ज्ञान की सरहद को तोड़ना

मुक्तिबोध शृंखला 6

आलोचना आत्मपरकता से मुक्त दीखना चाहती है. भावना मुक्त. पसंद-नापसंद से परे वस्तुनिष्ठता की खोज. है तो लेकिन वह आखिर देखने की एक क्रिया. देखने का यह व्यापार क्या ‘दर्शक कौन है?’ के प्रश्न को परे कर सकता है? क्या यह देखनेवाले के कद पर निर्भर है? उसका फैसला कौन करेगा? क्या जो देखता है क्या खुद को देखते हुए देख सकता है? यानी जब हम दीखनेवाली वस्तु का वर्णन कर रहे हैं तो क्या अपने बारे में भी कुछ बता रहे हैं?  जो देखता है, वह दीखता भी तो है!

मुक्तिबोध की ‘साहित्यिक की डायरी’ को नामवर सिंह ने ठीक ही ‘एकालाप और संलाप’ कहा है. आप मुक्तिबोध को खुद से बात करते हुए देख, सुन सकते हैं. जो निबंध या टिप्पणियाँ ‘साहित्यिक की डायरी’ में संकलित हैं वे मात्र साहित्य के बारे में मुक्तिबोध के कतिपय निष्कर्ष नहीं हैं, वे साहित्य के विषय में सिद्धांत निरूपण भी नहीं. हालाँकि उसके सूत्र इनमें मौजूद हैं. विचार की प्रक्रिया में पाठक को शामिल करने की इच्छा इनके पीछे है. या शायद वह भी नहीं. यह एक तरह की विचार सजगता है. लेखक खुद अपनी विचार प्रक्रिया की ‘एम आर आई’ कर रहा है. आपके सामने फिर जो है वह इसकी तस्वीर है. इसलिए अलग-अलग टिप्पणियों में पूर्णता की तलाश व्यर्थ है. अपूर्णता या तदर्थता इनका स्वभाव है.

अपूर्णता को आप चाहें तो धारावाहिकता कह लें. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि कोई एक विचार अपने आपमें संपूर्ण नहीं है. वह एक चली आ रही विचार प्रक्रिया से संबद्ध है. उस प्रक्रिया के दो आयाम हैं. एक तो स्वयं उस व्यक्ति की विचार प्रक्रिया और दूसरे, अन्य अनेकानेक व्यक्तियों की विचार प्रक्रियाएँ. उन्हें अलग न मानें, ऐसे वृत्त मान लें जो एक दूसरे से अछूते नहीं, एक दूसरे को काटते हुए सार्थक होते हैं. कोई एक व्यक्ति क्या निर्द्वंद्व विचार का दावा कर सकता है?

यह हो सकता है कि विचार को लेकर मन में संदेह हो और किसी कारण से उसे दबा दिया जाए. वह आत्म सुरक्षा की अचिंतित भावना के कारण हो सकता है. किसी एक विचार की पूर्णता में यकीन इत्मीनान देता है, सुरक्षा भी. वह श्रम से भी बचाता है. यह सहज मानवीय प्रवृत्ति है कि कम से कम ऊर्जा व्यय होने दी जाए. इसलिए अगर विचार प्रक्रिया दीर्घ होने लगे और उसमें द्वंद्व उत्पन्न होने लगे तो एक जगह इसे रोक दिया जाता है. इतनी तरद्दुद कौन करे? फिर विचार का संबंध कर्म से भी तो है. अगर हम अनंतकाल तक किसी एक विषय पर विचार ही करते रह जाएँगे तो जिस उसे कार्यान्वित कौन करेगा? इसलिए प्रत्येक दृष्टि से पूर्ण, निर्दोष विचार की कल्पना छलावा है और कई बार यह अपनी निष्क्रियता के लिए सुंदर तर्क के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.

