआ लगता है.झंखड बिरवे, कँटीली झाड़ियाँ,जो ज़मीन से एक फुट भी ऊपर नहीं उठ पाती हैं, तपती पीली ज़मीन के नंगे विस्तार को ढाँपने के बजाय उग्र रूप से उघाड़ रही हैं.”

कभी भी एक फुट से ऊपर न उठ पाने वाली झाड़ी और तपती पीली ज़मीन का नंगा विस्तार: क्या ये दोनों सुशीला ही हैं? वह  गरम हो चुके पत्थरोंवाले चबूतरे पर चढ़कर कुँए में बाल्टी डाल देती है:

“गहरे पानी में बाल्टी को ज़ोरदार छप् और फिर छलकते-गिरते पानी की गूँज.”

“आज कई सालों से सुशीला यह आवाज़ सुनती आ रही है. कान के अंतराल में वह ऐसी समा चुकी है कि छूटे नहीं छूटती. दुनिया में, जीवन में,इर्द-गिर्द कई छोटे-बड़े परिवर्तन होते गए… . परंतु संक्रमणशील जीवन के नए और सुदूरगत पुराने दृश्यों में अटूट संबंध और एकता बनाए रखनेवाली इस कुँए पर की चौड़ी लकड़ी की गिर्री, यह ऊँचा चबूतरा, और पानी निकालने, कपड़े धोने की आवाज़ ऐसी ही चली आ रही है.”

सुशीला भरी बाल्टी लेकर घर लौट आती है. रास्ता परिचित है,

“..भूरी तपी घनी धूल से भरा, सूना अवसन्न.”

शहर से बाहर जाने का रास्ता है, इस वजह से इस पर कम लोग हैं. सुशीला एक बार और देखती है,

“एक निःसंग एकस्वरता सब दूर काँप रही थी. आजकल सुशीला को अपना जीवन अलोना-अलोना-सा लग रहा है.”

वही गहरे कुँए में बाल्टी के गिरने की आवाज़, वही धूल भरा सूना रास्ता, वही एकस्वरता जो किसी संग के भाव से पूर्णतः रिक्त है. एक ज़िंदगी, जिसमें कोई स्वाद नहीं. जब यह नवयुवती दिन भर के काम के बाद पति के कमरे में घुसती है तो

“…न जाने क्यों, ..उसका हृदय एक अज्ञात भार से भर उठता है.”

ऐसा नहीं कि पति रामराव से वह नाखुश है. उनके पास कुछ किताबें भी हैं. लेकिन ज़िंदगी कुछ इस कदर हावी है कि

आले में वह किताब इस तरह धरी रहती है जैसे मन के कोने में एक मीठा अजाना स्वप्न छिपा रहता है. जिस प्रकार नया रास्ता सालों की आमद-रफ्त के बाद घिसकर, उखड़कर निर्जीव घनी धूल की एकरूपता में परिवर्तित हो जाता है उसी तरह सुशीला का हृदय पथ समय के नालदार जूतों और उसकी ठोकरों से घिसकर घनी निर्जीव धूल की एकरूपता में परिवर्तित हो गया है.”

मीठा अजाना स्वप्न और निर्जीव घनी धूल की एकरूपता: ये दोनों ही सुशीला की ज़िंदगी हैं.

यह कहानी ही है, किसी सिद्धांत का कथात्मक निरूपण नहीं सो सुशीला जीवन से सर्वथा अप्रसन्न हो ऐसा भी नहीं और रामराव भी कोई कठोर, निर्मम पति नहीं. पत्नी की तरह तो नहीं लेकिन वे भी “अनुत्पादकशील मेहनत” से क्लांत अपनी प्रतिभा विस्मृत कर बैठे हैं. वह बेकार का श्रम थकान की नींद के अलावा और कुछ दे नहीं सकता. और एक बार जो सपना भी आता है तो कैसा!

“रामराव किसी अपरिचित नगर की अपरिचित … पीली साँवली सड़क पर चल रहा है. …की सड़क के तले नोट बिखरे हुए हैं… . … एक क्षण में सब और नज़र दौड़ाकर वह आनंद के विक्षोभ में नीचे झुकता है और उन्हें असावधानी जेब में भरता चलता है. उसे अपनी सारी फिक्रें याद आती हैं, और वह उनकी शान्ति का अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहता कि…

रामराव जब नोटों को छूकर अनुभव करना चाहता है तभी उसकी नींद खुल जाती है और नोट के “स्थान पर उसे सुशीला की उंगलियाँ मिलती हैं.”

यह दोनों को अनायास मिल गया एक क्षण है,

“…एक मैत्री का क्षण ..जिन क्षणों में मनुष्य हृदय को नग्न कर देना चाहता है.”

पति-पत्नी में मैत्री? दोनों अपना गोपन क्या एक दूसरे से साझा कर सकते हैं? सुशीला के मन में उत्सुकता है एक नए पड़ोसी को लेकर. वह इस एकरस जीवन में कुछ नवीनता की संभावना है. रामराव को पत्नी का प्रश्न बुरा न लगा. मुक्त कंठ से उन्होंने कहा,

“बहुत भला आदमी है.”

क्या है सुशीला का यह कौतूहल? क्या वह खुद जानती है? वह यह न जान सकी कि आकर्षण पति-पत्नी के संबंध को धक्का नहीं पहुँचाता. क्यों वह यह नहीं समझ पाती?

“सुशीला को जीवनभर आत्मविश्लेषण का मौका न आया था.”

सुशीला उसी श्रेणी की  सदस्य है जिसके बारे में “डबरे पर सूरज का बिम्ब” में लिखा था,

“…हर जमाने में एक श्रेणी का दिल नहीं खुला है, एक बहुत विशाल श्रेणी का, भारतीय जनता का, मेहनतकश का.”