इसका अर्थ यही है कि हम अपने विचार की सीमा को तो स्वीकार करें ही, विचार की प्रक्रिया के प्रति सच्चे रहें. वह प्रक्रिया क्या है? “वाद का घेरा” में मुक्तिबोध इसे स्पष्ट करते हैं. दुनिया में जो कुछ चल रहा है, उसकी प्रतिक्रियाएँ आपके मन में होंगी ही. लेकिन वे प्रतिक्रियाएँ ही विचार नहीं हैं. उनके सही-गलत होने के लिए विचार करना पड़ता है. और वह कैसे होता है?

 “सोच-विचार निर्जन शून्य में नहीं हो सकता. इसके लिए कुछ पढ़ना पड़ेगा, कुछ अध्ययन करना पड़ेगा, और दूसरों के अनुभवों और विचारों को, इस संबंध में जानना पड़ेगा! मतलब यह कि इस काम में जितनी दूर तक और जितनी गंभीरता से आगे बढ़ेंगे, आपकी प्रतिक्रियाओं और विचारों में उतनी ही व्यवस्था आती जाएगी. बस, इसी व्यवस्था को लोग, आगे चल कर सिद्धांत कहते हैं.”

यानी सिद्धांत फौरी प्रतिक्रिया को ही अंतिम मान लेने से सावधान करता है. जो ऐसा नहीं करता उसे मुक्तिबोध झिड़की देते हैं,

 “इसका अर्थ केवल इतना है कि आप लोग सिद्धांत को व्यवहार की कसौटी पर और व्यवहार को सिद्धांत की कसौटी पर कसना नहीं चाहते!”

ऐसा न करने का कारण है:

“असल में जैसे शरीर का आलस होता है, वैसे बुद्धि का भी आलस होता है! कौन सोचे, कौन करे? सबसे अच्छा यह है, जो कुछ दूसरे सोचते हैं, वैसा ही ठीक होगा. जांच-पड़ताल की सक्रिय बुद्धि के लिए कुछ मानसिक आलस्य त्यागना पड़ता है!”

मानसिक आलस्य के शिकार लोग अपने अनुभव जगत् को ही संसार मान बैठते हैं. वे इसकी जाँच भी नहीं करना चाहते कि जो कुछ उन्हें अनुभव होता है वह कतिपय सूचनाओं के आधार पर ही. हमारी इन्द्रियाँ एक रास्ता हैं  सूचना ग्रहण करने या संप्रेषित करने का. उनकी सीमा है. ‘अंधा युग’ में धृतराष्ट्र और विदुर का संवाद सुनिए. महाभारत हो चुका है. कौरवों की पराजित सेना लौट रही है. संजय की आतुर प्रतीक्षा हो रही है कौरव नगरी में कि वे कुछ समाचार लाएँगे.

  “धृतराष्ट्र: विदुर!

          जीवन में प्रथम बार

          आज मुझे आशंका व्यापी है.

  विदुर:  आशंका?

        आपको जो व्यापी है आज

        वह वर्षों पहले हिला गई थी सबको

 धृतराष्ट्र: पहले पर कभी तुमने यह नहीं कहा…

 विदुर : भीष्म ने कहा था,

       गुरु द्रोण ने कहा था

       आकर कृष्ण ने कहा था—

       मर्यादा मत तोड़ो

       तोड़ी हुई मर्यादा कुचले हुए अजगर-सी

       गुंजलिका में कौरव वंश को लपेट कर

       सूखी लकड़ी-सा तोड़ लाएगी.

धृतराष्ट्र; समझ नहीं सकते हो

        विदुर तुम.

        मैं था जन्मान्ध.

        कैसे कर सकता था

        ग्रहण मैं

        बाहरी यथार्थ या सामाजिक मर्यादा को?”

बाहरी यथार्थ को, जो कि ज्ञान है, अपनी ऐंद्रिक क्षमता से सीमित रहकर जो ज्ञान की सत्ता खो बैठता है ग्रहण  किए बिना सामाजिक मर्यादा का बोध विकसित होना भी असंभव है. ‘अंधा युग’ में ‘अंधता’ शब्द में निहित लेखक की कालजनित या उससे सीमित असंवेदनशीलता को नोट करते हुए इसके आशय पर विचार करना फलप्रद होगा. अपनी इन्द्रियों से ही जो संसार उपलब्ध होता है वही संसार नहीं है. धृतराष्ट्र आगे विदुर को कहते हैं:

     “मैंने अपने वैयक्तिक संवेदन से जो जाना था

      केवल उतना ही था मेरे लिए वस्तु-जगत्

वस्तु जगत् अपनी वैयक्तिक संवेदना की सीमा से कहीं बृहत्तर है. इसलिए हम जिसे देख लें वही सत्य, उसी के आधार पर हम अपनी धारणाएँ बनाएँ, इससे धोखा हो सकता है. स्वानुभव आधारित ज्ञान गुमराह ही करेगा. और उसके आधार पर जो मूल्य व्यवस्था निर्मित की जाएगी वह भी त्रुटिपूर्ण होगी.

अनेक पुरुष भले होते हैं लेकिन इससे पुरुषप्रधान समाज का दमनकारी स्वभाव मिथ साबित नहीं हो जाता. पितृसत्ता के विरोध की शर्त सारी महिलाओं का भला होना नहीं है. अल्पसंख्यकों के अधिकार इसपर निर्भर नहीं होंगे कि उनमें कोई किसी प्रकार का अपराध न करे. यह सब कुछ तभी समझ में आ सकता है जब हम ज्ञान को निजी अनुभव की परिधि से परे जाकर समझने का प्रयास करें.

वस्तु जगत् निजी अनुभव सीमा का अतिक्रमण करता है. यह न समझने पर ज्ञान से जो मूल्य व्यवस्था गढ़ी जाती है वह संकुचित ही होगी. धृतराष्ट्र ही स्वीकार करते हैं:

   …

   एक काले बिंदु से

   मेरे मन ने सारे भाव किए थे विकसित

    मेरी सब वृत्तियाँ उसी से परिचालित थीं!

    मेरा स्नेह, मेरी घृणा, मेरी नीति , मेरा धर्म

    बिलकुल मेरा ही वैयक्तिक था.

    उसमें कोई नैतिकता का बाह्य मानदंड था ही नहीं.

    कौरव जो मेरी मांसलता से उपजे थे

    वे ही थे अंतिम सत्य

    मेरी ममता ही वहाँ नीति थी,

    मर्यादा थी.”

आश्चर्य नहीं कि जो आशंका महाभारत के पहले सबको व्यापी थी, धृतराष्ट्र उससे अछूते थे. वह आशंका ज्ञान के कारण ही थी. भावी अनिष्ट की कल्पना क्यों कुछ कर पाते हैं और ज़्यादातर नहीं? क्यों हिटलर के उदय के साथ फासिज़्म की चेतावनी बहुमत के द्वारा नहीं सुनी गई? क्यों अभी भी भारत या दूसरे देशों में फासिज्म के अनिष्ट को लोग नहीं स्वीकार कर पाते? उसका कारण अपने अनुभव लोक को ही अंतिम मान लेना है. वे जब तक मेरे लिए नहीं आते, उन्हें आततायी मानना कठिन होता है. लेकिन अगर वे कभी मेरे लिए न आएँ, उनसे मेरा कोई नुकसान हो तो मैं उनके आततायी चरित्र को पहचान सकूँगा या नहीं? या वे मेरे साथ तो अच्छा व्यवहार करते हैं इसलिए जो उनकी आलोचना करता है, वह मुझे शिकायती मालूम देता है?