यह जो व्यापक कुंठा है उसका अगर फ्रायडीय साइकोऐनेलिटिकल मतलब ही लिया जाए तो ‘दैनिक जीवन के (इस) कंठावरोध’ से उसका कोई संबंध न होगा. लेकिन मुक्तिबोध की सुशीला आखिर क्यों आत्मविश्लेषण का अवसर नहीं पाती.

फिर भी ऐसा नहीं कि यह जो रोज़मर्रापन की काई से ढँका हुआ मन है उसमें कुछ है ही नहीं!

“…सुशीला के हृदय में सारी मायूसी, अवसन्नता तथा म्लानता के बावजूद, बहुत गहरे-गहरे, कहीं तो भी कुछ तो भी फड़फड़ाता रहता था, जो सारी दीवारें, सारी भीतें, सारे व्यवधान फोड़-तोड़कर मेहनत से, अथक उत्साह से, और निःशेष आशा से, इस धनहीनता के निर्जीव, निःस्पंद पीले-भूरे-मटियाले अभिशाप को किसी सागर में फ़ेंक-फाँक दे!”

ध्यान दीजिए इस भाषा पर, रंगों और गतियों और विस्तार के भाव को सावधानी से बारीकी से जो दर्ज करती है.

सुशीला की मुलाकात आखिरकार इस अपरिचित से हो ही जाती है. उसी कुँए पर. और वह, माधवराव भी अचानक देख उसे अपनी ओर देखते हुए देखता है,

“..जैसे यह परिचय की माँग करनेवाली सहज सरल अनायास दृष्टि है.”

एक पूर्ण मुख और स्तब्ध चेहरा लेकिन उसपर विचित्र गंभीर आलोकमय निगाह.

वह लौटता है उसके बारे में सोचता हुआ और उसके दिल पर छा रही है

“एक अनुपम निराकार दया…”

यह एक अयाचित हिलोर है इस अरसे से स्थिर पड़े जीवन-जल में. सुशीला को एक अजीब व्यथा ने घेर लिया है. उसका क्या उपाय करे वह? उसका पति कैसे समझ पाए कि क्या उबल रहा है उसके भीतर?

सुशीला घिरी हुई है “निरपेक्ष निर्वैयक्तिक अंधकार” से.

माधवराव अपने प्रति इस आकर्षण का सही अभिप्राय नहीं लगा पाता. सुशीला क्या चाहती है, यह समझ पाना उसके लिए कठिन है. दोनों का मेल जोल बढ़ता है. उसने एक उपन्यास दिया है सुशीला को पढ़ने को. सुशीला ने कहा,

“दी हुई कादम्बरी पढ़ ली.”

“अच्छी लगी?” माधवराव ने पूछा.

“अच्छी है, पर उस स्त्री के ‘इतने’ थे, पर मित्र तो एक भी नहीं था!’

सुशीला ने मित्र शब्द इतने जोर से कहा….उसे ऐसा लगा मानो वह पूछ रही हो, ‘तुम मेरे मित्र हो सकते हो?’

… सुशीला के हृदय में वही बात गूँज रही थी, “माधवराव, तुम मेरे मित्र हो सकते हो?”

रामराव ने अपनी पत्नी के इस मेलजोल को अपनी उदारता के बावजूद ‘जन-लज्जा’ के प्रतिकूल पाकर सुशीला को समझाने की कोशिश की. उसने माधवराव से मिलना बंद कर दिया और पति से भी कटकर खुद को उसी जीवन-कार्यक्रम के चक्र से कसकर बाँध लिया. लेखक जैसे इन दोनों को दुःख भरे स्नेह से देखता है,

“सुदूरतम श्याम में ये दोनों गृह अपनी-अपनी ज्योति में ढँके निकल जाते.”

इस एकरस, बल्कि रस को सोंख लेनेवाले उदास जीवन का चित्र:

“कुँए पर उषा का लाल विभास उसी तरह फैल जाता…. नीम के पेड़ की निरपेक्ष हिलडोलमयी सरसर उसी तरह झूमती रहती….और फिर टिन से उठता हुआ तपते आसमान में क्षुद्र लगनेवाला धुँआ… . ….फिर शाम आती, रोज़ की भाँति, चिंता ज्वाला के समान श्यामारुण, नीम और धुँए पर कुछ समय के लिए बुझती दृष्टि डाल, और अपने विराट अँधेरे से सर्वत्र को मिलाकर लुप्त हो जाती.”

“प्रत्येक क्षण अपने अंतस्तल में अपना नक्शा लिए खिसकता चलता.”

माधवराव से सुशीला का मिलना फिर कभी नहीं हुआ. उसके जीवन में जो एक हिलोर उठी थी, वह कहीं टूटकर विलीन हो गई:

“उसके मन की गंभीरता के सघन वातावरण को छेदता हुआ विह्वलता का एक किरण-सा जलता तीर उचककर ऊपर आ जाता, परन्तु फौरन वातावरण के श्याम गाम्भीर्य में खो जाता.”

माधवराव का इस छोटी सी जगह से बहुत बड़ी जगह इलाहाबाद को आखिर रवाना होने का दिन आ गया. क्या वह सुशीला को देख पाएगा?

“… यकायक रामराव के रसोईघर की काली खिड़की खुली, और वही स्तब्ध पूर्ण मुख, आँखों में न्याय्य मैत्री की माँग करनेवाला करुण दुर्दम चेहरा.”

पूर्ण मुख है, स्तब्ध क्यों? करुण है लेकिन है दुर्दम. और माँग है न्याय्य मैत्री की.

कितनी सरल और स्वाभाविक है यह माँग लेकिन कितनी कठिन है न्याय्य मैत्री!  

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