अपनी अवस्थाबद्धता का बोध सहज नहीं है. उससे कठिन है उसके अतिक्रमण की आवश्यकता समझना और उसके लिए श्रम करना. ज्ञान निजी अनुभव को अवश्य हिसाब में लेता है, लेकिन वह हमेशा उससे परे जाकर ही ज्ञान हो सकता है.

‘आत्मनेपद’ में संकलित लघु निबंध ‘शारदीय धूप’ में अज्ञेय इस इस प्रश्न पर मुक्तिबोध की तरह ही, लेकिन भिन्न शैली में विचार करते हैं:

 “तो फिर क्यों हम शांति के लिए ज्ञान खोजते हैं? मनोदशा के लिए मन के बाहर का कुछ भी क्यों महत्त्व रखता है? मन से मनोदशा उत्पन्न होनी चाहिए, और मन अपना निजी है, आभ्यंतर है…”

अज्ञेय यहाँ रुक जाने से सावधान करते हैं:

  “पर मन जो भी हो, स्वयंभू तो कतई नहीं है. आभ्यंतर होकर भी बाह्य स्थिति से प्रभावित है, उन स्थितियों के घात-प्रतिघात और परस्पर प्रभाव से अनुशासित है.”

जानना सबके बस की बात नहीं. यह अज्ञेय जैसा ‘अभिजन’ नहीं कह रहा, मुक्तिबोध कह रहे हैं: “मैं साधारणतः लोगों के विश्लेषणों पर अधिक विश्वास नहीं कर पाता.” क्यों? ‘एक मित्र की पत्नी का प्रश्न चिह्न’ में वे इसका कारण बतलाते हैं:

“साधारणतः व्यक्तित्व का विश्लेषण करते समय विश्लेषणकर्ता अपनी प्रकृति और स्वभाव का अधिक प्रयोग करता है…”

मुक्तिबोध इसे स्वाभाविक मानते हैं, लेकिन उचित यह निश्चय ही नहीं है. उसका कारण है:

“विश्लेषित और विश्लेषक के बीच मानव-संबंधों का अध्ययन किया जाए और उन मानव संबंधों के सन्दर्भ से ही विश्लेषित और विश्लेषक का भी अध्ययन किया जाए.”

विश्लेषण व्यक्ति का, व्यक्ति समूह का किसी समाज का हो सकता है. विश्लेषण करते समय विश्लेषणकर्ता अपने आग्रहों को भी उद्घाटित करता है. प्रश्न यह है कि क्या वह इनसे यानी “अपने से ऊपर उठ कर” यह किया जा सकता है? मुक्तिबोध का उत्तर है:

“…यह बिलकुल संभव है. मनुष्य अपने से परे जा सकता है. वह जाता भी है, गया भी है, और जाएगा भी.”

मुक्तिबोध इस यकीन के बावजूद पूछते हैं:

“…उसका विश्लेषण सही है, इसका क्या प्रमाण?”

क्या कसौटी अपना अनुभव है?

“…अपने अनुभव से मैं यह कह सकता हूँ कि अमुक अमुक निर्णय में सत्यांश है—खूब और काफी डट कर.”

लेकिन यह उन्हीं के अनुसार पर्याप्त नहीं:

“…मेरे अपने अनुभव को ही मैं सत्य की कसौटी नहीं मान सकता, क्योंकि मेरे किसी भी अनुभव का एक हिस्सा मेरे अपने प्रकृति स्वभाव से उत्पन्न हुआ है.”

यह अनुभव मुझसे स्वतंत्र हो तो उसका मूल्य है:

“ ..यदि यह अनुभव सार्वजनिक हो, आम हो तो उसमें सत्यता की मात्रा बढ़ जाती है.”

सार्वजनिक अनुभव भी आख़िरी कसौटी नहीं. क्योंकि वह देश काल से सीमित है:

“सौक्रैटीज़ को बहुत बुरा आदमी कहकर ही फाँसी दी गई थी. और अनेक शहीद अपने ज़माने में बहुत बुरे बन ही मरे.”

इसलिए कुछ है जो देशकाल से भी परे है और उसकी खोज ज़रूरी है.

खोज के दो तरीके हो सकते हैं:

“ …एक तो विशुद्ध आत्म-हित के भाव से, दूसरे, सूक्ष्म से सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक स्वार्थों को हटाकर.”

‘मनोवैज्ञानिक स्वार्थ’ पढ़कर आगे न बढ़ जाइए. क्या हो सकता है यह?

आपका चिंतन या विश्लेषण आपके अपने अहंकार की अभिव्यक्ति न हो. जीवन का प्रसार और उसकी गहराई हमारे पास मौजूद विश्लेषण के साधनों की सीमा का ही बोध करा सकती है. इसलिए,

“मैं अपने ‘वैज्ञानिक चरित्र-विश्लेषण’ को केवल काम चलाऊ कार्यकारी मान्यता के रूप में ही ग्रहण करने की ताईद करता हूँ.”

अपने ज्ञान की सीमाएँ और उसकी विवशताएँ समझो और इसीलिए अन्यों को ‘संदेह का फायदा’ दो. यानी अपने साथ सख्ती और दूसरे के साथ रियायत.

आपका विश्लेषण ठीक दिशा में है या नहीं, इसकी पहचान क्या है? क्या आप इसके कारण मनुष्य के विकास में आस्था की तरफ बढ़ते हैं? या इस पूरी प्रक्रिया से आपमें अनास्था बढ़ती है? जीवन और मनुष्य के प्रति? क्या आप इन दोनों से निराश हो उठते हैं या इनमें आपकी उम्मीद बढ़ती है?

आखिरकार जीवन के प्रति आस्था ही तो लक्ष्य है. उसी से शांति भी मिलती है. मुक्तिबोध के समकालीन अज्ञेय इस शांति के लिए ज्ञान की तलाश करते हैं.

“…शांति के लिए स्थिति का ज्ञान भी आवश्यक है. और परिस्थितियों से अपने संबंधों का ज्ञान भी आवश्यक है.”

या

“आभ्यंतर को जानने के लिए बहिर्मुखता की आवश्यकता है, भीतर को समझने के लिए बाहर का अनुशीलन अनिवार्य है.”

यह ज्ञान की सुरक्षा से अज्ञात की असुरक्षा में जाना है. इससे घबराना नहीं है.

“ज्ञात से अज्ञात की और जाने का कार्यक्रम बना डालो, डरो नहीं.”

“ऐसा करते रहने से ज्ञान की विवशताएँ टूटेंगी, उसकी सरहदें टूटती रहेंगी.”

शांति का अर्थ यथास्थिति का स्वीकार नहीं है. मुक्तिबोध के यहाँ ज्ञान भयंकर अस्थिर करता है. अज्ञेय के ज्ञान और शांति के समीकरण से भ्रम हो सकता है कि वे क्रियोन्मुख ज्ञान से विरत हैं. जैसे मुक्तिबोध ज्ञान को कर्म से पृथक् नहीं करते, अज्ञेय के अनुसार ज्ञान का एक पक्ष अनिवार्यतः कर्म है:

“ …ज्ञान के अलावा कर्म भी आवश्यक है,क्योंकि स्थिति को जानना ही तो उसका अनुकूलन नहीं है, स्थितियों को बनाना भी तो होता है, उनसे संबंधों को बदलना भी तो होता है.”

ज्ञान से अज्ञात की तरफ जाना, अज्ञात को ज्ञात का अंश बनाना, स्थितियों को जानना और उनसे अपने संबंधों को बदलना यानी नई स्थितियों को बनाना: ये दोनों क्या अलग-अलग काम हैं?

One thought on “ज्ञान की सरहद को तोड़ना”

  1. ज्ञान की सुरक्षा से अज्ञात की असुरक्षा में जाना है. इससे घबराना नहीं है.

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